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बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देगी डॉ.सविता मिश्रा मागधी की कहानी बस एक चाहत!

डॉ.सविता मिश्रा मागधी

कोहरे के कारण लेट ट्रेन थी. प्लेटफार्म लगभग सूना सा हो गया था. इस बार महेशजी मकर संक्राति गाँव में ही बिताना चाह रहे थे. बचपन के संगी-साथी के साथ. किंतु, अपने होम मिनिस्टर का आदेश टाल न सके और कपकपाती ठंड में निकल लिये पत्नी का आदेश पूरा करने.
 स्वेटर के ऊपर जैकेट उसके ऊपर पतला-सा कंबल था, फिर भी ठंडी हवा कँपकपा रही थी. महेशजी के मन में एक बार आया ऑटो रिजर्व कर गाँव लौट जाएँ. टिकट के पैसे ही तो बर्बाद जाएँगे, हो जाएँ बर्बाद!… बीमार तो नहीं पड़ूँगा…! किंतु, एक रुपया भी बर्बाद करने की आदत न थी उनकी. सो मन को समझा लिया. नाहक टिकट क्यों बेकार किया जाए…? 
सर्दी होगी…, होने दो…,! ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि दो-चार दिन बीमार पड़ूँगा… कोई बात नहीं, तुलसी का काढ़ा पी लूँगा, दो-चार टैबलेट निगलना पड़ेगा बस…! 
   महँगाई का जमाना होते हुए भी घर की शान-ओ-शौकत बरकरार रखने के लिए पैसे चाहिए. बड़ी बेटी की शादी ने कमर तोड़ दिया था. वर पक्ष से कोई डिमांड न थी, लेकिन बंद कमरे में बेटी और पत्नी का दमदार हुक्म था, 
-‘गृहस्थी का सारा सामान देना होगा. सूई से लेकर गाड़ी तक.’ कितने दार्शनिक अंदाज में बोली थीं पत्नी जी.
 -’जो लड़की दहेज लेकर आती है, ससुराल वाले उसके आगे-पीछे दुम हिलाते हैं. वरना, जिंदगी भर बेटी हीन भावना की शिकार होती रहेगी. दहेजी बहू घरेलू काम-काज से परे रहती है. मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी सुबह उठते ही रसोई का मुँह देखे.’ 
-’रिश्तेदार क्या बोलेंगे…? माँ-बाबूजी ने पैसे का हिसाब माँगा तो…? फिर लड़के वाले क्या सोचेंगे…?’
-’रिश्तेदार का तो काम ही है बोलना, और माँ-बाबूजी वे होते कौन हैं हमसे हिसाब माँगने वाले…? क्या दस-बीस लाख खर्च करेंगे अपनी पोती की शादी में? आदमी को अपनी हैसियत के अनुसार मुँह खोलना चाहिए. रही बात लड़के वालों की, तो वे लोग दहेज देख खुशी से पागल हो जाएँगे.’ 
-‘समधीजी नाराज हो गए तो…? उन्होंने साफ मना किया है. वे एक कौड़ी भी न लेंगे.’
-’अजि, आई हुई लक्ष्मी से कोई मुँह नहीं फेरता. नगद किसी को एक धेला भी नहीं देंगे, सामान से घर भरना है बस. आपकी ही बेटी को आराम रहेगा. एक बात और जान लीजिए, आपके समधीजी जो अभी अकड़े-अकड़े चल रहे हैं, दहेज देखने के बाद मिमियाने लगेंगे आपकी बेटी के सामने.’ 
बड़े दर्प से पत्नी ने उन्हें निहारा, मानो कह रही हो अपने बाप को भूल गए। उनकी अकड़ मेरे आते ही गायब हो गई थी.  
    महेशजी को पुराने दिन याद हो आए. बाबूजी ने ससुरजी से साफ कहा था कि दहेज में एक तिनका भी नहीं चाहिए.
 ससुरजी ने उनके दहेज विरोधी होने का स्वागत भी किया था. फिर भी पत्नी भारी दहेज के साथ आई थी. 
  ससुराल पक्ष से रिश्तेदारों में यह अफवाह फैलाई गई कि लड़के वाले बिन दहेज मानते कहाँ हैं. हाँ, नगद एक पैसा भी न दिया था कि कुछ काम आ सके. 
 बाबूजी के स्वाभिमान का हनन हुआ था. समाज में उपेक्षित हुए अलग से. कितने ही लोग उनके मुँह पर ही उनका मजाक उड़ा देते थे. 
  ‘नरेश बाबू, हमनीं के बड़ा मना करा हला, दहेज नय लेबे के चाही, अपन बेरिया भूल गेला. ऐतना सामान लेलहो, नगदिया केतना चापलहो जी…? पर उपदेश कुशल बहुतेरे.’ 
बेचारे बाबूजी, कुछ कह न पाते. जिंदगी भर की उनकी ईमानदारी मेरी शादी में बलि चढ़ चुकी थी. 
मेरे मैके में ऐसा होता है, वैसा होता है जैसे शब्दों ने माँ को तोड़कर रख दिया था. 
