उस दिन मै सुबह- सुबह घर के बाहर आ कर बैठा ही था कि एक वयोवृद्ध सज्जन मेरे पास आए और बोले, “यहां कोई पत्रकार मिश्रीलाल पंवार रहते हैं। उनका मकान जानते हों तो प्लीज़ बताने की मेहरबानी करें।”
मैंने उनकी तरफ देखा। कोई 80 के आसपास की उम्र लग रही थी। किसी संभ्रांत परिवार से लग रहे थे। मैंने उनसे पूछा, “मिश्रीलाल पंवार से कोई खास काम था क्या?”
वे बोले, “वे कहानीकार भी है। उनसे उनका कहानी संग्रह ‘गुनहगार’ लेना है। मैंने कल अपने मित्र के यहां उनका कहानी संग्रह देखा था। संयोग से उसमें से एक कहानी मैंने पढ ली। वह मुझे बहुत पसंद आई। मेरी इच्छा हुई कि इस संग्रह की सभी कहानियों पढ़नी चाहिए। मैंने अपने मित्र से वह संग्रह मांगा तो उसने देने से मना कर दिया। इस पर मैंने किताब से पता नोट कर लिया था। उनसे मुझे भी एक कीताब लेनी है। मालुम हो तो उनका मकान बता दें।”
मैं उनकी बात से गदगद हो उठा। मैंने वहीं बैठे बैठे कहा, “मुझे ही मिश्रीलाल पंवार कहते हैं। गुनहगार मेरा ही कहानी संग्रह है। मगर मेरे पास अब एक भी एस्ट्रा अंक नहीं है। मैंने अपने लिए केवल दो प्रतियां बचा कर रखी है। वे किसी हालत में नहीं दे सकता।”
इस पर उन्होंने कहा,” प्लीज़। उसमें से एक अंक मुझे दे दिजिए। पढ कर हाथोंहाथ वापस लौटा दूंगा। आप को विश्वास नहीं हों तो जमानत के तौर पर पांच सौ रुपए आपके पास जमा करवा देता हूं ।”
मैं हैरान रह गया। ऐसा पाठक तो मैंने पहले कभी नहीं देखा था।
मैं घर के भीतर गया और एक कहानी संग्रह लाकर उन्हें सौंप दिया। मैंने उनसे कहा, “आप इसे पढ़ कर जल्दी लौटा दें।”
उन्होंने अपनी जेब से पांच सौ का नोट निकाला और मेरी तरफ बढ़ा दिया।
मैंने कहा, “सर शर्मिन्दा ना करें। बस पढ कर लौट दें। मैं तो इस बात से ही गद्द गद्द हूं कि आप में मेरी कहानियों को पढ़ने का इतना भाव है।”
वे पुस्तक शीघ्र लौटाने का कह कर निकल पड़े।
उस बात को करीब पंद्रह वर्ष बीत गए। मैं आज भी जब कभी कभी घर के बाहर चबूतरे पर बैठता हूं तो सड़क पर दूर दूर तक निगाहें गढ़ाए उनका इंतजार करता हूं। सोचता हूं कि वे मेरा कहानी संग्रह लौटाने आज जरूर आएंगे।