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  एड़ी की बिवाय (कहानी किसान की)

दाल-भात खाते हो ले-ले के चाव।
अरे ओ बाबू दिखे ना तुमको मेरी एड़ी की बिवाय।

कोस भर कीचड़ में चल के जाता खेत
तब जाके भरता देश-दुनिया का पेट।
पर भरते नहीं मेरे फवड़ा से लगे घाव।
अरे ओ बाबू दिखे ना तुमको मेरी एड़ी की बिवाय।

चाहे सूखा हो या अथाह जल।
रुकता नहीं मैं और मेरा हल।
पर मिलते नहीं मेरी मेहनत के भी भाव।
अरे ओ बाबू दिखे ना तुमको मेरी एड़ी की बिवाय।

तुम रहते हो घर में, मैं रहता खलिहान में।
तपती धूप, ओस, बारिश-तूफ़ान में।
अगर देखना हो हालात मेरे तो आना मेरे गांव।
अरे ओ बाबू दिखे ना तुमको मेरी एड़ी की बिवाय।


रौनक द्विवेदी
(करथ, आरा)

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