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कामचोरों का भय

मिश्रीलाल पंवार
जोधपुर इकाई, महा सचिव,

जर्नलिस्ट एसोसिएशन आफ राजस्थान
मानव अधिकार सेवा संघ राष्ट्रीय सेन्टर कमेटी सदस्य

 लगभग पच्चीस साल पुरानी बात है। एक परिचित मेरे  आफिस आए। बोले, “मेरे पानी का बिल बहुत ज्यादा आया है। इसको सही करवाना है। आप थोड़ा मेरे साथ चलिए ना।”

संयोग से मैं अपने कार्य में फ्री हुआ ही था, इसलिए उनके साथ चल दिया। जलदाय विभाग पहुंचे तो वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। मैंने अपने परिचित से पूछा,”आज रविवार है क्या?”

उन्होंने कहा,” नहीं।”

 मैंने मन ही मन सोच,फिर इतना सन्नाटा क्यों पसरा हुआ है?

  तभी बरामदे में बैठा एक आदमी नजर आया। मैंने उससे पूछा, “भाई। आज कोई नजर नहीं आ रहा। अवकाश है क्या?”

  वह बोला, “आज भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच है ना। साहब हाजरी लगा कर मैच देखने घर चले गए। धीरे धीरे पूरा स्टाफ भी मैच के चक्कर में निकल गया।”

  “तुम नहीं गए?”

  “मैं चपरासी हूं। आफिस की निगरानी के लिए बैठा हूं।”

  मैं उस दिन भर यही जानने में लगा रहा कि अन्य सरकारी विभागों की क्या स्थिति है। मैं देख कर हैरान हो गया, सभी सरकारी विभागों में वही हाल  था। वापस आकर मैंने अपने सीए मित्र को फोन लगाया और कहा, इतने लोगों के काम नहीं करने से सरकार को एक दिन में कितना नुक़सान हुआ। जरा हिसाब लगा कर बताइए।”

  वो बोले, “आज तो पूरे देश में यही हाल था। आज एक ही दिन में कई करोड़ का नुक़सान हुआ है।” मैंने जोरदार ख़बर बनाई ओर आपरेटर को चलाने के लिए दे दी। संयोग से उस दिन संपादक जी आ गए। उन्होंने उस खबर को पढ कर मुझे अपने चैम्बर में बुलाया और कहा, “आपने यह क्या खबर बनाई है। आप को पता नहीं है कि क्रिकेट को लोग भगवान से भी ज्यादा उपर मानते हैं। कल को इस खबर को पढ कर सारे अधिकारी और कर्मचारी हमारे दुश्मन हो जाएंगे। कैसे संभालेंगे हम इन सब को? 

  मैंने हिम्मत जुटा कर कहा, ” सर!देश की आने वाली पीढ़ी के लिए सरकारी नौकरी के दरवाजे तो हमेशा के लिए बन्द हो जाएंगे। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने पाठकों तथा सरकार को हकीकत से अवगत कराएं। वैसे भी यह क्रिकेट गुलामी का प्रतीक है। हमारे अपने देश में एक से बढ़कर दर्जनों खेल है। क्रिकेट की जगह हम उन्हें प्रोत्साहन देंगे तो ज्यादा बेहतर होगा।”

  इस पर उन्होंने कहा, “ठीक है। मैं देखता हूं। आप काफी थक गए हैं, घर जाकर आराम करें।”

  मैं घर चला गया। रात भर नींद नहीं आई। सुबह उठते ही अखबार देखा। वह खबर नहीं छपी थी। शायद सकारात्मक सोच पर ‘कामचोरों’ का खौफ भारी पड़ गया था।

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