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अद्भुत शौर्यता और वीरता का प्रतीक क्षत्रिय शिरोमणि महाराणा प्रताप

“महाराणा प्रताप” यह नाम एक ऐसा नाम हैं। जो लेते ही शरीर में झुरझुरी भी भर देता है, साथ ही एक नया जोश, उत्साह और वीरता, साहस एवं संघर्ष का तीव्र एहसास जगा देता हैं। सहसा ही अपनी क्षमताओं पर दोगुना विश्वास होने लग जाता है। ऐसा चमत्कारी हैं महाराणा प्रताप का नाम । स्वाभाविक हैं जिसने भी इतिहास या महाराणा प्रताप की जीवनी पढी हैं वह उनके अदम्य साहस और वीरता के साथ उनके विशाल व्यक्तित्व से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता।

शायद ही भारतीय इतिहास में और दूसरा उदाहरण हमें मिले, जो महाराणा प्रताप के शौर्य की बराबरी कर सके। हालाँकि ऐसी तुलना कर मैं दुस्साहस पूर्ण कार्य कर रहा हूँ लेकिन फिर भी विपरीत परिस्थितियों में वह भी हाथी के सामने चीटी जैसी हैसियत के साथ हाथी को भी दाँत खट्टे कर देने पर मज़बूर कर देने वाला ऐसा महान योद्धा मुझे तो कहीं नहीं दिखाई देता है।महाराणा प्रताप भारत की राज़पूताना भूमि अर्थात आज के राजस्थान की धरती पर पले बढ़े थे। वहाँ के मेवाड़ राज्य का यह सौभाग्य है कि उसने ऐसे प्रतापी राजा की महानता को अपनी आँखों से देखा। महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह के समय चित्तौड़गढ़ पराधीन हो चुकी थी, उस समय उदयसिंह ने ही बड़ी वीरता के साथ उसे बनवीर के कब्जे से निकालकर पुनः अपने  राज्य में शामिल कर राजपूतीय शान में वृद्धि की थी। इसके बाद ही उन्होंने अपना राजतिलक कराया था। इस समय महाराणा प्रताप की आयु मात्र तीन वर्ष की थी।

यह दुर्भाग्य ही था कि उदयसिंह अपने शासन व्यवस्था को सुदृढ़ भी नहीं कर पाये थे कि शेरशाह नामक मुस्लिम शासन ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह के किले को उसने बड़ी मज़बूती से घेर लिया। उसकी भारी भरकम सेना के सामने चित्तौड़ किले के मुट्ठी भर सैनिकों के साथ आमने सामने की लड़ाई का परिणाम भी निश्चित तौर पर हार ही दिख रहा था। तब इस परिस्थिति में उदय सिंह ने अपने यश कीर्ति के विरुद्ध चतुराई पूर्ण निर्णय लेते हुये किले की चाबी बाहर शेरशाह को भिजवा दी थीं ऐसा करके उन्होंने भीषण रक्तपात एवं किले की सुरक्षा कर ली। और इसके बाद  पुनः चतुराई से अपने किले की रक्षा कर ली।

     महाराणा प्रताप को जब मेवाड़ की गद्दी मिली उस समय चारो ओर अशाँति, अभाव एवं युद्ध की छाया मंडरा रही थीं। उन्हें विरासत में कोई सुदृढ़ सुरक्षा नहीं प्राप्त हो सकी। यह तो महाराणा प्रताप का ही व्यक्तित्व और वीरता थी कि उन्होंने मेवाड़ को बचाये रखा व राज्य को अथक प्रयासों से फलने फूलने के लिये समुचित अवसरों का उपयोग किया।  महाराणा प्रताप के गद्दीनशीन होने के समय भी खासा विवाद हुआ था। उस समय भाइयों के  बीच दो गुट बन गये, जो उनके छोटे भाई पहले से ही गद्दी पर बैठ चुके थे। उन्हें हटाने के लिये मेवाड़ केसारे राजपूतों ने अभियान छेड दिया  एवं एकमतेन होकर महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी सौंपी गई। महाराणा प्रताप के छोटे भाई जगमाल इससे बहुत कुपित हुये और वे मेवाड़ छोड़ कर जंगलों की ओर चले गये।