मेरे ऊपर भी जाने कौन सा ऐसा जादू चला दिया था श्रीमतीजी ने कि उनकी बात काटने की हिम्मत न होती मेरी. अपने ही माँ-बाप विरोधी नजर आने लगे थे मुझे.  
   बाबूजीं के संस्कार और पत्नी की आज्ञा के बीच खुद को दो पाटों में पिसे हुए स्वयं को असफल समझते. बच्चों की फीस लिस्ट, सुरसा की तरह अपना मुँह खोले ही जा रही थी. पत्नी की जिद्द के कारण ही पब्लिक स्कूल में बच्चों का एडमिशन कराना पड़ा था.
   बाबूजी ने लाख समझाया था, अपनी हैसियत से चलो, बच्चों में संस्कार का बीज विकसित करो. उसे वट-वृक्ष बनाओ, खजूर का पेड़ नहीं. पर बाबूजी की बात न मान सके थे महेशजी. क्योंकि, उनकी भी मंशा थी. बच्चे शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ें. गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलते बच्चे उन्हें बहुत लुभाते.
 वे खुद हिंदी मीडियम, सरकारी स्कूल में पढ़े थे. फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने के लिए उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी, उस दर्द को वे कभी भूल न पाए थे.
     पिता ने ईमानदारी की ऐसी घुट्टी पिलाई थी कि बैक डोर की कमाई वाले पोस्ट पर होते हुए भी हाथ सूखा ही रहता.   
    एक-दो बार टेबल के नीचे से आती लक्ष्मी को शीरोधार्य करना चाहा पर, हाथ काँप गए और लक्ष्मी जी बिना चेहरा दिखाए लौट गई थीं.
 जब भी पैसे की कमी होती श्रीमतीजी की माँ लक्ष्मी बन टपक पड़तीं थी. दामादजी पर ढ़ेरों नेह दिखाती और माँ-बाबूजी को जलील करने से बाज न आतीं। 
 -‘हमने बड़े लाड़ से आपके यहाँ बेटी ब्याही थी। सुना था बहुत ऊँची फैमली है आप लोग की. हमें क्या मालूम था, “ऊँची दुकान फीका पकवान.” मेरी बेटी के भाग्य फूटे थे, जो इसके पापा की नजर आपके यहाँ पड़ी। बेचारी सुबह से शाम तक खटती रहती है.’  
 जबकि परिस्थितियाँ ठीक इसके विपरीत थी. सुबह उठकर माँ ही रसोई संभालती थी. देर से उठने की आदत थी श्रीमती जी की. स्नान के बाद शायद ही अपने कपड़े धोई होगी. कई बार तो बाबूजी ने उसके कपड़े धो डाले थे. माँ मुझ पर नाराज हुई थी. मैंने प्यार से समझाया था श्रीमती जी को.
 -‘तुम नहाकर अपने कपड़े क्यों छोड़ देती हो? अच्छा नहीं लगता माँ-बाबूजी तुम्हारे कपड़े धोएं.’ 
‘मैंने बाबूजी से नहीं कहा कपड़े धोने. उनसे पूछो क्यों धोए? हमलोगों में लड़ाई लगाना चाहते हैं.’
‘धीरे बोलो। बाबूजी सुन लेंगे.’ 
‘सुनते हैं तो सुने, हमें परवाह नहीं. कपड़े उन्होंने धोए, बातें मैं सुनूँ. वाह जी वाह “उलटा चोर कोतवाल को डाँटे. तुम जो इतनी वकालत कर रहे हो, जरा दिमाग से सोचो. अगर मैं उनकी बेटी होती तो कपड़े न धुलते…?’  
   ऐसे समय में मैं निरुत्तर हो जाता. उसकी बातों में दम दिखता मुझे. माँ की बातें आई गई हो जातीं. माँ का रूठना मुझे तनिक न भाता. उनके रूठने पर मनाना तो दूर और ऐंठ कर चल देता था मैं.
 श्रीमती जी ने ही सिखाया था. ‘माँ-बाप की जितनी अवहेलना करोगे  किचकिच से उतना ही बचोगे. उन लोगों की आदत है तुम्हारे कान भर, हमलोगों में लड़ाई लगाना.’  
   ऐसे समय में माँ की भी बात याद आती. उसका कहना था, ‘बेटा बीवी का सम्मान करना, पर जोरू का गुलाम मत बनना. वरना एक दिन पछताना पड़ेगा. ओह! कितना नादान था मैं. आज पछतावे के साथ सिसक रहा हूँ.
  अंदर का लावा कहीं बिखेर भी नहीं सकता. दोष पत्नी का नहीं मेरा था. जो जीवनदाता को ही वैरी समझने की भूल कर बैठा. छाती का दर्द बढ़ने लगा. पास में कोई नहीं था कि अंदर से गरमाहट लाने के लिए, एक कप चाय मँगवाकर पी लेता।   
   ईमानदारी से काम करने वालों के पास पैसे कहाँ टिकते हैं. बच्चों को पढ़ाने में सारे सपने ताख पर रखना पड़ा था. उम्र थी जो बिन पंख अँधेरे में उड़ी जा रही थी. 
