वह झेंपू और अंतर्मुखी बच्चा, जो अब भी मुझमें है! प्रकाश मनु
बाल साहित्य का पर्याय कहे जाने वाले प्रकाश मनु जी की बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं की डेढ़ सौ से अधिक रुचिकर पुस्तकें हैं, जिन्हें बच्चे ही नहीं, बड़े भी ढूढ-ढूढकर पढ़ते हैं। इनमें प्रमुख हैं, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियां, मेरे मन की बाल कहानियां, धमाल-पंपाल के जूते, एक स्कूल मोरों वाला, खुशी का जन्मदिन, मैं जीत गया पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियां, मेरी प्रिय बाल कहानियां, बच्चों की 51 हास्य कथाए आदि। डायमण्ड बुक्स द्वारा प्रकाशित बुक मैं और मेरी जीवन कहानी जिसके लेखक प्रकाश मनु है। प्रकाश मनु का कहना है कि अपने स्नेही मित्रों और पाठकों से संवाद में मुझे अकसर इस सवाल का सामना करना पड़ता है, कि मनु जी, आप लेखक कैसे हो गए? आपके आसपास कौन सी ऐसी चीज थी, जो आपको लेखक बना रही थी? सुनकर अचानक चुप रह जाना पड़ता है। कुछ देर तक तो कुछ सूझता ही नहीं, क्या कहूँ, क्या नहीं? आँधी-अंधड़ की तरह बहुत कुछ आँखें के आगे से गुजर जाता है। कभी एकदम भावुक हो जाता हूँ, कभी व्यग्र। और कभी स्मृतियों की तेज गंगा-जमुनी धर में बहने लगता हूँ तो देह का कुछ होश ही नहीं रहता।…
क्या इस सवाल का जवाब इतना आसान है कि थोड़े से शब्दों में बाँध सकूँ? फिर अचानक मुझे अपना बचपन याद आता है, और यह भी कि मैं कुछ झेंपू और अंतर्मुखी बच्चा था, और हर वक्त चुपचाप कुछ न कुछ सोचता रहता था। इसीलिए कोई छोटी सी बात भी मुझे बेहद खुुशी से भर देती थी या अचानक ही बेतरह उदास कर देती थी। बात-बात में आँखें में आँसू भर आते थे। किसी का दुख-दर्द देखकर फफकने लग जाता था। और खुश होता तो किसी छोटी सी बात पर ‘ओल्लै’ कहकर जोर-जोर से हँसने और तालियाँ पीटने लगता।…मुझे लगता, मेरी दुनिया अलग है, दुनिया के मानी भी अलग। और शायद छुटपन से ही यह चीज मुझमें थी, जो मुझे जाने-अनजाने औरों से कुछ अलग बना रही थी। यह लेखक होना था या कुछ और, यह तो नहीं जानता। पर कुछ तो था, जो मुझे औरों से अध्कि संवेदनशील और भावुक बना देता था।
इसी तरह बचपन में सुनी माँ और नानी की कहानियों की मुझे अच्छी तरह याद है। औरों के लिए वे शायद सिर्फ कहानियाँ ही रही होंगी, पर मेरे लिए वे रोशनी की पगडंडियाँ बन गईं, जिनके सहारे मैं एकबारगी साहित्य के रास्ते की ओर बढ़ा, तो फिर बढ़ता ही चला गया। खासकर बचपन में सुनी कहानियों में अधकू की कहानी तो मैं भूल ही नहीं सकता। कहानियाँ और बच्चे भी सुनते थे, मैं भी। पर मेरे लिए कहानी की दुनिया कुछ और थी। वह मुझे भी कुछ का कुछ बना देती। और मैं भूल जाता कि मैं कौन हूँ। कहानी के पात्र भी उँगली पकड़कर, मुझे पता नहीं कहाँ-कहाँ घुमाते रहते। और मैं दीवानों-सा एक साथ कई-कई दुनियाओं में घूमकर लौटता, तो अपनी दुनिया भी मुझे कुछ बदली-बदली सी लगती।