    उधर दिल्ली के तख्तोताज़ पर मुगल बादशाह अकबर का परचम लहरा रहा था। अकबर का साम्राज्य पूरे भारत वर्ष में यदा कदा राज्यों को को छोड़कर चारो ओर फैला हुआ था. अब अकबर चाहता था कि बाकी बचे हुए राज्यों को या तो समझौते, मित्रता के द्वारा अधीन किया जाये या फिर युद्ध में परास्त करके। इसके लिये वह पहले मित्रता की पेशकश करता था। पश्चात कोई हल नहीं निकलने पर वह युद्ध की चुनौती देता था। महाराणा प्रताप के मेवाड़ का शासक बनने की खबर से अकबर भी अंजान नहीं था, वह प्रताप की वीरता और महत्वाकांक्षा से भयभीत होकर अनेक बार उनसे मित्रता का प्रयास किया। परंतु हर बार महाराणा प्रताप ने उनके मित्रता की पेशकश को ठुकरा दिया।

महाराणा प्रताप को यह तो भलीभाँति ज्ञात था कि अकबर से मित्रता करने का अर्थ था उसकी अप्रत्यक्ष रुप से आधीनता स्वीकार करना । वहीं मित्रता से इंकार करने का अर्थ था उससे युद्ध के लिये विवश होना। इसलिये महाराणा प्रताप ने अकबर की मित्रता अस्वीकार करने के बाद यद्ध की तैयारियाँ भी शुरू कर दीं। महाराणा प्रताप की विशेषता देखिए- वे दुश्मन सैनिकों को तलवार के अपने एक ही वार में घोड़े  समेत काट डालते थे ।उनके तलवार का वजन लगभग 80 किलोग्राम था वही भाले का वजन भी 80 किलोग्राम था। उनका कवच भाला ढाल और हाथ मे तलवार का वजन मिलाए तो कुल वजन 207 किलो होता था। आज भी महाराणा प्रताप की तलवार कवच भाला हाल आदि उदयपुर राजघराने के संग्रहालय में सुरक्षित है।

अकबर ने कहा था कि अगर राणा प्रताप मेरे सामने झुकते हैं तो आधा हिंदुस्तान उनके नाम कर देंगे लेकिन अधीनता स्वीकार करनी होगी। जिस पर महाराणा प्रताप ने साफ इनकार कर दिया। हल्दीघाटी की लड़ाई में मेवाड़ से बीस हजार सैनिक थे। वही अकबर की और से पच्चासी हजार सैनिक युद्ध में सम्मिलित हुए। हल्दीघाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी जमीनों में तलवार पाई जाती है। आखरी बार तलवारों का जखीरा 1985 में हल्दीघाटी में मिला था। महाराणा प्रताप को शास्त्रार्थ की शिक्षा श्री जयमल मेडतियाजी ने दी थी।

मेवाड़ के आदिवासी और भील समाज के वीरों ने हल्दीघाटी के युद्ध में अपने तीरों से अकबर के दुश्मन सैनिकों को धूल चटा दिया था। महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक महाराणा को 26 फीट का दरिया पार कराने के बाद ही वीरगति को प्राप्त हुआ ।उसकी एक टांग टूटने के बाद भी वह दरिया पार कर गया ।जहां वह घायल हुआ वह आज घोड़ी इमली नाम का पेड़ है ।जहां पर चेतक की मृत्यु हुई वहीं चेतक का मंदिर स्थापित किया गया है।

महाराणा का घोड़ा चेतक ताकतवर था उसके मुंह के आगे दुश्मन के हाथियों को भ्रमित करने के लिए हाथी की सूंढ लगाई जाती थी। महाराणा प्रताप के पास चेतक के अलावा उसका भाई हेतक नामक घोड़ा भी था।  त्यागने से पूर्व महाराणा प्रताप ने अपना खोया हुआ पच्चासी प्रतिशत मेवाड़ फिर से जीत लिया था ।सोने चांदी और महलों को छोड़कर वे बीस साल तक मेवाड़ के जंगलों में घूमते रहे। महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो और लंबाई 7 फीट 5 इंच थी वे दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला रखते थे हाथों में।

