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हंगामें एवं गतिरोध के बीच गरिमा खोते संसदीय मंच

भारत की संसदीय प्रणाली दुनिया में लोकप्रिय एवं आदर्श है, बावजूद इसके सत्ता की आकांक्षा एवं राजनीतिक मतभेदों के चलते लगातार संसदीय प्रणाली को धुंधलाने की घटनाएं होते रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब संसद की कार्रवाई को बाधित करना एवं संसदीय गतिरोध आमबात हो गयी है। न केवल संसद बल्कि राज्यों की विधानसभाओं में समुचित रूप से विधायी कार्य न हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण है।

संसद एवं विधानसभाएं ऐसे मंच हैं जहां विरोधी पक्ष के सांसद एवं विधायक आलोचना एवं विरोध प्रकट करने के लिये स्वतंत्र होते हैं, लेकिन विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच तकरार और इन स्थितियों से उत्पन्न संसदीय गतिरोध लोकतंत्र की गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा और नारेबाजी की स्थितियां कैसे लोकतांत्रिक कही जा सकती है?

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की विधायिकाओं में जो दृश्य देखने को मिल रहे हैं, वे सचमुच चिंताजनक हैं। हालत यह है कि हंगामे व शोर-शराबों के दौर में न संसद का सत्र चल पा रहा है और न ही राज्यों की विधानसभाएं। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक तस्वीर एक जैसी सामने आ रही है।

राज्यसभा के सभापति ने आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को अमर्यादित आचरण के आरोप में पूरे सत्र के लिए, तो राजस्थान में भी तीन दिन पहले तक मंत्री रहे राजेन्द्र गुढ़ा और विपक्षी दल भाजपा के विधायक मदन दिलावर को शेष सत्र के लिए निलम्बित कर दिया गया। संसद में हुड़दंग मचाने, अभद्रता प्रदर्शित करने एवं हिंसक घटनाओं को बल देने के परिदृश्य बार-बार उपस्थित होते रहना भारतीय लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ ही माना जायेगा। सफल लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ ही मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है। लेकिन पक्ष एवं विपक्ष दोनों ही लोकतंत्र को दूषित करने में लगे हैं।

यह देखना दुखद, दयनीय और शर्मनाक है कि मणिपुर को लेकर देश-दुनिया में तो चर्चा हो रही है, लेकिन भारत की संसद में नहीं। यह चर्चा न हो पाने के लिए जिम्मेदार है क्षुद्र राजनीति और एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की प्रवृत्ति। संसद के तीन दिन बर्बाद हो गए, लेकिन मणिपुर पर चर्चा शुरू नहीं हो सकी। विपक्ष गृहमंत्री से पहले प्रधानमंत्री का वक्तव्य चाहता है। यह जिद चर्चा से बचने का बहाना ही अधिक जान पड़ती है, क्योंकि एक तो प्रधानमंत्री मणिपुर की घटना पर पहले ही बोल चुके हैं और दूसरे, सत्तापक्ष की ओर से यह नहीं कहा गया कि वह आगे इस विषय पर कुछ नहीं कहने वाले।

लेकिन विपक्ष ने ठान लिया है कि वही होना चाहिए, जो उसकी ओर से कहा जा रहा है। जबकि सत्तापक्ष की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि मणिपुर सहित अन्य जरूरी मुद्दों पर यदि चर्चा के लिए समय कम पड़ा और उसे बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी तो यह काम किया जा सकता है, इससे यही प्रतीत होता है कि विपक्ष संसद में ऐसा माहौल बना देना चाहता है कि आम जनता को लगे कि सरकार मणिपुर पर चर्चा करने से बच रही है।

शायद इसीलिए विपक्षी नेता संसद परिसर में प्रदर्शन करने और दोनों सदनों में नारेबाजी को अतिरिक्त प्राथमिकता दे रहे हैं। लगभग ऐसी ही स्थितियां मध्यप्रदेश और राजस्थान की विधानसभाओं में देखने को मिल रही है।

मध्यप्रदेश और राजस्थान दोनों ही राज्यों में चार माह बाद ही विधानसभा चुनाव होने हैं। मध्यप्रदेश में तो विधानसभा के आखिरी सत्र में पांच बैठकें होनी थीं लेकिन शोर-शराबे के हालात ऐसे रहे कि दो बैठकों के बाद ही मानसून सत्र समाप्त कर दिया गया। वैसे तो यह कोई नई बात नहीं है। देश की अधिकांश विधानसभाएं हंगामे और शोरगुल में ही डूबी रहती हैं बिना कामकाज किये सम्पन्न हो जाती है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या यह सबसे बड़े लोकतंत्र की निशानी है? राजनीतिक दल और राजनेता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि देश की संसद और विधानसभाएं राजनीति करने का मंच नहीं हैं।

कानून बनाने, विकास की योजनाओं को लागू करने और उनको मजबूती देने के साथ जनसमस्याओं पर चर्चा कर उनका समाधान निकालने के लिए बने लोकतंत्र के ये पवित्र मंदिर हैं। सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में रहते हैं और इसी में सदनों का कीमती समय एवं जनता की गाढ़ी कमाई के अरबों रुपए हर साल खर्च एवं बर्बाद हो जाता है। जनता के पैसे से ही विधायक-सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं उठाने वाले जनप्रतिनिधि उसी जनता की आवाज सदन में नहीं उठाएं तो क्या यह जनता के साथ धोखा नहीं?

