पके धान के खेत का स्वाद और सौंदर्य

हविष्यान्न में परिगणित धान (चावल) देवताओं के भोग-प्रसाद का अनिवार्य घटक है तो यज्ञ अनुष्ठान के ऋत्विज और होता के आहार का हिस्सा भी। यज्ञवेदी में अग्निदेव को समर्पित हवन समिधा में अक्षत, तिल और जौ का सहभागी है तो अतिथि-अभ्यागत के स्वागत सत्कार में प्रयुक्त रोली, चंदन, हल्दी का अभिन्न मीत भी। आमजन की दैनंदिन क्षुधापूर्ति का सहज साधन है तो पशु-पखेरू का प्रिय भी। धान स्नेह, सम्मान एवं आदर का प्रतीक है और सात्विक प्रेम का प्रकटीकरण भी। तभी तो बालसखा द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को सुदामा चावल भेंट करते हैं। यह चावल अर्थात् धान सामाजिक समरसता का द्योतक है और सद्भाव की निर्मल प्रेमधारा का प्रतिबिम्ब भी। नववधु की पाक-कला ​का परीक्षण ‘खिचड़ी रांधने’ से ही होता है और रोगी का पथ्य भी खिचड़ी ही है, जिसमें चावल की प्रतिष्ठा लोक प्रशंसित है।

धान वैदिक साहित्य में यव (जौ) के साथ धान्य के रूप में महिमामंडित है। वास्तव में धान लोक की श्रम साधना की पराकाष्ठा है, कृषि कर्म का कंचन किरीट है। धान रोपती औरतें दरअसल वसुधा के आर्द्र हृदय पटल में जीवन का संगीत रोपती हैं, स्वप्नों का सुखद संसार रचती हैं। वे भूख से मुक्ति का छंद लिखती हैं और घर-खलिहान की समृद्धि की पगडंडी बुनती हैं। घुटनों तक कीचड़ में धंसी औरतें नीले वितान के नीचे धान के शिशु रोपती हैं, प्रौढ़ होते ही जिनके ललाट पर काल पुरुष स्वर्णिम आभामय दानों का तिलक कर देता है। लोक के लिए धान प्राण हैं, जीवन का आधार हैं तभी तो कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं, “धन उगेंगे कि प्रान उगेंगे/उगेंगे हमारे खेत में/ आना जी, बादल जरूर। धान परम पावन है, तभी तो विवाह मंडप में कन्या पक्ष द्वारा लावा (भुना धान) परसा जाता है और विदाई में कन्या सूप में रखे चावल अपने सिर से पीछे की ओर बिखेरती पितृ-सदन की सुख-समृद्धि की कामना करती है।

पके धान के खेतों का सौंदर्य लुभाता है, निकट बुलाता है। हरित-पीत तन पर सूर्य रश्मियां पड़ते ही मानो पूरे खेत पर आसमान से सुनहरी चादर उतर आती है। मीठे दूधियां दानों का स्वाद चखने गौरैया-तोते मंड़राने लगते हैं। धान के फूलों और कच्ची हरी बालियों का रसपान करती मधुमक्खियां सुनहरी चादर पर गुंथी लाल-भूरी मणियां प्रतीत होती हैं और भौंरों की मधुर मृदुल गुनगुनाहट संगीत का स्वर साधते साधक का मनमोहक आलाप का आभास देती है। क्षितिज पर नीला अम्बर मानो पीत वसना वसुधंरा के कपोल पर अपने प्रेम का अंकन कर रहा है। दूर-दूर तक फैले कच्चे-पके हरे-पीले धान के खेत मन मोहते हैं, पथिकों का चित्त चुराते हैं। लगता है कि मानो कृषक के स्वागत में प्रकृति ने बहुरंगी कालीन बिछा दिया हो। मेड़ों पर उगी हरी अरहर, ज्वार-बाजरा के भुट्टे, मूंग-उरद की अंगुलियों सी लम्बी-पतली फलियां प्रकृति सुंदरी की पीली साड़ी के किनारी पर टंके बेल-बूटे ही प्रतीत होते हैं तो बीच खेत में खड़े आम-महुआ के वृक्ष और उनमें बसे पक्षी वृंद साड़ी के मध्य में चित्र सा उभर आते हैं। यह लोक का अनिंद्य सौंदर्य है जिसे लख नयन तृप्त हो जाते हैं और अतृप्त भी। यह अतृप्ति नया रचने-गुनने की प्रेरणा है, स्वीकृति है।

 वर्षों बाद दीपावली पर गांव जाना हुआ है। पिछले दो दिन से घर-परिवार और गांव वालों से गले मिले, सुख-दुख बांटे। अमावस की गहरी अंधेरी रात दीपों से जगमगा रही है, पटाखों की कर्कश ध्वनि से छह महीने का पालतू कुत्ता रह-रहकर मुन्नू भौंकने लगता है और एक पखवारा पहले जन्मी बछिया कान खड़े कर रंभाने लगती है। यह त्योहार का व्यवहार उनके लिए पहला अनुभव है।सियार-लोमड़ी की आवाजें आज कहीं खोई-सोई सी हैं। ऐसी उजालों भरी रात में मेरे मन में एक सन्नाटा पसरा है। एक खालीपन है। कोई सवाल अदहन सा खदबदा रहा है। लगता है कोई बुला रहा। कोई है जो मन की डोर को हौले-हौले अपनी ओर खींच रहा है। कौन है वह, और सहसा जैसे समाधान मिल गया। अरे! ये तो अपने पके धान के महमहाते खेत है जो मन के द्वार पर दस्तक दे रहे थे, मिलने को लालायित, आतुर और उत्सुक। मस्तिष्क में अब शांति है और भोर में ही खेतों की ओर जाने का स्वप्न उगने लगा है। अटारी के बाहर झांक कर देखता हूं, रात बूढ़ी हो गयी है, रात का कालापन सिलेटी होने लगा है। पूरब के नीलेपन में लालिमा पसरने लगी है और धीरे-धीरे धानी रंग फलक पर चढ़ने लगा है। बहुत दूर आकाश में एक केसरिया लाल गोला चेहरा नीले वस्त्रों के बीच उभरने लगा है।

