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शरद पूर्णिमा : चंद्रमा की अमृत बरसाती किरणें और श्वेत धवल चांदनी 

28 अक्टूबर शरद पूर्णिमा पर विशेष –

 ‌‌      शरद पूर्णिमा का पर्व बड़े धूम-धाम से संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है। इस उत्सव का हर युग में अपना एक अलग महत्व रहा है। इस उत्सव से ही शीतऋतु का आगमन होना माना जाता है। इसके पूर्व वर्षा ऋतु की विदाई हो जाती है। कुंवार माह के अंतिम तिथि और कार्तिक माह के प्रथम काल में दो ऋतुओं की संधिबेला में मनाये जाने वाले इस पर्व की कई मायनों में विशिष्टता है। आज के इस कलियुग में शरद पूर्णिमा की रात्रि को ऐसा माना जाता है कि चंद्रदेवता अमृत रूपी ओस की बूंदों से हम सभी धरती वासियों को अभिसिक्त करते हैं। समस्त चराचर जगत को स्वास्थ्य और दीर्घायु का आशिर्वाद प्रदान करते हैं। इसी मान्यता के अनुसार परम्परागत रूप से में प्राय: लोग रात्रि को खीर बनाकर खुले आकाश के नीचे शरद पूर्णिमा की रात्रि को रख देते हैं। और दूसरे दिन प्रातः होने पर उसे सभी लोगों के साथ मिल बांटकर प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। यह खीर चिकित्सकीय मत के अनुसार, बहुत आरोग्यवर्धक माना गया है। तभी तो कई स्थानों में बैद्य और चिकित्सक इस रात्रि को अपने चिकित्साकार्य को संपन्न करते हैं, और अपने रोगीजनों को दवा खिलाकर उन्हें स्वस्थ्य करते हैं।

 ‌   शरद पूर्णिमा विश्व में कई देशों द्वारा अलग अलग रूप एवं नामों से बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हालांकि यह प्राचीनतम और खासकर हिन्दुओं का पर्व है। इस पर्व को मनाने के पीछे कई पौराणिक प्रसंग है। इन प्रसंगों की सबसे बड़ी खासियत यह हैं कि वे सभी प्रसंग प्रत्येक युग से भी संबंधित है जैसे पहला सतयुग दूसरा त्रेतायुग तीसरा द्वापर युग और अंतिम और चतुर्थ है, कलियुग। इन चारों युगों में शरद पूर्णिमा का पर्व बड़े उत्साह और अपनी अलग मान्यताओं के साथ बनाया जाता रहा है। चारों युग के पर्वो का पर्व मनाने के पीछे मानी जाने वाली मान्यताए इस प्रकार है।

पहला सतयुग में समुद्रमंथन

सतयुग काल में देव और दानवों ने मिलकर मंदराचल पर्वत और शेष नाग के माध्यम से समुद्र का मंथन किया था। इस मंथन के पहले देव और दानवों में यह मंत्रणा हुई थी कि मंथन के दौरान जो कुछ भी प्राप्त होगा, उसे सभी मिलकर बांटेगे। इस मंथन से चौदह रत्न निकले और सबसे अंत में अमृतकलश प्राप्त हुआ था। और जैसा कि पूर्व निर्धारित या इसे सभी देवताओं के बीच वितरित करने का निर्णय लिया गया था। पर भगवान विष्णु ने विश्व मोहिनी रूप में आकर अमृत बांटने की- जिम्मेदारी लेते हुए  अमृत को देवों को पिलाया और दानवों को चालाकी से सोमरस पिला दिया था।  मंथन में विष भी बाहर आया था जिससे  विश्व  विषमय बना देने वाला भयंकर विष भी प्राप्त हुआ था। विष के प्रभाव से संपूर्ण सृष्टि में हाहाकार मच जाता।तब लोकों की रक्षार्थ भगवान शंकर ने उसे महाविष को धारण किया था। तभी से उनका गला नीला हो जाने से उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। अमृत का वितरण आज के दिन अर्थात शरद पूर्णिमा को ही किया गया था। अतः पृथ्वीवासी आज भी उसी स्मृति में रात्रि को आकाश में अमृत की वर्षा को पूरे विश्वास से मान्यता देते हैं। 

