AVK NEWS SERVICES

इंडिया बनाम एनडीए: दल मिले अब दिल मिले तो बात बने

इसी हफ्ते दो अहम बैठकों पर पूरे देश की निगाहें थी। बंगुलरू में विपक्ष मोर्चे में शामिल 26 दल एक साथ बैठे तो इसी दिन भाजपा की अगुवाई वाले राजग की बैठक में 39 दल शामिल हुए। विपक्षी मोर्चे ने गठबंधन को नया नाम इंडिया दिया है। टैग लाइन जीतेगा भारत बनाने की तैयारी है। दूसरी ओर भाजपा ने विपक्षी मोर्चे से बड़ा जमावड़ा दिखा कर यह जताने की कोशिश की तो असली और मजबूत गठबंधन को राजग का है।

जाहिर तौर पर राजनीति में मनोवैज्ञानिक जंग अहम है। इसके साथ राजनीति में धारणा मतलब परसेस्पशन बड़े काम की चीज है। मुख्य लड़ाई में उतरने से पहले परस्पर प्रतिद्वंद्वी दल या गठबंधन इन्हीं हथियारों को आजमाते हैं। बंगलुरू और दिल्ली में इंडिया और एनडीए की बैठक इसी मनोवैज्ञानिक और धारणा की जंग का एक हिस्सा थी। इस जंग के जरिए दोनों ही गठबंधन ने शक्ति प्रदर्शन के साथ आगामी लोकसभा की अपनी अपनी भावी रणनीति की झलक पेश की। कांग्रेस और भाजपा ने सहयोगियों के लिए बड़ा दिल दिखाने का संकेत दिया। 

बहरहाल इन दो बैठकों को मुख्य धारा की मीडिया ने एनडीए बनाम इंडिया की जंग का नाम दिया।  मगर क्या यह मान लिया जाए कि परस्पर विरोधी दोनों गठबंधनों में शामिल दलों के दिल मिल गए हैं? या अभी असली पिक्चर बाकी है? दोनों ही मोर्चे ने जिस तरह अपना कुनबा बढ़ाया है, उससे कई सवाल भी खड़े हुए हैं। इनमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या एक मंच पर इकट्ठा हुए दलों के दिल भी मिलेंगे? यह सवाल इसलिए कि इंडिया और एनडीए दोनों के लिए सीट बंटवारे की गुत्थाी सुलझाना आसान नहीं हैं।

वर्तमान का कुनबा स्थाई रूप तभी लेगा जब दोनों ही गठबंधन सीटों के बंटवारे की गुत्थी सद्भाव के साझ सुलझा लेंगे। अब सवाल है कि क्या दोनों ही गठबंधन में सीट बंटवारे की गुुत्थी को सुलझाना आसान है? जाहिर तौर पर नहीं। वह इसलिए कि दोनों ही गठबंधन में शामिल दलों की अपनी अपनी महत्वाकांक्षा हैं। जोड़ तोड़ के कारण कई राज्यों में नए सियासी समीकरण बने हैं। इसके अलावा एकजुटता के नाम पर कई दल  एक मंच पर जरूर दिखे हैं, मगर सीटों के बंटवारे का सवाल अभी बाकी है।

इस क्रम में सबसे पहले बात भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन एनडीए की करते हैं। एनडीए की बैठक में भले ही 39 दल शामिल हुए, मगर सच्चाई यह है कि इनमें से आधे से भी ज्यादा दलों के पास संसद के किसी सदन का प्रतिनिधित्व नहीं है। जाहिर तौर पर इतनी बड़ी संख्या महज शक्तिप्रदर्शन के लिए जुटाई गई थी।

मगर इनमें से कई दल ऐसे हैं जो इस पर संसद में अपना सूखा खत्म करना चाहते हैं। इनमें ओमप्रकाश राजभर, संजय निषाद,  जीतनराम मांझी जैसे कुछ नेता शामिल हैं। ऐसे में सवाल है कि भाजपा अलग-अलग राज्यों में सीट बंटवारे का क्या फार्मूला होगा? क्या यह फार्मूला सर्वमान्य होगा? अगर नहीं तो क्या भविष्य में एनडीए का आकार नहीं घटेगा।

