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आसान होने के बावजूद क्यों मुश्किल है समान नागरिकता कानून बहाल करना

प्रधानमंत्री के समान नागरिक संहिता यूसीसी के समर्थन में बयान के बाद ऐसा लगता है कि भाजपा इसे लागू करने को ले कर बेहद हड़बड़ी में है। सरकार ने संकेत दिया है कि वह संसद के इसी मानसून सत्र में यूसीसी के लिए विधेयक ला सकती है। दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित जस्टिस रंजना कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली है।

चर्चा है कि कमेटी अगले हफ्ते अपनी रिपोर्ट उत्तराखंड सरकार को देगी और उत्तराखंड सरकार विधानसभा का विशेष सत्र बुला कर यूसीसी पर मुहर लगा देगी। सरकार ने यह भी संकेत दिया है कि व्यापक विचार विमर्श और लंबी के साथ-साथ जटिल प्रक्रिया से बचने के लिए वह भी जस्टिस रंजन कमेटी की रिपोर्ट को ही आधार मान कर यूसीसी को पूरे देश में लागू करने का कदम उठाएगी।

संख्या बल की दृष्टि और वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखें तो संसद में इस कानून को पारित कराना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है। लोकसभा में सरकार के पास पूर्ण बहुमत है, जबकि राज्यसभा में भाजपा की अगुवाई वाला राजग बहुमत के लिए महज नौ अतिरिक्त सांसदों के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। जिस प्रकार आम आदमी पार्टी ने यूसीसी पर सैद्धांतिक सहमति जताई है। इसके अलावा बीजू जनता दल ने इसे समर्थन करने का संकेत दिया है।

उससे सरकार को उच्च सदन में सरकार जरूरी आंकड़े को हासिल करने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। फिर हमारे सामने अनुच्छेद 370 को खत्म करने और तीन तलाक को दंडनीय अपराध घोषित करने वाले विधेयकों का इतिहास सामने है। इन दो अहम विधेयकों को उच्च सदन में पारित कराने में सरकार को कोई परेशानी नहीं हुई। जबकि उस समय राजग की स्थिति उच्च सदन में वर्तमान समय के मुकाबले कमजोर थी। तब कुछ विपक्षी दलों ने इन विधेयकों का समर्थन किया तो कुछ विपक्षी दलों ने मतदान के दौरान अनुपस्थित रह कर सरकार का परोक्ष रूप से साथ दिया।

फिर जहां तक यूसीसी की बात है तो एआईएमआईएम, राजद, अकाली दल के अलावा पूर्वोत्तर के कुछ छोटे दलों के अलावा कोई इसका खुल कर विरोध नहीं कर रहा। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल बीच का रास्ता अपना रहे हैं। ये दल यूसीसी पर सीधा स्टैंड नहीं ले रहे। सरकार पर राजनीति करने, मूल मुद्दों से ध्यान हटाने का आरोप तो लगा रहे हैं, मगर यह नहीं बता रहे कि ये दल यूसीसी का समर्थन करेंगे या विरोध। कहने का आशय यह है कि अगर यूसीसी से जुड़ा विधेयक मानसून सत्र में आया तो इसे पारित कराने में सरकार को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।

बावजूद इसके यूसीसी का रास्ता आसान तो नजर आ रहा है, मगर इसकी राह इतनी भी आसान नहीं दिख रही। खासतौर से आदिवासी समाज से उठ रहे विरोध के स्वर से सरकार भी चिंतित नजर आ रही है। इसकी एक बानगी इसी हफ्ते हुई संसदीय कमेटी की बैठक में देखने को मिली। कमेटी के अध्यक्ष और भाजपा सांसद सुशील मोदी ने आदिवासी वर्ग को यूसीसी के दायरे से बाहर रखने का सुझाव दिया। उनका कहना था कि सभी कानून में कुछ अपवाद होते हैं। ऐसे में आदिवासी वर्ग को इसके दायरे से बाहर कर यूसीसी के रास्ते पर सरकार को आगे बढ़ जाना चाहिए।

जाहिर तौर पर सरकार और भाजपा यूसीसी के बहाने लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यक मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना चाहती है। चूंकि इस पर आदिवासी संगठनों में विरोध के स्वर उठ रहे हैं। ऐसे में सरकार को लगता है कि इसे लागू करने के साथ अगर आदिवासी वर्ग आंदोलित हुआ तो बड़ा विवाद खड़ा होगा। इसके कारण सरकार को आदिवासी वर्ग के विरोध का भी डर सता रहा है। वैसे भी आदिवासी समाज के अलग-अलग वर्गों की अपनी जटिल परंपराएं और नियम हैं। यह समाज सदियों से अपनी इन्हीं परंपराओं और नियमों के साथ जी रहा है।

मसलन इस बिरादरी के अलग-अलग वर्ग में शादी, तलाक, उत्तराधिकार, पैतृक संपत्ति में बंटवारा जैसे अलग-अलग नियम हैं। मसलन पूर्वोत्तर के आदिवासियों में इनको ले कर अलग मान्यताएं,  परंपरा और नियम हैं तो झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के भी अपने अपने अलग मत और परंपराए हैं। चूंकि यह समाज अपनी परंपराओं के प्रति बड़े आग्रही होते हैं। ऐसे में अगर इन्हें लगा कि यूसीसी के कारण उनकी परंपराओं और नियमों के अस्तित्व पर खतरा पैदा होगा तो यह समाज विरोध में उतर सकता है। यूसीसी लागू करने की संभावनाओं और संकेत के बाद आदिवासियों के अलग-अलग समूह इसके प्रति अपना अविश्वास प्रकट भी कर रहे हैं।

