अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में बल्कि जैन परम्परा विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। यह दिन किसानों के लिए महत्व का दिन हैं, कुंभकारों के लिए बड़े महत्व का दिन है। शिल्पकारों के लिए भी आज बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है, यह दिन अनबुझा शुभ मुहूर्त का दिन भी है, जिस दिन बिना किसी पंडित को मुहूर्त दिखाये शादियां होती हैं।
प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानांे को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है।
लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इसदिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं।
जैन धर्म में वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन ऋषभ के जीवन का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ है। उस समय ऋषभ के अभिनिष्क्रमण का एक वर्ष संपन्न हो चुका था, बल्कि पचीस दिन और बीत गए। इस काल में ऋषभ ने न कुछ खाया, न पीया। कई बार उन्होंने भोजन की इच्छा से परिभ्रमण भी किया, पर कुछ नहीं मिला। लंबे समय तक अन्न-जल ग्रहण न करने से उन्हें निराहार रहने का अभ्यास हो गया। अपने श्वासोच्छ्वास के माध्यम से सूर्य की रश्मियों और हवा से उन सब तत्वों को ग्रहण कर लेते, जो उनके शरीर के लिए आवश्यक थे। इस तरह घोर तपस्या करते हुए वे हस्तिनापुर पहंुचे। वहां राजमहल के गवाक्ष में राजकुमार श्रेयांस भगवान ऋषभ को देखा, वे नीचे उतरे और नंगे पांव ही दौड कर उन तक पहुंचे और उनके चरणों में गिर पड़े। श्रेयांस ने भिक्षा की प्रार्थना की। ऋषभ का वह परिव्रजन भिक्षा के लिए ही था, अतः उनकी मौन सहमति प्राप्त हो गई। उस दिन प्रातःकाल ही ताजे इक्षुरस से भरे 108 कुंभ से ऋषभ द्वारा हाथों से बनायी अंजलि में श्रेयांस ने एक-धार इक्षुरस उड़ेलना शुरू किया। इस तरह ऋषभ की तपस्या का पारणा होते ही चारों ओर ‘अहोदानम्, अहोदानम्’ की ध्वनियां निनादित होने लगीं। सब लोगों ने श्रेयांस के भाग्य की सराहना की। उस दिन से वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन, अक्षय-तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी की जीवंतता के लिए अक्षय तृतीया से अक्षय तृतीया तक एकान्तर उपवास के अनूठे तप-अनुष्ठान वर्षीतप और उसके पारणे की परम्परा आज भी प्रचलित है। अक्षय तृतीया का दिन एक पवित्र दिन है। ऋषभ ऐसे तीर्थंकर हैं, जिन्होंने समाज के लिए अपना जीवन लगाया और फिर बाद में साधना में भी अपना जीवन खपाया। उनके जीवन में समग्रता है।
ऋषभ का एक अर्थ है-बैल और दूसरा अर्थ है-ऋषभ तीर्थंकर। ऋषभ का जीवन एक समग्र जीवन है। उन्होंने भौतिक जगत का विकास किया, तो अध्यात्म का विकास भी किया। भारतीय संस्कृति में ‘आत्मा’ को सर्वोपरि सत्य माना जाता है। आत्मा की खोज को एक महत्वपूर्ण खोज माना जाता है। अक्षय तृतीया का पर्व इस खोज का एक माध्यम है। यदि हम गहराई से ऋषभ का अध्ययन करें तो वर्तमान की बहुत सारी समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। क्योंकि उन्होंने सर्वांगीण व्यवस्था का जीवन दिया, इसलिये उनका जीवन ‘अहिंसक समाज की व्यवस्था’ के प्रथम कर्णधार का जीवन है और उनके जीवन का दूसरा भाग ‘आत्मोन्मुखी साधक’ की उत्कृष्ट साधना का जीवन है।
भारतीय संस्कृति एवं जीवन दो व्यवस्थाओं में समाहित है। यह भौतिकता एवं आध्यात्मिकता के समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण है। हम केवल पदार्थवादी नहीं हैं, केवल भौतिकवादी नहीं हैं। जीवन की आवश्यकता की पूर्ति में ही दिन-रात लगे रहने वाले कीड़े-मकोड़े भी नहीं हैं, बल्कि जीवन की आवश्यकता को पूरा इसलिए करते हैं कि जिससे मोक्ष की साधना और आत्मोपलब्धि हो सके। हमारा उद्देश्य आत्मा और उसकी पवित्रता तक पहंुचना है।
साधना कौन कर सकता है? अध्यात्म का विकास कौन कर सकता है? वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके सामने रोटी का प्रश्न न हो, न कुटुम्ब पालन की कोई चिंता हो। समाज की व्यवस्था अच्छी हो, तभी कोई साधना के क्षेत्र में उतर सकता है। कठिनाई यह है कि हम एक पक्ष को भुला देते हैं। धर्म करो, साधना करो, नैतिकता का अनुपालन करो-इस पक्ष को तो उजागर कर देते हैं, किन्तु उनमें जो बाधक तत्व हैं-उनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। अध्यात्म के विकास में चिंतन का यह अधूरापन बहुत बाधक है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में अधिकतर वे लोग ही आगे बढ़े, जो जीवन में पूर्ण रूप से निश्चिंत हैं। कोरोना महासंकट के समय अक्षय तृतीया का पर्व हमें जीवन के इसी दर्शन से परिचित कराता है।