मसलन महाराष्ट्र का ही उदाहरण लीजिये। बीते चुनाव में यहां भाजपा और शिवसेना साथ-साथ थे। दो ही दल होने के कारण सीट बंटवारे पर पेंच नहीं फंसा। इस बार स्थिति ठीक इसके उलट है। अब राज्य में शिवसेना और उसके बाद एनसीपी का एक धड़ा भी भाजपा की सहयोगी बन गए हैं। शिंदे गुट की शिवसेना पहले की तरह 23 सीटें मांग रही हैं। चूंकि एनसीपी का अजित पवार धड़ा भी अब एनडीए में है। ऐसे में भाजपा चाहेगी कि इन 23 सीटों में ही दोनों धड़ों की गुंजाइश निकाली जाए। सवाल है कि क्या यह फार्मूला दोनों धड़ों को स्वीकार होगा? इसी प्रकार बात बिहार की।

यहां भाजपा ने लोजपा के दोनों धड़ों के साथ जीतनराम मांझी,उपेंद्र कुशवाहा को साधा है। विकासशील इंसान पार्टी वीआईपी से बातचीत चल रही है। लोजपा का दोनों धड़ा खुद को असली लोजपा मानता है। दोनों ही धड़े की मांग है कि उसे बीते लोकसभा चुनाव की तरह छह सीटें दी जाएं। उपेंद्र कुशवाहा चाहते हैं कि उन्हें पांच सीटें मिलें। इसी प्रकार जीतन राम मांझी दो से कम सीट पर मानने के लिए तैयार नहीं है। ऐसे में सवाल है कि बिहार में भाजपा अपने सहयोगियों के लिए सीटों के नुकसान की कीमत पर बड़ा दिल करेगी? 

उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में भी यही स्थिति है। तमिलनाडु में भाजपा इस बार कम से कम एक दर्जन सीटों पर लड़ना चाहती है। यहां अन्नाद्रमुक सहित आधा दर्जन दूसरी पार्टियां भी राजग का अंग हैं। बीते चुनाव में पांच सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा अगर इस बार एक दर्जन सीटों का लड़ने का मन बनाती है तो उसके लिए अन्नाद्रमुक सहित दूसरे सहयोगियों को मनाना आसान नहीं होगा। यहां भाजपा के सभी सहयोगी चाहते हैं कि सीट बंटवारे के मामले में पिछले फार्मूले को ही एक बार फिर से लागू किया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने ओमप्रकाश राजभर और संजय निषाद को साधा है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा को झटका देने के लिए पार्टी आरएलडी के मुखिया जयंत को साधना चाहती है। बीते चुनाव में राज्य में महज अपना दल एस ही भाजपा की सहयोगी थी। तब अपना दल को पार्टी ने दो सीटें दी थी और 78 सीटों पर खुद लड़ी थी। इस बार अपना दल भी सीटों की संख्या बढ़ाना चाहेगा, जबकि निषाद और राजभर भी दो-दो सीटें मांग रहे हैं। हरियाणा में तो अभी से तकरार की स्थिति है। भाजपा अपनी सहयोगी जेजेपी को एक भी सीट नहीं देना चाहती।

संकेत हैं कि इस आशय की घोषणा के बाद हरियाणा में दोनों दलों की राह अलग-अलग हो जाए। कहने का आशय यह है कि राज्य की सभी सीटें जीतने का लक्ष्य तय कर आगे बढ़ रही भाजपा अपने नए सहयोगियों के लिए अपने दिल को कितना बड़ा करेगी?