दूसरा त्रेतायुग में भगवान राम का लंका विजयोत्सव

   सीता हरण की परिणिति रूप में राम रावण के बीच युद्ध अवश्यंभव था ।अंततः भगवान राम और अहंकारी रावण के बीच भीषण महायुद्ध हुआ। जिसमें लंकापति बलशाली राजा रावण की पराजय हुईं। राम ने रावण का अंत कर  विजय प्राप्त की। राम ने विजयादशमी अर्थात कुंवार माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को लंका पर विजय प्राप्त किया था। और इसके ठीक पांचवे दिन अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन लंका पर विजय प्राप्त करने की खुशी में राम ने आयोध्या लौटकर अपनी

सेना और अयोध्यावासियों के साथ विजयोत्सव मनाया। वहीं इसी दिन लंका में भी विभीषण एवं राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण के नेतृत्व में भी बहुत भव्य उत्सव मनाया गया वही पर्व आज भी शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।

तीसरा द्वापर युग में कृष्ण की महारासलीला

भगवान कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां थी। और इतनी अधिक पत्नियों होने के कारण स्वाभाविक था कि कृष्ण किसी भी पत्नी को यथोचित समय नहीं दे सकते थे। भगवान कृष्ण ने तो कई रानियों को देखा भी नहीं था। यही कारण था कि उनकी पत्नियों को कृष्ण से बहुत शिकायत थी। उधर कृष्ण जी की बालसखा प्रेमिका राधा का उत्कट प्रेम भी कृष्ण को खींच रहा था। अंततः सभी समस्याओं का समाधान निकालने के लिये भगवान कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को ही महारासलीला रचाई थी।. इस महारासलीला में कृष्ण जी के साथ उनकी सभी पत्नियों ने भाग लिया। राधा के संग इसी रात्रि को उनका प्रथम मिलन माना जाता है। कृष्ण की रासलीला में उनकी रानियां इतनी निमग्न हो गई थीं कि पूरी रात्रिकाल को यह रासलीला चलती रही और उन्हें कब प्रातः हो गई इसका पता भी नहीं चल पाया।

चौथा कलियुग में शरदोत्सव 

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

    इस काल में प्राय: अनेक स्थानों में पूरे उत्साह के साथ शरदोत्सव कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर अनेक साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं संगीत प्रतिस्पर्धा भी की जाती है। कहते हैं कि आज की ही रात्रि में साहित्यकार एवं लेखकों के अंतरमन में उत्कृष्ट रचनांए जन्म लेती हैं। शरद पूर्णिमा की बेला में मां सरस्वती उन पर खूब प्रसन्न हो जाती हैं। इसी कारण उन्हें अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के कार्य निर्वहन में मां सरस्वती पूरी सहायता देती हैं। आम जन जगह एकत्रित होकर शरद पूर्णिमा उत्सव मनाते हैं और अमृतपान की आकांक्षा में खीर बनाकर उसे रात्रि को खुले आकाश में रखकर प्रातः उसका प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस खीर में गौ माता से प्राप्त अमृत तुल्य दूध एवं आकाश से टपकने वाली अमृत अर्थात दो अमृतों के मिलन से वह खीर महाअमृत तुल्य गुणों वाला बन जाता है। इस विश्वास के साथ लोग खीर रुपी प्रसाद का ग्रहण पूरे आदर भाव से करते हैं।  शरद पूर्णिमा अर्थात सरस्वती पूजा के उत्सव से प्रारंभ होने वाला वह पर्व लगातार पूर्णिमा के दिन मां सरस्वती एवं चंद्र देवता की पूजा पाठ करने का भी विधान है जिसकी विधि इस प्रकार है इस दिन प्रातः स्नानकर स्वच्छ कपड़े पहनकर नदी, तालाब या घरो में भी पूजा की जाती है। कई लोग पूरा दिन निराहार व्रत रखते हैं। फिर पूजोपरांत रात्रि की भोजन ग्रहण करते हैं। पूजा में सबसे पहले इष्ट देवी देवता को जल चढ़ाया जाता है। प्रात: साक्षात सूर्य एवं चंद्रमा उपस्थित रहते हैं उन्हें ही अर्ध्य देने का प्रावधान है। इस के. पश्चात चंदन कुमकुम, फूल, अक्षत चढ़ाये जाते हैं। फिर श्रद्धानुसार फलफूल एवं ‘खीर आदि पकवानों का भोग लगाया जाता है। मनोकामनाएं पूर्ण करने की प्रार्थना करते हुये पत्तों में दीपक जलाकर उन्हें नदी में बहाया जाता है। अपने आराध्य देव को खीर  का भोग लगाकर उसे रात्रि में खुले रखाकर, प्रातः सभी लोगों को प्रसाद वितरित किया जाता हैं। आनंदपूर्वक लोग इस उत्सव के परंपरा का निर्वहन करते हैं।

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