चिड़ियां घोंसले छोड़ खेतों की ओर उड़ चली हैं और मैं भी। मेरे हाथ में लाठी है और कदम खेतों की ओर बढ़े जा रहे हैं, ‘मुन्नू’ भी पीछे लग गया है। अरे, इतना जल्दी खेतों के मध्य आ खड़ा हुआ हूं, किंतु किंकर्तव्यविमूढ़ हूं। किधर जाऊं, किससे पहले मिलूं, धान के खेत मेरी बांह पकड़े अपनी ओर खींच रहे हैं। साथ चल रहे बटाईदार काका हाथ के इशारे से बता रहे हैं कि इस खेत में मुसकन है, इसमें सोनम, उसमें शरबती तो पीपल के नीचे वाले में डंकल की नयी किसिम। पर कहीं धान की महक नहीं है। यूरिया, डीएपी एवं जिंक उर्वरक धानों की सुगंध और स्वाद को लील गये हैं। खेतों से गुजर रहा हूं। हरी घास के कोमल कालीन पर टंके मोती चहलकदमी से टूट-बिखर रहे हैं। अरुण रश्मियां इन मोतियों के अंदर इंद्रधनुष रच रही है। मैं लपककर तर्जनी में ओस की एक बूंद उठा लेता हूं। इंद्रधन्वा मेरी अंगुली की पोर पर झिलमिलाने लगा है और स्मृतियों में मेरे सामने बचपन के सुगंध बिखेरते खेत लहलहाने लगे हैं।

 लगभग 35-40 वर्ष पहले धान की फसलों में विविधता थी। दुधराज, भैंसलोट, मुसकन, लोचईं, काला सुदास, तुलसी भोग, काला नमक, विष्णु भोग, नागकेसर, गांजाकली, करगा, बांसमुखी, गल्हरी आदि धान मेंड़ से गुजरने पर केवल सुगंध से पहचान में आ जाते थे।‌ पर अब ये लुप्तप्राय हैं। उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल नहीं था। गोबर की देशी खाद से खेत उपजाऊ और जल धारण में समर्थ थे। खेत में मकड़ी बहुत थीं और जाले भी, उन जालों में कीट फंसते तो मकड़ियों और चिड़ियों का आहार बनते। हर धान का अपना गुण-धर्म था और पकने का निश्चित समय भी। अगैती पकने वाली किस्में दीपावली तक पक जातीं और किसान सहेदा काटकर पछार लेता। पशुओं को हरा मुलायम चारा मिलता और घर-आंगन में धान सूखने को फैलने लगता। मिट्टी के कोनैता में सूखे धान दर कर बगरी बना महिलाएं आंगन के कोने में गड़ी कांड़ी में मूसल से बगरी कूट-फटक भूसी-कना निकाल मीठे भूरे मटमैले चावल की गुलाथी पकातीं।

दूध के साथ खाने में बहुत मीठा लगता। तब मेहमान केवल गुलाथी खाने के लिए चार-पांच दिन ठहरे रहते। दूध-गुलाथी खाये बिना वर्षों गुजर गये हैं किंतु स्वाद जिव्हा पर बसा हुआ है। अचानक मेरा स्वप्न टूटा, देखा कि धान के खेत से एक जंगली बिल्ली निकली और मेरे सामने से एक चूहा दबोच दूसरे खेत के धान बीच घुस गयी। तभी मुझे धान के बीजों को बचाने के लिए काम कर रहे पद्मश्री बाबूलाल दाहिया (सतना, म.प्र.) स्मरण आये, वे जानकारी देते हैं, “आजादी से पहले धान की एक लाख दस हजार किस्में थीं, किंतु अब मुश्किल से आठ हजार ही बची हैं और उनमें भी हर वर्ष कुछ किस्में मर रही हैं।‌ मेरे पास दो सौ प्रकार के धान बीज उपलब्ध हैं।” 

मैं वर्तमान में सुगंध-स्वाद हीन धान के खेतों के बीच खड़ा सोच रहा हूं कि इस प्रगति के नाम पर क्या-क्या खो दिया है। दूर तक फैले एक ही किस्म के धान के खेत मुझे नीरस, स्पंदनहीन और अनाकर्षक दिख रहे थे। अब गांवों में कोनैता नहीं दिखते, शाम को बगरी कूटती औरतों के श्रमगीतों के स्वरों की श्वास थम गयी हैं। दूध-गुलाथी की थाली मुझसे दूर जाती दिख रही है पर मुंह में गुलाथी की मिठास घुलने लगी है।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय
लेखक शिक्षक एवं शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक तथा लोक दर्शन यात्रा के संयोजक हैं। बांदा, उत्तर प्रदेश