फिर सवाल मुस्लिम संगठनों के रुख का भी है। इन संगठनों के रुख से लगता है कि यह मामला बड़े टकराव की ओर बढ़ सकता है। मसलन यूसीसी पर मुसलमानों के सबसे बड़े संगठन जमीयत उलेमा ए हिंद का रुख बेहद आक्रामक है। विधि आयोग के लिए तैयार जवाब में इसकी झलक मिलती है। अपने जवाब में संगठन ने संविधान द्वारा दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हवाला दिया है।

संगठन ने कहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम पर्सनल लॉ कुरान और सुन्नत से बना है। ऐसे में इसमें कयामत तक कोई बदलाव नहीं हो सकता। संगठन ने अपनी राय में यह भी कहा कि शरीयत के खिलाफ किसी भी कानून को मुसलमान किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे। गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ भी इस संगठन का ऐसा ही आक्रामक रुख था। जिसके कारण देश भर में आंदोलन हुए और कई बार गंभीर विवाद की स्थिति उत्पन्न हुई। 

वैसे देखा जाए तो मुस्लिम संगठन सुधारों के प्रति लगातार बेपरवाह रहे हैं। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं कि इन संगठनों ने मुसलमानों को गुलाम बना लिया है। शरीयत या पर्सनल लॉ कुरान का हिस्सा नहीं है। यह सुन्नत का हिस्सा भी नहीं है। खुद को मुसलमानों का पैरोकार बताने वाले ये संगठन सुधार की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं।

खान इसके लिए तीन तलाक मामले का उदाहरण देते हैं। वह कहते हैं कि ज्यादातर इस्लामिक देशों ने तीन तलाक प्रथा को खत्म कर दिया। सुधार की ओर बढ़ते हुए इन देशों में माना कि तीन तलाक न सिर्फ अमानवीय प्रथा थी बल्कि इसका कुरान और सुन्नत से भी कोई लेना देना नहीं था। बावजूद इसके भारत के मुस्लिम संगठन तीन तलाक को खत्म करने का विरोध करते रहे। 

वैसे यह सच है कि पर्सनल लॉ, शरीयत के हिमायत मुस्लिम संगठनों के अलावा कई मुस्लिम संगठन हैं जो पर्सनल लॉ में हर हाल में सुधार चाहते हैं। खासकर पर्सनल लॉ के कारण महिला अधिकारों की हो रही अवहेलना के मामले में कई संगठन मुखर हैं। मसनल भारतीय मुस्लिम महिला संगठन चलाने वाली जाकिया सोमन कहती हैं कि सालों से मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार नहीं होने के कारण महिलाएं अधिकारों से वंचित की जा रही हैं।

मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकार मिलें, इसके लिए सुधार की जरूरत है। अगर कुछ नहीं हो सकता तो कोडिफाइड मुस्लिम फैमिली कानून ला कर ही इस दिशा में आगे बढ़ा जाना चाहिए। मुश्किल यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड किसी भी सूरत में सुधार होने ही नहीं देना चाहते।

जाकिया कहती हैं- शादी के लिए उम्र 18 और 21 साल जो सबके लिए है वो हमारे लिए भी होनी चाहिए। इस्लाम कहता है कि शादी एक सोशल कॉन्ट्रैक्ट है तो एक 13 साल की बच्ची को आप कैसे मान लेंगे कि वो सोशल कॉन्ट्रैक्ट करने के लायक हो गई है? हकीकत में बच्ची नाबालिग है। एक नाबालिग बच्ची जिसे कॉन्ट्रैक्ट की समझ ही नहीं है, वह कैसे इसे अंजाम दे सकती है? मेहर मामले में भी सुधार की जरूरत है।

हमारा अध्ययन बताता है कि नब्बे फीसदी मामले में महिला मेहर से या तो वंचित कर दी जाती हैं, या उन्हें तय मेहर नहीं मिलता। सवाल यह भी है कि एक नाबालिग 13 साल की बच्ची का शादी के लिए सहमति देने का क्या अर्थ है। क्या वह इतनी परिपक्व है? मुसलमानों में भी कस्टडी का अधिकार मां के पास होना चाहिए। वर्तमान समय में किसी पुरुष को आखिर चार शादियां करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? आखिर कोई कैसे इसका समर्थन कर सकता है?

बहरहाल कहने का आशय यह है कि यूसीसी पर मुस्लिम संगठनों के विरोध को जायत नहीं ठहराया जा सकता। चूंकि यह बड़ा और सभी पक्षों पर असर डालने वाला कानून है। ऐसे में इसे हड़बड़ी में महज वोट और राजनीति के लिए पारित कराने से भी बचा जाना चाहिए।

अहम सवाल यह भी है कि क्या धर्म की आड़ ले कर किसी के अधिकारों के हनन की इजाजत दी जा सकती है? हमारा संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। उन परंपराओं, मान्यताओं और नियमों को धर्म की आड़ में कैसे स्वीकार किया जा सकता है जो अमानवीय हो। हालांकि सबसे बड़ी मुश्किल हमारे देश की वोट बैंक आधरित राजनीति है। राजनीतिक दल या सरकारें देश या समाज के हित में फैसला करने के बदले अपने हित में फैसला करती है। अपना हित मतलब वोट और सत्ता है।

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