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बिगड़ते पर्यावरण के लिए केवल और केवल मानव जिम्मेदार 

      विश्व की सभी महा शक्तियां और ताकतवर देश संयुक्त राष्ट्र संघ एवं सुरक्षा परिषद द्वारा बनाएं नियम तो हैं ही, लेकिन प्रकृति के नियमों का भी उल्लंघन और अवहेलना कर रहे हैं ये शक्ति शाली देशों के नित परमाणु परीक्षणों, विस्फोटों के कारण अतिवृष्टि, अनावृष्टि और दूषित वायुमंडल हमें चेतावनी दे रहे है। और यह लोग उल्टे दुनिया को तबाह करने वाले परमाणु बमों का विशाल भण्डार रखकर दुनिया को धमका रहे हैं ,और मनमानी कर रहे हैं। इसी का ताजा तरीन उदाहरण है कि आज रूस

– यूक्रेन युद्ध की तबाही पिछले पंद्रह महीने से अधिक हो जाने के बाद भी रुक नहीं रही है । इसके दुष्प्रभाव से सारी दुनिया आक्रांत हो चुकी है।

       पर्यावरण प्रदूषण को हम निम्न प्रकार से देखेंगें:-

      ‌पर्यावरण जब जब बिगड़ेगा,  तब तब उसका सबसे ज्यादा खामियाजा मानव को भुगतना होगा। यह तथ्य उतना ही सत्य है जितना कि यह कि हम धरती को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण कोई और नहीं फैला रहा हैं स्वंय मानव ही तो इसका पहला और अंतिम कारक है। इसलिये मानव के हित के लिये, वह स्वयं जितनी जल्दी पर्यावरण के सुधार के लिए होश में आएं ये उतना ही अच्छा सिद्ध होगा। पर्यावरण प्रदूषण का गंभीरता पूर्वक अध्ययन करने से पूर्व यह समीचीन होगा कि यह अच्छी तरह से जान लिया जाये कि पर्यावरण किसे कहते हैं?     

     हमारे चारो ओर की जलवायु, वनस्पति, जल और जीवधारी -आपसी सामंजस्य के साथ मिलकर ही पर्यावरण का निर्माण करते हैं। इन सबके आपसी संतुलन से जैविक विविधताओं से स्वच्छ पर्यावरण का निर्माण होता है। अपवाद स्वरुप यह होता है कि प्राकृतिक उथल पुथल से कभी कभी इसका संतुलन बिगड़ जाता है, तब पर्यावरण को संतुलित करने का दायित्व जीवधारियों में सबसे ज्यादा बुद्धियुक्त प्राणी मानव का ही होता है। वैसे भी नैतिकता का तकाजा भी यहीं कहता है।

    जीवधारियों के लिये आवश्यक स्वच्छ पर्यावरण इस समय काफी हद तक प्रदूषित हो चुका है। और तो और जीवन की प्रथम संजीवनी प्राण वायु भी हर सांस के साथ हमें मृत्यु के करीब ले जाने को तत्पर है। मानव जीवन सरल बनने की अपेक्षा कठिन से कठिनतर बनता जा रहा है। भारत में तीव्रगति से बढ़ती हुई आबादी व नित नए औद्योगिकीकरण ने बढ़ते परिवेश में हमारी जटिलताओं और आवश्यकताओं को और भी बढ़ा दिया है। बढती हुई जब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बड़े-बड़े समुद्रि उद्योग जो वायु ,जल ,धूल की जहरीले धुये घातक केमिकल्स, अवशिष्ट कूड़ा करकट आदि से रोजाना प्रदूषित करते जा रहे है। पावन नदियो का स्वच्छ व निर्मल जल आज अमृत तुल्य न रहकर विषयुक्त हो चुका है। अब तो यह मानव ही नहीं अन्य जीवधारियों के लिये भी घातक सिद्ध हो रहा है। 

       बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण के लिये केवल उद्योग ही अकेले दोषी नही है बल्कि समाज का प्रत्येक वर्ग इसके लिये उत्तरदायी है। सरकार की ओर से कितने भी स्वच्छता एंव पर्यावरण सुधारक कार्यक्रम चलाये जाये, जब तक हम भी तन मन धन से इन कार्यक्रमों में सहयोग नहीं देगें। कोई भी कुछ नहीं कर सकता। आज मनुष्य जिस तेजी से प्रगति की ओर और अत्याधुनिकता की ओर  बढ़ रहा है, ठीक उसी रफ्तार से पर्यावरण को भी गंदा करते जा रहा है। प्रकृति के नियमों की मनुष्य भी हमेशा से, श्रद्धा व आदर देता आया है। वनों एवं वृक्षों को हमारे समाज द्वारा पूजा जाता है। पौधे वायुमंडल की हानिकारक गैसों को अवशोषित करते हैं, तो वही जीवन के लिए आवश्यक अमृततुल्य ऑक्सीजन देते हैं और वे वातावरण में ताजगी बनाये रखते है। वृक्षों की अवैध कटाई रोककर हरे वृक्षों की रक्षा एवं वृक्षारोपण अत्यावश्यक है।

      वैसे प्रदूषण की रोकथाम् के लिये सबसे पहली जरुरत तो जन-जागरण की है। वहीं नये उद्योगों को शुरु होनें के  पूर्व तब तक अनुमति नहीं दी जानी चाहिये जब तक कि उनमें प्रदूषण निवारण के लिए समुचित इंतजाम न हों। कानूनी तौर पर इसके लिए भी प्रदूषण फैलाने वालों के विरुद्ध कार्यवाही की जानी चाहिये। 

     निष्कर्ष: विभिन्न रूपों में बढ़ते हुये प्रदूषण की रोकथाम यदि शीघ्र नहीं की गई तो आने वाली पीढ़ी पर इस प्रभावों को देखकर ” मुंह में उंगली दबाने की ” अपेक्षा और कुछ शेष नहीं रह जायेगा। समाज के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह सरकार द्वारा इस क्षेत्र में चलाए जा रहे जन-जागरण अभियान या सफाई अभियान पर गंभीरता पूर्वक निर्देशों का पालन कर सहयोग करें। वर्ना जीवन अभिशाप बनकर रह जायेंगा। आवश्यक है एक जुट होकर ऐसे समाज की रचना करें जहां प्रकृति और पर्यावरण के साथ सामंजस्यपूर्ण अपनी उपलब्धियों को आगे बढ़ायें और आने वाली पीढ़ियों के लिये आदर्श बन सकें।

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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