मूल्यों के क्षरण का महाआख्यान है दयानंद पांडेय विरचित उपन्यास बांसगांव की मुनमुन

सुधाकर अदीब 
दयानंद पांडेय का लेखन व्यापक वैविध्यपूर्ण एवं विरल है। वह जब लिखते हैं तो दिल खोल कर लिखते हैं, प्रभूत परिमाण में लिखते हैं। अपने विचारों और मनोभावों को बेलाग बेलौस और बोल्डतम ढंग से लिखते हैं। ऐसा करते समय वह दोस्तों रकीबों तटस्थों किसी की भी परवाह नहीं करते। वह पीड़ा को स्वर देते हैं, चाहे अपनी पीड़ा हो या किसी दूसरे की या समग्र समाज की। जो विडंबनाएं अथवा विसंगतियाँ उनके चिंतन में गहरे उमड़ती घुमड़ती हैं वह उनकी कहानी उपन्यास या ब्लॉग किसी न किसी रूप अथवा माध्यम से अभिव्यक्त हुए बिना नहीं रह पाती हैं।

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‘बांसगांव की मुनमुन’  दयानंद पांडेय का चर्चित उपन्यास है जो अपने में पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों के बेतरह क्षरण की मार्मिक दास्तान है। एक छोटे से कस्बे के वकील साहब मुनक्का राय, उनकी हैंगर पर टँगी पोशाक सी कमज़ोर हो चली पत्नी और उनकी सबसे छोटी बेटी मुनमुन के अभावग्रस्त और लगभग अभिशप्त से जीवन के इर्दगिर्द घूमता है उपन्यास का कथानक। उपन्यास ऐसा प्रवाहयुक्त और क्षिप्र गति से अपनी कथा कहता हुआ है कि एक बार हाथ में लेने पर यथाशीघ्र स्वयं को पूरा पढ़वाये बिना पाठक को नहीं छोड़ता। दयानंद पांडेय की किस्सागोई गज़ब की है। इस किस्सागोई में संयुक्त परिवार के टूटन के फलस्वरूप घर से लेकर खेत खलिहानों तक भाइयों में पट्टीदारी के झगड़े, पट्टीदार गिरधारी राय के घातक छल-प्रपंच और नाना प्रकार की क्षुद्रताएं भी हैं और मुनमुन के नालायक पियक्कड़ पति और उसके काइयाँ परिवार की नीचता और दुष्टता की पराकाष्ठा के हाहाकारी किस्से भी। दयानंद पांडेय इन सबके बीच अनेक प्रसंगों को जब सिलसिलेवार कहने बैठते हैं तो अधिकतर बहुत गंभीरता से ही घटनाओं और जीवंत वार्तालापों का बयान करते चलते हैं, पर बीच-बीच में कहीं उनका भावुक मन पाठक के मन को भी भिगोये बिना नहीं मानता। उपन्यास में एक जगह लेखक कहता है – “किकर्तव्यविमूढ़ हुआ एक वृद्ध पिता सिवाय अफ़सोस, मलाल और चिंता के और कर भी क्या सकता था ? लोग समझते थे कि उनका परिवार प्रगति के पथ पर है। पर उनकी आत्मा जानती थी कि उनका परिवार पतन की पराकाष्ठा पर है। वह सोचते और अपने आप से ही कहते कि भगवान बच्चों को इतना लायक भी न बना दें कि वे माता पिता और परिवार से इतने दूर हो जाएं।”

वास्तव में चार-चार सक्षम बेटे जिसके हों – जज, एसडीएम, बैंक मेनेजर और एनआरआई – ऐसे बुज़ुर्ग माँ-बाप को अपनी एक शिक्षामित्र बेटी मुनमुन के सहारे की आवश्यकता पड़े, इसे सामान्य तौर से कोई सोच भी नहीं सकता। पर आज के स्वार्थी समाज का यह ऐसा कटु सत्य है जिसे सूक्ष्मतम डिटेल्स के साथ और बेरहमी के साथ दयानंद सरीखे कथाकार ही इतने सहज और विस्तार के साथ लिख सकते हैं। मुनमुन जिसपर चरित्रहीनता का आरोप लगता है जो प्रारम्भ में बात बात पर रोती है, कैसे एक दिन उसके आँसू सूख जाते हैं और कैसे एक अबला से सबला बनकर पूरे बांसगांव में वही लड़की एक दिन दूसरी अनेक पीड़ित उपेक्षित स्त्रियों का भी सम्बल बनकर उभरती है, ‘बांसगांव की मुनमुन’ का यह महाआख्यान हमें बखूबी दर्शाता है। अपने संघर्ष के दौरान बहादुर मुनमुन कई बार टूटने भी लगती है। मगर फिर-फिर खुद ही संभलती है। ऐसे में मुनमुन राय आज से 500 वर्ष पहले जन्मी मीराँबाई का आधुनिक अवतार-सी दिखाई देती है। यह देख-पढ़कर मैं हैरत में पड़ गया। लेखक एक जगह उपन्यास में लिखता भी है – ” यह सब देखकर मुनमुन भी टूट जाती। इतना कि अब वह मीरा बनना चाहती थी। खासकर तब और जब कोई अम्मा बाबू जी से पूछता, ‘जवान बेटी कब तक घर में बिठाकर रखेंगे ?’ 

वह मीरा बनकर नाचना चाहती है। मीरा के नाच में अपने तनाव, अपने घाव, अपने मनोभाव धोना चाहती है।”

युगों युगों से पुरुष सत्ता की निरंकुशता को सहती और उसका मौन अथवा मुखर विरोध करती स्त्री के स्वरुप में इन 500 वर्षो में जो मूलभूत अंतर आया है वह सामंतयुगीन मीराँ और मुनमुन रूपी आज की मीरा में ज़मीन और आसमान का अंतर है, उसे ‘बांसगांव की मुनमुन’ पढ़ कर ही बखूबी समझा जा सकता है। विस्तार में जाकर मैं पाठकों का मज़ा ख़राब करना नहीं चाहूंगा। 

बस इतना ही और कहूँगा कि अद्भुत उपन्यास है यह जिसे बहुत डूब कर लेखक ने लिखा है। उपन्यास के प्रथम पृष्ठ से ही ऐसी बेचैनी सवार हुई मन में कि अनेक व्यस्तताओं के मध्य ख़ाली समय मिलते ही इसे पढ़ने के सिवा और कुछ नहीं सूझता था। ऐसी कैफ़ियत मेरे ऊपर रेणु का ‘मैला आँचल’ इलाचंद्र जोशी का ‘जहाज का पंछी’ भगवतीचरण वर्मा का ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’ और राजकृष्ण मिश्र का ‘दारुलशफा’ जैसे कुछ मार्मिक अथवा रोचक उपन्यासों के पढ़ने के दौरान ही गुज़री है। समर्थ कथाकार भाई दयानंद पांडेय को उनकी इस उत्कृष्ट कृति के लिए हृदय से साधुवाद एवं बधाई।