  अस्वस्थ बाबूजी स्वस्थता का आवरण ओढ़े रहते। वे नहीं चाहते थे कि उनका एकलौता बेटा अपनी पोस्टिंग पर अकेला जाए और वे अलग षहर में उसके परिवार की देख-भाल करें. महेश जी अकेले ही गए थे नई पोस्टिंग पर. मोबाइल पर बातें होती रहती थीं सभी से. 
 लगा सब कुछ सही चल रहा है. इस बात की ज्यादा खुशी थी कि पत्नी-बच्चों के साथ माँ-बाबूजी हैं. उन्हें कोई तकलीफ न होगी. 
  तीन महीने बाद जब घर आया तो माँ-बाबूजी को न देख सन्न रह गया था. अपने खून-पसीने से बनाए मकान को छोड़ गाँव के टूटे-फूटे कच्चे घर में रहने चले गए थे वे लोग. 
पत्नी ने बताया था, ‘तुम्हारे न रहने से उनलोगों की टोका-टोकी बहुत बढ़ गई थी. एक रात रॉकी दोस्तों के चढ़ाने पर थोड़ी पीकर आया। उस समय आपके बाबूजी कुछ न बोले, दूसरे दिन बच्चों से उलझ गए. लगे ज्ञान झाड़ने. बात बढ़ गई. बिना कुछ सोचे-समझे रॉकी को एक तमाचा जड़ दिया.
 बच्चे तो बच्चे हैं, उसने भी उन्हें धक्का दे दिया. गिर गए, हाथ टूट गया. गलती उनकी थी. जवान बच्चों से भला कोई मुँह लगाता है. हमने और रॉकी ने बहुत कहा कि चलिए किसी डॉक्टर से दिखा दें. न माने.
   जाने किसको दिखाया और बिना बताए गाँव चले गए. आप बुरा न माने. ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए. शहर के प्रदूषण से बचे रहेंगे.’ 
  महेश बाबू के मन में बहुत पीर उठी, किंतु प्रत्यक्ष कुछ न कह पाए थे. मेहनत से बनाया घर बहू को दान दे, दोनों गाँव के निवासी बन गए और कुछ ही वर्षों में पिताजी स्वर्गवासी हो गए. माँ ने गाँव में अकेले रहना पसंद किया. 
  अभिशापित प्राणी ही गरीब घर में जन्म लेता है. अपने दादू से सुना था महेशजी ने कि बाबूजी बचपन से प्रखर थे, आसमान से तारे तोड़ने का हौसला रहते हुए भी गरीबी ने कभी ऊँची छलाँग न लगाने दिया. उसने भी देखा था, 
  पोस्टमास्टर की नौकरी करते हुए दोनों बुआ की शादी में बाबूजी ने दादू की कितनी मदद की थी. माँ भी बाबूजी का साथ देती आई थी. बाबूजी से ज्यादा वे दादू के निकट रहते. यह माँ का संस्कार था कि दादाजी का सानिध्य उन्हें सबसे ज्यादा प्राप्त हुआ. 
 कानफाड़ू एनाउन्समेंट हुआ, गाड़ी आ रही है। उनसे उठा न गया. गाड़ी पाँच मिनट की जगह बीस मिनट खड़ी रही, मानो महेश बाबू से कह रही हो, ‘किसी तरह हिम्मत कर गाड़ी में आ जाओ, शायद तुम्हारी जान बच जाए.’ 
  जान तो उन्होंने अपनी पत्नी की बचाई थी. सारे डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. ब्रेस्ट कैंसर ने थर्ड स्टेज पार कर लिया था. दवा और दुआ का असर हुआ, पत्नी बच गई थी. हाँ एक ओर का ब्रेस्ट काट कर निकाल दिया गया था. कभी पैसे की परवाह न किया था उन्होंने.
   बस एक चाहत, पत्नी हमेशा साथ रहे. पलभर भी आँखों से ओझल न हो. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है साथी का साथ हमअंग बन जाता है. जब भी वे गाँव जाते पत्नी को साथ ले जाना चाहते. पर पत्नी थी कि उससे षहर छूटता न था. मना भी न करती थी. गाँव से अनाज के पैसे जो मिलते थे। 
  माँ को खर्च का पैसा दे सारे पैसे उठा लाते थे. मन में एक टीस जरूर उठती थी कि, इतने कम पैसे में वह कैसे अपना खर्च चलाएगी? फिर, मन को समझा लेता था. उसका खर्च ही क्या है? पिताजी का पेंषन भी तो पाती है.
  सुबह दस बजे झाड़ू वाले के झकझोरने पर भी महेश बाबू न उठे तो रेल कर्मचारियों ने उनका कंबल हटाया. हाथ में मोबाइल था, जिससे माई स्वीट हॉर्ट नंबर पर दसों बार कॉल किया गया था जो अनरिसीव शो कर रहा था। आधार कार्ड से महेश बाबू का नाम-गाम पता चला।

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