यह तो हुई एनडीए की बात। सीट बंटवारे के सवाल पर इंडिया में तो इससे भी बड़ी समस्या है। कारण कई हैं। मसलन एक ही राज्य में प्रभावी दलों का साथ आना। कुछ राज्यों में विपक्षी मोर्चे में शामिल दलों का ही आमने सामने होना। यह तय है कि केरल में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूडीएफ और वाम दलों की अगुवाई वाले एलडीएफ के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं होगा। मगर यही दल जब दूसरे राज्यों में गठबंधन करेंगे और केरल में आपस में लड़ेंगे तो देश भर में विपक्षी मोर्चे के खिलाफ एक नकारात्मक धारणा बनेगी।

अब जम्मू कश्मीर की बात करते हैं। विपक्षी मोर्चे की बैठक में नेशनल कांफ्रेंस के साथ पीडीपी भी शामिल हुए। राज्य में ये दोनों दल एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। फिर राज्य में कांग्रेस का भी मजबूत आधार रहा है। ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस पीडीपी बनाम नेशनल कांफ्रेंस की गुत्थी कैसे सुलझाएगी? क्या सीटों के बंटवारे पर विवाद के बाद ये सभी दल विपक्षी मोर्चे में बने रहेंगे? सीट बंटवारे का सवाल बस जम्मू कश्मीर तक सीमित नहीं है।

दूसरा अहम पहलू आम आदमी पार्टी का है। दिल्ली अध्यादेश पर कांग्रेस का साथ मिलने के बाद विपक्षी मोर्चे की बैठक में अरविंद केजरीवाल शामिल हुए थे। मगर उनका बैठक में शामिल होना विपक्षी मोर्चे में बने रहने की गारंटी  नहीं है। वह इसलिए कि दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी आमने सामने हैं।

आम आदमी पार्टी हरियाणा और गुजरात में भी सीट बंटवारे में बड़ा हिस्सा चाहती है। कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि आम आदमी पार्टी का विस्तार उसके वोट बैंक की कीमत पर हो रहा है। दिल्ली और गुजरात इसका उदाहरण है। ऐसे में क्या कांग्रेस चाहेगी कि चुनाव पूर्व गठबंधन के जरिए वह खुद ही अपना वोट बैंक आम आदमी पार्टी के हवाले कर दे?

इसी कड़ी में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार आते हैं। यहां सपा, ममता बनर्जी के साथ ही नीतीश कुमार और लालू यादव को कांग्रेस के लिए दिल बड़ा करना है। कांग्रेस को पता है कि बैठक में शामिल क्षेत्रीय दल उन राज्यों में उन्हें कोई सहयोग नहीं कर पाएंगे जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है। वह इसलिए इन राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों का कोई आधार ही नहीं है। जब कांग्रेस को दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय दलों से मदद ही नहीं मिलेगी तो वह इन्हीं दलों के लिए अपना दिल कितना बड़ा करेगी?

जाहिर तौर पर जो परिस्थितियां हैं उनमें निकट भविष्य में कई बदलाव आएंगे। सीट बंटवारे का सर्वमान्य फार्मूला नहीं निकलने पर दोनों ही गठबंधन में शामिल अलग-अलग दल अपने अनुकूल परिस्थितियां तलाशेंगे। मतलब भविष्य में एनडीए से इंडिया और इंडिया से एनडीए में संभावनाएं टटोलने का नया सिलसिला शुरू हो सकता है। 

हां, विपक्षी मोर्चे में कुछ नेताओं में आए बदलाव विपक्षी एकता के लिए सुखद संदेश हैं। मसलन कांग्रेस ने कहा है कि उसके लिए मोर्चे की अगुवाई या मोर्चे का चेहरा बनना पहली प्राथमिकता नहीं है। इससे भी बड़ी बात ममता बनर्जी का राहुल गांधी के बारे में विचार बदलना है। मोर्चे की बैठक में ममता ने राहुल को नेता बता कर कांग्रेस को राहत दी है।

इसी प्रकार नीतीश कुमार ने मोर्चे के नाम पर किसी तरह के विवाद से इंकार किया है। उन्होंने कहा है कि फिलहाल सबकी मंशा भाजपा के खिलाफ मजबूत मोर्चा खड़ा करना है। विपक्षी मोर्चे की तीसरी बैठक बुलाने पर भी सहमति बनी है।