कितना दुखद प्रतीत होता है जब कई-कई दिन संसद में ढंग से काम नहीं हो पाता है। विवादों का ऐसा सिलसिला खड़ा कर दिया जाता है कि संसद में सारी शालीनता एवं मर्यादा को ताक पर रख दिया जाता है। विवाद तो संसद मंे भी होती हैं और सड़क पर भी। लेकिन संसद को सड़क तो नहीं बनने दिया जा सकता? वैसे, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं, जब परस्पर संघर्ष के तत्व ज्यादा और समन्वय एवं सौहार्द की कोशिशें बहुत कम नजर आती है। स्पष्ट है कि यदि दोनों पक्ष अपने-अपने रवैये पर अडिग रहते हैं तो संसद का चलना मुश्किल ही होगा।

यदि वह चलती भी है, चर्चा होती है तो भी लगता नहीं कि वह स्तरीय और देश को आश्वस्त करने वाली होगी, क्योंकि सभी राजनीतिक दल राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने के फेर में दिख रहे हैं। फिर विधानसभा चुनाव एवं आम चुनाव सामने होने की वजह से सभी कोई एक-दूसरे पर दोषारोपण कर जनता को गुमराह करना चाहते हैं। लेकिन राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप लगाने में चाहे जितनी ऊर्जा खपाएं, वे देश को निराश करने का ही काम कर रहे हैं। वास्तव में संसद में गंभीरता जताने के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह किसी तमाशे से कम नहीं। यह तमाशा देश को लज्जित एवं शर्मसार करने वाला है।

आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह- इसी से भारतीय राजनीति ग्रस्त हैं, ऐसे राजनेता गिनती के मिलेंगे जो इन तीनों स्थितियांे से बाहर निकलकर जी रहे हैं। पर जब हम आज राष्ट्र की विधायी संचालन में लगे अगुओं को देखते हैं तो किसी को इनसे मुक्त नहीं पाते। आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद लोकतंत्र के सारथियों में परिपक्वता नहीं पनप पा रही हैं, साफ चरित्र जन्म नहीं ले पाया है, लोकतंत्र को हांकने के लिये हम प्रशिक्षित नहीं हो पाये हैं।

उसका बीजवपन नहीं हुआ या खाद-पानी का सिंचन नहीं हुआ। आज आग्रह पल रहे हैं-पूर्वाग्रहित के बिना कोई विचार अभिव्यक्ति नहीं और कभी निजी और कभी दलगत स्वार्थ के लिए दुराग्रही हो जाते हैं। कल्पना सभी रामराज्य की करते हैं पर रचा रहे हैं महाभारत।

विपक्षी दल अनावश्यक आक्रामकता का परिचय देंगे तो सरकार उन्हें उसी की भाषा में जवाब देगी- कैसे संसदीय गरिमा कायम हो सकेगी? इसका सीधा मतलब है कि संसद में विधायी कामकाज कम, हल्ला-गुल्ला ज्यादा होता रहेगा। कायदे से इस अप्रिय स्थिति से बचा जाना चाहिए। यह एक बड़ा सच है कि संसदीय प्रक्रिया एक जटिल व्यवस्था है और इसे बार-बार परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।

लोकतंत्र पहले भी बड़ी परीक्षाओं से गुजरकर निखरा है और लोगों को यही उम्मीद है कि अमृतकाल में भारतीय लोकतंत्र को हांकने वाले लोग परिवक्व होंगे, भारतीय लोकतंत्र इन दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण त्रासदियों से बाहर आयेगा। संसदीय लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं हैं, वह पक्ष-विपक्ष की शर्तांे से नहीं, आपसी समझबूझ, मूल्यों एवं आपसी सहमति की राजनीति से चलता है।

एक तरह से साबित हो गया, भारतीय राजनीति में परस्पर विरोध कितना जड़ एवं अव्यावहारिक है। राजनीति की रफ्तार तेज है, लेकिन कहीं ठहरकर सोचना भी चाहिए कि लोकसभा, राज्यसभा एवं विधानसभाओं में थोड़ा सा समय विरोध-प्रतिरोध के लिए हो और ज्यादा से ज्यादा समय देश एवं प्रांतों के तेज विकास एवं देश निर्माण की चर्चाओं एवं योजनाओं में लगें।

ललित गर्ग

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