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हाँ, तो उस दिन विद्यालय में क्या हुआ था

             • प्रमोद दीक्षित मलय

सितंबर 2019 के पहले सप्ताह का आखिरी दिन। मुझे संकुल प्रभारी जी के पास कुछ प्रपत्र जमा करते हुए विद्यालय निकलना था तो प्रपत्र जमा कर और वहाँ उपस्थित अन्य प्रधानाध्यापकों से सामान्य विभागीय बातें कर कुछ नई सूचनाएँ नोट कर अपने विद्यालय की राह पकड़ी। डामर की सड़क बारिश से धुलकर चमचमा रही थी। मुख्य सड़क छोड़ मैंने विद्यालय के गाँव वाला लिंकरोड पकड़ा। रोड में कहीं-कहीं गड्ढे थे, जिनमें पानी भरा था और बाईक का पहिया पड़ने से पानी के छींटे छिटक कर जूतों एवं पैंट की मोहरी पर पड़े जा रहे थे। हुआ यह था कि पिछले दो दिन से तेज धूप और उमस से उस दिन भोर में हुई जोरदार बारिश से मन को चैन मिला था। परिवेश को वातावरण ने शीतलता की चादर ओढ़ा दी थी। वृक्षों की पत्तियाँ धुल जाने से अरुण प्रभात में नवल आभायुक्त हो चमक रही थीं। खेतों में मिट्टी के ढेले बारिश में पिघल गये थे हालाँकि खेतों में बिलकुल भी पानी नहीं था। पक्षी प्रमुदित हो दाना-पानी की तलाश में अम्बर में उड़ान भर रहे थे। मैं विद्यालय पहुँचा ही था। मेन गेट के बाहर सामने का तालाब अभी प्यासा था मगर ‘भुइयाँ मातारानी’ के स्थान का वृद्ध पीपल जीवन पा खुश हो तालियाँ बजा रहा था।        

             मैंने विद्यालय में प्रवेश कर बाईक खड़ी की और रैम्प से चढ़ते हुए हॉल की ओर पहला कदम बढ़ाया ही था कि कानों से एक वाक्य टकराया, “पहिले किताब को अच्छे से देखना होता है। अच्छा छोटी तुम बताओ या पन्ना मा का-का बनो है?” स्वर की दिशा में गर्दन घूम गई।‌ देखता हूँ कि, दो छोटे छह वर्षीय बच्चे जिनका अभी नामांकन नहीं हुआ पर विद्यालय लगातार आ रहे हैं, पतलू (प्रियांशू) और छोटी (रोचिका) रैम्प से सटी सीढ़ियों पर बैठे हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘कलरव’ के कवर पेज पर संवाद कर रहे थे। मैं ठहर कर उनका वार्तालाप सुनने लगा।

रोचिका ने उत्तर दिया,  “यहिमा गुब्बारे बने हैं और पेड़ और बच्चे और चिरैया उड़ती हैं। अच्छा पतलू अब तुम बताओ, और का-का छपो है?” कुछ पल की चुप्पी के बाद कवर को देखते हुए पतलू बोला,  “यहिमा क ख ग लिखो है और 123 गिनती भी, और ABCD भी, और सुरिज आसमान से निकर रहा है और सगले उजियार होई रहा है।” वे दोनों बाँदा जनपद की स्थानीय भाषा-बोली बुंदेली-अवधी में मिली-जुली बातें कर रहे थे।