हो सकता है कि कांग्रेस ने रणनीति के तहत मोर्चे की अगुवाई करने की इच्छा नहीं होने की बात कही है। कांग्रेस की रणनीति दावेदारी से दूरी जता कर दूसरे क्षेत्रीय दलों को साधने की हो। शायद कांग्रेस इसके जरिए संदेश देना चाहती है कि भविष्य में किसी भी दल या नेता के लिए प्रधानमंत्री बनने का विकल्प खुला है। नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से क्षेत्रीय दलों के नेता इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा बारी-बारी से देश के प्रधानमंत्री बने थे। 

बहरहाल यह समझने की जरूरत है कि गठबंधन के इस खेल में असली और स्थाई पिक्चर का सामने आना बाकी है। सीट बंटवारे का सवाल दोनों ही गठबंधन में भविष्य में बड़ा बदलाव ला सकता है। फिर सवाल इसी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का भी है। कांग्रेस इन राज्यों में मुख्य मुकाबले में है। इनमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी सत्ता में है तो बीते विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस को जनादेश मिला था।

हालांकि आपरेशन लॉटस का शिकार हो कर कांग्रेस ने इस राज्य की सत्ता गंवा दी। ऐसे में इन चुनाव के नतीजे का भी असर एनडीए और इंडिया पर पड़ेगा। बेहतर प्रदर्शन से क्षेत्रीय दलों में कांग्रेस के प्रति विश्वास जगेगा, इसके उलट प्रतिकूल परिणाम से कांग्रेस की चुनौतियां बढ़ेगी। एनडीए में भी इन राज्यों में भाजपा के प्रदर्शन से परिस्थितियां बदलेंगी।

भाजपा का कमजोर प्रदर्शन उसे कुछ नए दलों को साधने और दूसरे सहयोगियों को साधे रखने के लिए अधिक त्याग करने पर मजबूत करेगी। इसलिए अंतिम नतीजे से पहुंचने से पहले थोड़ा इंतजार कीजिये। वह इसलिए कि गठबंधन के खेल का मुख्य पर्दा उठना अभी बाकी है। विपक्षी मोर्चे की तीसरी बैठक बुलाने पर भी सहमति बनी है।

हो सकता है कि कांग्रेस ने रणनीति के तहत मोर्चे की अगुवाई करने की इच्छा नहीं होने की बात कही है। कांग्रेस की रणनीति दावेदारी से दूरी जता कर दूसरे क्षेत्रीय दलों को साधने की हो। शायद कांग्रेस इसके जरिए संदेश देना चाहती है कि भविष्य में किसी भी दल या नेता के लिए प्रधानमंत्री बनने का विकल्प खुला है। नब्बे के दशक में कांग्रेस के सहयोग से क्षेत्रीय दलों के नेता इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवगौड़ा बारी-बारी से देश के प्रधानमंत्री बने थे।

बहरहाल यह समझने की जरूरत है कि गठबंधन के इस खेल में असली और स्थाई पिक्चर का सामने आना बाकी है। सीट बंटवारे का सवाल दोनों ही गठबंधन में भविष्य में बड़ा बदलाव ला सकता है। फिर सवाल इसी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का भी है। कांग्रेस इन राज्यों में मुख्य मुकाबले में है। इनमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी सत्ता में है तो बीते विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस को जनादेश मिला था।

हालांकि आपरेशन लॉटस का शिकार हो कर कांग्रेस ने इस राज्य की सत्ता गंवा दी। ऐसे में इन चुनाव के नतीजे का भी असर एनडीए और इंडिया पर पड़ेगा। बेहतर प्रदर्शन से क्षेत्रीय दलों में कांग्रेस के प्रति विश्वास जगेगा, इसके उलट प्रतिकूल परिणाम से कांग्रेस की चुनौतियां बढ़ेगी।

एनडीए में भी इन राज्यों में भाजपा के प्रदर्शन से परिस्थितियां बदलेंगी। भाजपा का कमजोर प्रदर्शन उसे कुछ नए दलों को साधने और दूसरे सहयोगियों को साधे रखने के लिए अधिक त्याग करने पर मजबूत करेगी। इसलिए अंतिम नतीजे से पहुंचने से पहले थोड़ा इंतजार कीजिये। वह इसलिए कि गठबंधन के खेल का मुख्य पर्दा उठना अभी बाकी है।

विनीता झा

Exit mobile version