      आखिरकार वह दिन आ ही पहुँचा जब सन् 1578 इश्वी को अकबर के सेनापति मानसिंह और महाराणा प्रताप हल्दी घाटी के रणक्षेत्र में आमने सामने हुये। प्रताप अपनी प्रजा के लिये कभी भी युद्ध नहीं चाहते थे, हमेशा उन्होंने युद्ध के ऊपर शाँति को ज्यादा तरजीह दिया लेकिन तात्कालिक परिस्थितियाँ और अकबर की दुर्दम्य महत्वाकांक्षा ने उन्हें एक अनिवार्य युद्ध में झोक दिया। मान सिंह ( अकबर का सेनापति) की सेना में अस्सी हजार सैनिक जबकि राणा प्रताप के पास मात्र पाँच छह हजार सैनिक थे।

महाराणा प्रताप ने पहाड़ी निवासियों अर्थात भीलों की वीरता एवं उनके देश प्रेम की भावना को पहचानते हुये उन्हें अपनी सेना में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। वहीं महाराणा प्रताप ने अन्य स्वतंत्र राजपूती राजाओं जैसे जोधपुर के राठौर राजा चंद्र सेन, मालवा के राजा वज़ बहादुर एवं ग्वालियर के राजा रामशाह तंवर को अपनी मंडली में शामिल कर एक अच्छी कूटनीतिक बुद्धि का परिचय दिया। इस राजपूती एकता को देखकर अकबर और भी महाराणा प्रताप से बैर भाव रखने लग गया।

        गर्मी का मई महिना अपनी शुरुआत में ही मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच खूनी युद्ध की भेरी बजा गया। भारी गर्मी और उमस के बीच तलवारें चलने लगीं। युद्ध शुरु हो गया। मानसिंह अपनी सेना की विशालता देखकर इतरा रहा था, गद्गगद् हो रहा था, जबकि महाराणा प्रताप को अपने सैनिकों की वीरता पर किंचित मात्र भी संदेह नहीं था तभी तो प्रताप ने अपने छह हज़ार की सेना के सामने अस्सी हज़ार की सेना भी तुच्छ नज़र आ रही थी। उनके उत्साह और जोश में जरा भी कमी नहीं थी। प्रताप और उनके सैनिक मुंगल सैनिकों को गाजर – मूली की तरह काटते आगे बढ़ते जा रहे थे। एक एक राजपूत सैनिक दस दस मुगल सैनिकों के साथ युद्धरत्  था।

राजपूतों का केसारिया झण्डा और जयघोष गुंजीत हो रहा था। राणा प्रताप की तलवार बिजली की भाँति लपक रही थी। वहीं उनके स्वामी भक्त घोड़े चेतक की चपलता भी कुछ कम नही थीं। चेतक तो अपने स्वामी के रग रग से वाकिफ था। अतः कब क्या करना हैं किन परिस्थितियों में आगे बढ़ना या पीछे जाना उसे अच्छी तरह से ज्ञात था। वह लगता था मूक प्राणी होकर भी अपने स्वामी से बातें करना था। आँखों ही आँखा में स्वामी – सेवक के बीच बात हो रही थी और अपनी अपनी रण चालों को अनवरत चलाया जा रहा था। युद्ध में भारी रक्तपात हुआ। और राजपूती दुर्दांत वीर सैनिकों ने कम संख्या में में होते हुए भी भारी संख्या में मुगल सैनिकों को धूल चटा दिया। एक-एक राजपूती सैनिकों ने दस-दस मुगल सैनिकों को मारने के बाद   वीरता पूर्वक लड़ते हुए गंभीर और घायल होने के बाद ही अपने प्राण त्यागे।

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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