व्यंग्य शैली नहीं है, न ही लेखन का तरीका है, अपितु साहित्यिक प्रक्रिया है तथा लेखन की एक व्यवस्था है: ताराचंद तन्हा

 ऐसा लट्ठबाज न देखा : ‘लट्ठमेव जयते’

ज़ेबा खान
ज़ेबा खान

मशहूर हास्य कवि डा.ताराचंद ‘तन्हा’ जिन्होंने अपने बेहतरीन हास्य व्यंग्य के जरिए कई अवार्ड अपने नाम किए हैं। इनके जैसा अद्भुत व्यंग्य शायद ही कोई करने में सक्षम हो, ये अपने पाठकों के चेहरे पर मुस्कान लाने के साथ ही एक चुभन का भी एहसास करा देते हैं। जिससे बड़ी ही आसानी से लोगों को इनके व्यंग्य के पीछे का मर्म समझ आ जाता है। 

डायमण्ड बुक्स द्वारा प्रकाशित बुक ‘लट्ठमेव जयते जिसके लेखक है ताराचंद ‘तन्हा’। एक सशक्त हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में ताराचद्र तान्हा जी ने अपने हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह लट्ठमेव जयते में अपनी इस लेखकीय जिम्मेदारी का अत्यन्त कुशलता से सुन्दर निर्वाह किया है। एक हास्य कवि के रूप में अपने श्रोताओं को चाहे जितना अधिक हँसाते रहे हों। लेकिन परिवार, समाज, देश और दुनिया का दर्द उनकी नजरों से कभी दूर नहीं हो पाया है इसी वजह से आज उनकी सभी व्यंग्य कविताओं में कटाक्ष देखने को मिलता है। 

डॉ. ताराचन्द ‘तन्हा’ सामाजिक संघर्षों के युद्धक्षेत्र के एक बड़े लट्ठबाज हैं। ‘तन्हा’ ही लट्ठ लेकर सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करने में लगे हैं। उनका लट्ठ किसी लकड़ी से या बांस से नहीं बना है बल्कि इनके लट्ठ का निर्माण शब्दों से हुआ है, जिसको इन्होंने व्यंग्यों का तेल पिलाया है। इसीलिए ‘तन्हा’ का लट्ठ सदैव जीतता रहता है। ‘तन्हा’ के व्यंग्यों की लाठी का प्रहार जिस पर भी होता है वो खिलखिला उठता है और साथ ही वो एक चुभन का भी अनुभव करता है। यह चुभन उसके चिंतन पर एक इंजेक्शन का काम करती है। 

लठैत के पास एक चीज अवश्य होती है जिसके दम पर वह निर्भीक और निर्द्वन्द लाठी भांजता है। यह चीज है, उसका हौंसला और जीतने की इच्छा। डॉ. ताराचन्द ‘तन्हा’ में यह हौंसला कूट-कूट कर भरा हुआ है, चाहे ताराचन्द ‘तन्हा’ पर पारिवारिक दिक्कतें आई हों या स्वास्थ्यगत समस्याएं, इन्होेेंने कड़ा मुकाबला किया और धैर्य के लट्ठ को चलाकर उनको दूर भगाया। ‘तन्हा’ का व्यापक दृष्टिकोण समाज की विसंगतियों को भी लक्ष्य करना जानता है। उन विसंगतियों से समाज को निजात दिलाने की उद्दात मनोवृत्ति इनके हाथ में कलम की लाठी पकड़ा देती है और फिर ‘तन्हा’ व्यंग्य के तेल से तृप्त लाठी से चुन-चुनकर एक-एक विसंगति का मर्दन करते रहते हैं ।

व्यंग्य के अखाड़े में शब्दों के चयन का बहुत अधिक महत्व है। यदि शब्द शिथिल पड़ जाते हैं तो व्यंग्य के लठैत की लाठी टूट जाती है, शब्द कसे रहेंगे तोे लट्ठ मजबूत रहेगा।

पेट्रोल के एक
विशाल टैंक पर 
लगा हुआ था
एक फिल्मी पोस्टर
लिखा हुआ था उस पर 
बीवी हो तो ऐसी 
और उसी के ठीक 
नीचे लिखा था
अत्यन्त ज्वलनशील..

‘लट्ठमेव जयते’ पुस्तक का नाम ही लेखक की निर्भीक भावना का साक्षी है। राजनीति, कुरीति, भ्रष्टाचार और सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने से समाज का बहुत बड़ा वर्ग आहत होता है क्योंकि वो तबका इसी में लिप्त रहता है। जब उस पर उंगली उठती है तो तिलमिलाहट तो होती ही है, क्योंकि भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति भी अपने पर अंगुतनुमाई पसंद नहीं करता और वो लेखक का विरोधी हो जाता है। लेकिन ईमानदारी से कर्मयोग के तहत अगर लट्ठ चलाया जाता है तो वह लट्ठ न रहकर सुदर्शनचक्र बन जाता है। ‘तन्हा’ की यह पुस्तक उसी ईमानदारी का द्योतक है। व्यंग्य एक सोउद्देश्य रचना है जो नैतिकता एवं सामाजिक यथार्थ के साथ गहराई से जुड़ी है और पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करती है। ताराचंद तन्हा का मानना है कि व्यंग्य शैली नहीं है, न ही लेखन का तरीका है, अपितु साहित्यिक प्रक्रिया है तथा लेखन की एक व्यवस्था है, और ये व्यवस्था बहुत जरूरी है, शायद इसीलिए ये लेखन मेरी मजबूरी है । 

और ये लेखन मेरी मजबूरी इसलिए भी है कि – 

सत्य हुआ है आजकल, मूक बधिर लाचार । 
लट्ठमेव जयते करो, होती जय-जय कार ।।

व्यंग्य एक सो उद्देश्य रचना है जो नैतिकता एवं सामाजिक यथार्थ के साथ गहराई से जुड़ी है और पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करती है। ज़ेबा खान