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गलियों और आंगनों में दिखने लगा रंगो भरा संसार: रंगोली

रंगोली हमारे देश की संस्कृति से ऐसे जुड़ी हैं कि जैसे उसकी आत्मा हो

     शबनमी फुहारों की हरियाली भरी बरसात की बिदाई के साथ ही घरों की साफ – सफाई और रंग रोगन का काम प्रायः लोग शुरु कर देते हैं। हिन्दुओं के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली के स्वागत पूर्व की तैयारी कह लो इसे या फिर शायद मौसमानुकूल स्वच्छता की चाहत कह लें। प्रायः सभी धर्म के लोग आजकल अपने अपने घर की मरम्मत व उसकी सफाई कर स्वच्छ व चकाचक देखन के लिये, कार्य में लगे रहते हुये घर को नया रंग देने का भरपूर प्रयास करते हैं। इसी क्रम में घर की महिलायें व युवा लड़कियाँ अपने अपने घरों के आंगन को गोबर से लीपपोत कर फिर उसमें विभिन्न रंगों का संसार रचकर रंगबिरंगा रंगोलियों का सृजन करती हैं। इन दिनों प्रायः गलियों में हर घरों के सामने तरह तरह के रंगोली और उनकी चित्रकारी देखते ही बनती हैं। रंगोली डालना भी एक कला है। अब तो अनेक स्थानों में इसकी प्रतिस्पर्धायें भी होने लगी है। इस स्पर्धाओं में युवतियां बढ़चढ़ कर हिस्सा ले कर अपनी कला का प्रदर्शन करती हैं। पारसियों की यह वर्षो पुरानी परंपरा रही है कि वे अपने घरों में रंगों के द्वारा विभिन्न आकृतियों को बना कर लोगों को आकृष्ट करें। इन रंगों के द्वारा वे अपने “घरों की साज सजावट और उत्कृष्ट रुचि का परिचय कराते हैं। पारसी घरों मे प्रतिदिन रंगोली बनायी, सजायी जाती है। जब तक महिलाएं रंगोली नहीं सजाती, पानी नहीं पीती ऐसा माना जाता है। यह धीरे – धीरे महाराष्ट्र और गुजरात से फैलते फैलते सारे राष्ट्र में पसर कर अपनी छटा बिखेर रहा है। अब तो किसी भी शुभ अवसर पर, तीज त्यौहार या पर्व पर इनका बनना अनिवार्य हो गया हैं।

 उत्तर प्रदेश में आटे से रंगोली बनाने का प्रचलन हैं, उसी प्रकार बंगाल में रंगोली को अल्पना के नाम से जाना जाता है। दक्षिण भारत में इसे कोलम कहते हैं। कला को किसी भी रूप में निखारा जा सकता है, उसे रंगीला बनाया जा सकता है। पूर्व में खड़िया, सूखे आटे वा पाउडरों से रंगोली बनाई जाती थी। धीरे- धीरे तैलीय रंगों, चांवल के दानों, (आटे) से रंगोली बनी, अब तो थर्मोकोल पर रंगोली बननी शुरु हो गई है। आधुनिक समय में महगाई की मार को देखते हुए अब लोगों ने सूखे अनाज मूंग, मोठ, बाजरा, राजमा, हरा मटर, काली उड़द आदि नैसर्गिक रंगों (अनाज) से रंगोली बनानी शुरु की है। इसमें रंग की ज़रुरत ही नहीं पड़ती है। स्वयं अनाज ही अपनी प्राकृतिक रंगों की छटा बिखेरकर सबका मन मोह लेते हैं। इसके लिये सबसे पहले जमीन को साफ करके चौक से कोई भी आकृति जमीन पर बना लिया जाता है, फिर पसंद के अनुसार सूखे’अनाजों के रंगों का चयन कर उस आकृति पर फेविकोल या गोंद के जरिये अनाजों को सुघड़ता से चिपका कर उन्हें कलात्मक और सुंदर आकृति में बदल दिया जाता है। इसी प्रकार दानेदार नमक से भी रंगोली बनायी जाती हैं। इसमें नमक के दानों को अलग अलग रंगों में रंग कर जमीन पर बनाई गई आकृति पर चिपका दिया जाता हैं। इन सबके अलावा, काले गुलाब की पत्तियों गेंदा, सेवंती, बेला, चंपा, चमेली आदि फूल की पत्तियों तथा अन्य पेड़ों की पत्तियों से रंगीन रंगोली सजाई जा सकती है। ऐसी रंगोलिया देखने में गीलापन लिये दिखती हैं। चावल की भी रंगोली बनाई जाती है। आजकल बाजार में तो विभिन्न आकृतियों का छेदेदार कागज, भी बिकने लगा है जिसे जमीन पर बिठा कर उसमें रंगोली डालकर कागज को उठा लिया जाता है। इस तरह जमीन पर छिंटदार डिजाइन तैयार हो जाता है।

     रंगोली हमारे देश की संस्कृति से ऐसे जुड़ी हैं कि जैसे उसकी आत्मा हो ।  कला ने हमें सदियों से एकडोर में  पिरो रखा है। रंगोली को अल्पना, एपण, अरिपन, मांडने, कोलम, चौक, गुग्गुल आदि अनेक नामों से भी जाता जाता है। देश के उत्तर से दक्षिण तक यह कला अलग अलग नामों से बिखरी पड़ी हैं। भारत में विभिन्न त्यौहार मनाये जाते हैं। इन अवसरों पर हमारी माताएं बहनें कलात्मक रंगोलियां बनाती हैं। इस कला से संबंधित नियम हमारे शास्त्रों व उपनिषदों में भी वर्णित हैं। इन कलाओं में समाज की उस धार्मिक, आध्यात्मिक, मनोरंजनात्मक व अलंकारिक लोक अभिव्यक्ति का आभास होता है। जो हमारी भारतीय संस्कृति का आधार है। कालिदास रचित मेघदूत में इसका उल्लेख है। प्राचीन गुफाओं की दीवारों पर भी रंगोलिया पाई गई हैं।

     वास्तव में रंगोली मानव हृदय की भावनाओं की अभिव्यक्ति का सुंदर माध्यम है। इसी के सहारे मानव, पर्व, त्यौहारो, मांगलिक उत्सवों के अवसर पर अपनी खुशी का इजहार करता है। रंगोली की सुंदर छवि में निहित एकात्मकता की, मानव को मानव से जोड़ने की प्रेम और विश्वास से परस्पर कोमल भावनाओं को प्रेरित करने की विलक्षणता को पहचान कर ही हमारे पूर्वजों ने इस कला पर विशेष ध्यान दिया। इस कला को चरम शिखर पर पहुंचाने का श्रेय जाता है हमारी माताओं और बहनों को, जिन्होंने इस कला को सुरक्षित और अपनी कल्पना शक्ति से सृजित कर इसे नया आयाम देने में महत्वपूर्ण केन्द्रीय भूमिका निभाई हैं।

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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