अक्षय तृतीया: शरीर को तपाने की यात्रा
अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में बल्कि जैन परम्परा विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। यह दिन किसानों के लिए महत्व का दिन हैं, कुंभकारों के लिए बड़े महत्व का दिन है। शिल्पकारों के लिए भी आज बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है, यह दिन अनबुझा शुभ मुहूर्त का दिन भी है, जिस दिन बिना किसी पंडित को मुहूर्त दिखाये शादियां होती हैं।
प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानांे को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है।
लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इसदिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं।
जैन धर्म में वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन ऋषभ के जीवन का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ है। उस समय ऋषभ के अभिनिष्क्रमण का एक वर्ष संपन्न हो चुका था, बल्कि पचीस दिन और बीत गए। इस काल में ऋषभ ने न कुछ खाया, न पीया। कई बार उन्होंने भोजन की इच्छा से परिभ्रमण भी किया, पर कुछ नहीं मिला। लंबे समय तक अन्न-जल ग्रहण न करने से उन्हें निराहार रहने का अभ्यास हो गया। अपने श्वासोच्छ्वास के माध्यम से सूर्य की रश्मियों और हवा से उन सब तत्वों को ग्रहण कर लेते, जो उनके शरीर के लिए आवश्यक थे। इस तरह घोर तपस्या करते हुए वे हस्तिनापुर पहंुचे। वहां राजमहल के गवाक्ष में राजकुमार श्रेयांस भगवान ऋषभ को देखा, वे नीचे उतरे और नंगे पांव ही दौड कर उन तक पहुंचे और उनके चरणों में गिर पड़े। श्रेयांस ने भिक्षा की प्रार्थना की। ऋषभ का वह परिव्रजन भिक्षा के लिए ही था, अतः उनकी मौन सहमति प्राप्त हो गई। उस दिन प्रातःकाल ही ताजे इक्षुरस से भरे 108 कुंभ से ऋषभ द्वारा हाथों से बनायी अंजलि में श्रेयांस ने एक-धार इक्षुरस उड़ेलना शुरू किया। इस तरह ऋषभ की तपस्या का पारणा होते ही चारों ओर ‘अहोदानम्, अहोदानम्’ की ध्वनियां निनादित होने लगीं। सब लोगों ने श्रेयांस के भाग्य की सराहना की। उस दिन से वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन, अक्षय-तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी की जीवंतता के लिए अक्षय तृतीया से अक्षय तृतीया तक एकान्तर उपवास के अनूठे तप-अनुष्ठान वर्षीतप और उसके पारणे की परम्परा आज भी प्रचलित है। अक्षय तृतीया का दिन एक पवित्र दिन है। ऋषभ ऐसे तीर्थंकर हैं, जिन्होंने समाज के लिए अपना जीवन लगाया और फिर बाद में साधना में भी अपना जीवन खपाया। उनके जीवन में समग्रता है।
ऋषभ का एक अर्थ है-बैल और दूसरा अर्थ है-ऋषभ तीर्थंकर। ऋषभ का जीवन एक समग्र जीवन है। उन्होंने भौतिक जगत का विकास किया, तो अध्यात्म का विकास भी किया। भारतीय संस्कृति में ‘आत्मा’ को सर्वोपरि सत्य माना जाता है। आत्मा की खोज को एक महत्वपूर्ण खोज माना जाता है। अक्षय तृतीया का पर्व इस खोज का एक माध्यम है। यदि हम गहराई से ऋषभ का अध्ययन करें तो वर्तमान की बहुत सारी समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। क्योंकि उन्होंने सर्वांगीण व्यवस्था का जीवन दिया, इसलिये उनका जीवन ‘अहिंसक समाज की व्यवस्था’ के प्रथम कर्णधार का जीवन है और उनके जीवन का दूसरा भाग ‘आत्मोन्मुखी साधक’ की उत्कृष्ट साधना का जीवन है।
भारतीय संस्कृति एवं जीवन दो व्यवस्थाओं में समाहित है। यह भौतिकता एवं आध्यात्मिकता के समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण है। हम केवल पदार्थवादी नहीं हैं, केवल भौतिकवादी नहीं हैं। जीवन की आवश्यकता की पूर्ति में ही दिन-रात लगे रहने वाले कीड़े-मकोड़े भी नहीं हैं, बल्कि जीवन की आवश्यकता को पूरा इसलिए करते हैं कि जिससे मोक्ष की साधना और आत्मोपलब्धि हो सके। हमारा उद्देश्य आत्मा और उसकी पवित्रता तक पहंुचना है।
साधना कौन कर सकता है? अध्यात्म का विकास कौन कर सकता है? वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके सामने रोटी का प्रश्न न हो, न कुटुम्ब पालन की कोई चिंता हो। समाज की व्यवस्था अच्छी हो, तभी कोई साधना के क्षेत्र में उतर सकता है। कठिनाई यह है कि हम एक पक्ष को भुला देते हैं। धर्म करो, साधना करो, नैतिकता का अनुपालन करो-इस पक्ष को तो उजागर कर देते हैं, किन्तु उनमें जो बाधक तत्व हैं-उनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। अध्यात्म के विकास में चिंतन का यह अधूरापन बहुत बाधक है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में अधिकतर वे लोग ही आगे बढ़े, जो जीवन में पूर्ण रूप से निश्चिंत हैं। कोरोना महासंकट के समय अक्षय तृतीया का पर्व हमें जीवन के इसी दर्शन से परिचित कराता है।