          तभी मुझे ध्यान आया कि कल ही मैंने सभी शिक्षकों और कक्षा 5 के बच्चों के साथ ‘पढना माने क्या’ विषय पर कार्यशाला की थी जिसमें मैंने पढ़ने के संदर्भ पर विस्तार से बातचीत करते हुए किताबों के आवरण और अंदर के पृष्ठों पर बने चित्रों पर बच्चों के साथ खुलकर बातचीत करने को बोला था, पठन के साथ ही वाचन पर भी कुछ बातें हुई थीं। दरअसल मेरा अनुभव यह रहा है कि शिक्षक बच्चों के वाचन को ही पठन समझ लेते हैं जबकि दोनों में पर्याप्त भिन्नता है। मैं बोला कि पढ़ने का सम्बन्ध शब्द के अर्थ प्रकटीकरण से है। यदि कोई शब्द या वाक्य पढ़कर पाठक/बच्चे अर्थबोध ग्रहण नहीं कर पाते तो यह पढ़ना नहीं कहा जा सकता, हालाँकि वाचन कह सकते हैं।‌ वह मौन वाचन हो सकता है या सस्वर वाचन पर पढ़ना तो बिल्कुल भी नहीं। अगर कोई बच्चा ‘कमल’ या  ‘बरगद’ शब्द पढ़ रहा है तो शब्द पढ़ने के बाद उसके मन-मस्तिष्क में कमल पुष्प का चित्र उपस्थित होना चाहिए, अपनी सुगंध, परागकण और लाल-हरी पंखुड़ियों के साथ। उसके दिमाग में कमल उगे तालाब का भी चित्र बने तो और भी अच्छा। पर यह तभी सम्भव है जब बच्चे का पूर्व सम्बंध कमल से बन चुका हो अन्यथा उसके लिए कमल शब्द अर्थहीन होकर केवल तीन वर्णों के समुच्चय का उच्चारण मात्र रह जायेगा। या यह भी हो सकता है किसी कमल नाम के लड़का/लड़की को वह जानता हो तो कमल पढ़ते ही उनकी छवि उसके आँखों के सामने हाजिर हो जायेगी। या यह भी हो सकता है कि कमल को वह तीन हिस्सों में तोड़कर पढ़ रहा हो कि क से कमल, म से मछली और ल से लट्टू। तब तो अर्थ से दूरी बहुत बढ़ गयी। ऐसे ही अगर बरगद शब्द को लें तो बरगद शब्द पढ़ते ही बच्चे के मस्तिष्क में बरगद वृक्ष का चित्र उपस्थित होना चाहिए। किंतु वर्ण तोड़कर पढ़ने से अर्थ प्रकट नहीं होता है। कई बार बच्चे मदारी, करतब, कशरत, गगरी, चकरी, नलकूप, तहसील, पंचायत शब्दों का उच्चारण तो कर रहे होते हैं लेकिन उसके अर्थ से परिचित नहीं होते। शिक्षक को चाहिए कि बच्चों के साथ संबंधित विषय पर खूब बातचीत करें।‌ ऐसे ही वाक्यों के पठन पर भी होता है। बच्चे वाक्यों का उच्चारण तो कर लेते हैं पर वाक्य का अर्थबोध न होने से अन्यों वाक्यों से उसका सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते।‌फलत: अधिगम प्रभावित होता है। किसी पाठ का शीर्षक है ‘गाँव का मेला’। यदि बच्चे किसी गाँव के मेले में कभी गये, घूमे-फिरे हैं तो शीर्षक पढ़ते ही पूरे मेला का दृश्य उनके मन में उपस्थित हो जायेगा, वे अपने शब्दों में उसका वर्णन भी कर सकते हैं।‌ तब पाठ उनके लिए अर्थगम्य बन जायेगा। अनुमान के आधार पर वे कठिन या पहली बार आये शब्दों का अर्थ स्वमेव प्रकट कर लेंगे। पर जो नहीं गये वे पढ़कर भी मेले से रागात्मक सम्बंध न बना पायेंगे, अर्थबोध न हो पाने के संकट से गुजरेंगे। तो जरूरी बात कि शिक्षक के पहले पाठ में बने मेला के चित्र पर सभी बच्चों के अनुभव सुनते हुए चर्चा करें। दुर्भाग्य से शिक्षक के रूप में हम कभी किसी पुस्तक के कवर पेज या अन्य चित्रों पर चर्चा नहीं करते, जबकि यह चर्चा अवश्य होनी चाहिए। बच्चों के साथ इस मुद्दे पर बातचीत होनी चाहिए कि कवर पेज चित्रों में इतनी विविधता क्यों है। इन चित्रों के साथ बच्चों के साथ खेलिए, बच्चों से चित्रों पर विचार लिखवाया जाये। अगर किसी पाठ में रोटी, डाल पर लगे दो आम या ठेले पर बिक रहे जामुन के चित्र बने हैं तो एक-एक चित्र पर संवाद की बहुत जगह और संभावना बनती। रोटी शब्द उच्चारण करने पर बच्चों के दिमाग में अपनी-अपनी रोटियों के चित्र बने जाएँगे जिससे उनका पूर्व सम्बंध है। कोई गेहूँ की रोटी तो कोई ज्वार-मक्के की तो कोई गेहूँ-चना-जौ या चावल की रोटी के चित्र की कल्पना करेगा। कोई हथपई मोटी रोटी तो कोई बच्चा बेली हुई रोटी को सोचेगा। कोई तंदूर की सिंकी रोटी तो कोई तवे की पतली रोटी का चित्र मन में बनाएगा। इसके साथ ही गेहूं , खेत, खलिहान, फसल, मड़ाई, आटा चक्की आदि सब आएगा पर जिसका जितना सम्बंध बना होगा। जिसके घर में पैकेट में आटा आता है वह गेहूँ की फसल और गेहूँ उगाने की प्रक्रिया के बारे में कभी जान नहीं सकता क्योंकि गेहूँ से कभी मिला नहीं। ऐसे आम या जामुन कहने पर उनका स्वाद, रंग, कच्चा-पक्का, मौसम, बगीचा, पेड़ सब दृश्य बनेगा। तब आप पाएँगे कि पाठ पढ़ाना कितना सुगम हो जाता है। मैं अपने ख्यालों के बहाव में बहा जा रहा था कि तभी दोनों बच्चों ने नमस्ते बोला और हँस पड़े। सहसा मेरी तंद्रा भंग हुई। मैंने पूछा कि यह तुम क्या खेल रहे थे, कहाँ से सीखा। दोनों बच्चे चहकते हुए बोल पड़े, “कल जब तुम 5 कै कक्षा में पढ़ा रहे थे न, तबहीं हम दोनों जने खिड़की से झाँक रहे थे। तो दोनों जने आज वहै पाठ वाला खेल खेल रहे थे। बहुत मजा आवत रहा सर जी।” मैं उन्हें शाबाशी दे प्रधानाध्यापक कक्ष की ओर बढ़ा, मेज पर बैग रखा, हेलमेट उतार कर अलमारी में रखते दीवार घड़ी पर नज़र गई तो पता चला कि पंद्रह मिनट विलम्ब से हूँ। प्रार्थना पश्चात कक्षाएँ लग चुकी थीं तो सहसा मन में आया सभी कक्षाओं का एक चक्कर लगा लूँ कि कल हुई बातचीत को शिक्षक-शिक्षिकाओं ने कितनी गम्भीरता से लिया है और आज क्या कर रहे हैं। शनिवार होने के कारण बस्तारहित विविध गतिविधियों वाला दिन था। सबसे पहले कक्षा एक और दो में गया।‌ शिक्षिका विनीता वर्मा और शिक्षामित्र ज्योति उपाध्याय अपनी-अपनी कक्षाओं में बच्चों के साथ ‘कलरव’ के कवर पर बातें कर रही थीं। कक्षा तीन में महेंद्र कुमार गुप्ता हिंदी और गणित की पुस्तकों पर कवर में दिख रहे वस्तुओं आदि की सूची बनवा रहे थे। कक्षा चार में राकेश द्विवेदी गणित की पुस्तक पर छोटे समूहों में चर्चा करवा रहे थे। कक्षा पांच में नीलम कुशवाहा हिंदी पुस्तक ‘वाटिका’ के आवरण पृष्ठ पर निबंध लिखवा रही थीं। मुझे यह सब देख-सुन कर बहुत खुशी हुई कि सभी शिक्षक-शिक्षिकाएँ बच्चों के साथ आत्मीयता और मधुरता के साथ काम कर रहे थे।‌ मैं वापस अपने कक्ष में बैठकर विभागीय सूचनाएँ तैयार करने के काम में लग गया। रसोई से सब्जी छौंकने पर मसालों की खुशबू वातावरण में तैर गई। मेरे मानस पटल पर जीरा, लहसुन, धनिया, हल्दी, लाल सूखी मिर्च दालचीनी, जावित्री, हींग, कालीमिर्च, मेथी, तेजपत्ता उभरने लगे थे।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)

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