1 मई, 1908 का प्रात:काल। उस दिन सूरज कुछ जल्दी ही उगा आया था। पक्षियों ने अपने घोंसले छोड़ दाना-पानी की तलाश में उड़ान भर ली थी। आमजन अपने घर एवं खेती-बाड़ी के दैनंदिन कार्यों में जुट गये थे। भोर की सुखद मलय बयार में चढ़ती धूप की तपिश घुलने लगी थी। आसमान में सूरज अभी एक लाठी ऊपर ही चढ़ा था। वनी स्टेशन पर यात्री अपनी-अपनी ट्रेनों की प्रतीक्षा में थे। स्टेशन की दुकानों की भट्ठियों में पड़ा कोयला धधकने को था कि तभी भूख-प्यास से बेहाल, श्रमक्लांत लथपथ एक किशोर ने एक दुकानदार से पीने हेतु पानी मांगा। दुकान में ग्राहकों द्वारा पढ़े जा रहे अखबार की सुर्खियों पर परस्पर टिप्पणियां हो रही थीं। एक ने कहा, “मुजफ्फरपुर बम हमले में दो औरतें मारी गईं।”
दूसरे ग्राहक ने राय जोड़ी कि यह किसी देशभक्त क्रांतिकारी का वीरोचित कार्य होगा पर उसका निशाना महिलाएं न होकर कोई क्रूर अंग्रेज अधिकारी रहा होगा। किशोर ने पानी से मुंह धोने के लिए अभी सिर झुकाया ही था कि इस आवाज को सुनकर सहसा रुक गया और पूछ बैठा कि क्या हमले में किंग्सफोर्ड नहीं मारा गया, कैसे बच गया। सभी की सवालिया निगाहें उस किशोर की तरफ घूम गईं। दुकानदार ने उससे कुछ प्रश्न पूछना शुरू कर दिया और स्टेशन पर ड्यूटी दे रहे दो सिपाहियों को गुप्त संकेत से अपने निकट बुला लिया।
सिपाहियों ने किशोर से पूछताछ की, समुचित उत्तर न पाकर उसे पकड़ने हेतु बढ़े। किशोर सतर्क हुआ और कुर्ता की जेब से असलहा निकालने हेतु हाथ डाला किंतु सिपाहियों ने उसे जकड़ तलाशी ली तो कुर्ते की जेब से एक पिस्तौल निकली। तब पता चला कि यह तो क्रांतिकारी खुदीराम बोस है जिसने 30 अप्रैल की शाम जज किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला किया था। खुदीराम की गिरफ्तारी का समाचार कस्बे में जंगल की आग की तरह फैल गया। उस किशोर पर मुकदमा चला और सजा सुना फांसी पर चढ़ा दिया गया। देश का दुर्भाग्य है कि वर्तमान पीढ़ी उनके महान बलिदान से अपरिचित है।
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को बंगाल प्रेसीडेंसी अंतर्गत मिदनापुर जिला अंतर्गत एक गांव में कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता त्रैलोकनाथ बोस और मां लक्ष्मीप्रिया देवी का प्यार-दुलार प्राप्त कर शिशु शुक्ल पक्ष के चंद्र की भांति बढ़ने लगा। उस समय कौन जानता था कि यह शिशु अपनी उज्ज्वल कीर्ति ज्योत्सना से एक दिन दिग-दिगंत में रजत आलोक भर देगा। समय आने पर विद्यालय में नामांकन करवाया गया, जहां शिक्षकों से देशवासियों पर किये जा रहे अंग्रेजी सत्ता के जुल्मों की कहानी सुन वह अंग्रेजों के प्रति आक्रोश से भर गये। वर्ष 1902-03 में अरविंद घोष और भगिनी निवेदिता का मिदनापुर में प्रवास हुआ और उन्होंने कई जनसभाएं संबोधित कीं। किशोर खुदीराम बोस ने सभाओं में सहभागिता की और दोनों के विचारों को सुनकर भारत माता की जंजीरों को काटने का संकल्प ले लिया।
हृदय में देशप्रेम का रोपित बीज राष्ट्रभक्ति का रस पाकर क्रांति की भावभूमि में अंकुरित हुआ ही था कि 1905 में बंग भंग की घटना ने उसे खाद पानी का पोषण दे विकसित होने का अवसर दे दिया। कक्षा 9वीं को छोड़ खुदीराम बोस बंग-भंग के विरोध में चलाए जा रहे आंदोलन में न केवल सक्रियता से शामिल हुए अपितु सामान्य जन को जागरूक करने के लिए ‘वंदे मातरम्’ नामक पत्रक का वितरण भी किया। 1906 में मिदनापुर में एक कृषि मेले का आयोजन किया गया था। खुदीराम बोस ने इस मेले को क्रांतिकारी विचारों के प्रचार और देश की आजादी के लिए युवाओं को प्रेरित करने के एक मंच के रूप में उपयोग करने का निश्चय कर युगांतर से जुड़े क्रांतिकारी सत्येंद्र नाथ बोस लिखित एक पर्चा ‘सोनार बांग्ला’ को बांटने में सफलता हासिल की। हालांकि पर्चा वितरण के दौरान सिपाहियों की नजर उस पर पड़ी किंतु सिपाहियों को चकमा देकर वह भागने में सफल रहे।
लेकिन बहुत जल्दी उनको पकड़ लिया गया किंतु उनके विरुद्ध कोई गवाह न मिलने के कारण मजिस्ट्रेट ने चेतावनी देकर रिहा कर दिया। आगे 6 दिसंबर, 1907 को खुदीराम बोस ने बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर नारायणगढ़ स्टेशन पर हमला किया। संयोग से गवर्नर हमले में बाल-बाल बच गया। उस दौरान कलकत्ता में न्यायाधीश किंग्सफोर्ड की क्रूरता की बड़ी चर्चा थी क्योंकि वह देशभक्त और क्रांतिकारियों को तमाम नियम कानून ताक पर रखकर कठोर सजा देने के लिए कुख्यात था। उसे दंड देने के लिए बारीन्द्र घोष द्वारा स्थापित क्रांतिकारी संस्था ‘युगांतर’ ने संकल्प किया हुआ था। अंग्रेज सरकार को इस योजना की भनक लगने पर किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण कलकत्ता से बहुत दूर मुजफ्फरपुर में कर दिया गया। लेकिन वह नहीं जानते थे कि संकल्प के धनी व्यक्तियों के लिए भौगोलिक दूरी कोई मायने नहीं रखती।
एक शाम युगांतर के कार्यालय में गुप्त बैठक के दौरान किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर में ही मारने की योजना बनी और यह काम करने हेतु उपस्थित क्रांतिकारियों में से जिम्मेदारी लेने की चुनौती रखी गई। दो-तीन वरिष्ठ क्रांतिकारियों ने चुनौती स्वीकार कर अपने नाम दिए। किंतु युगांतर संस्था के प्रमुख बारीन्द्र घोष ने कार्यालय की एक दीवार के सहारे कोने में चुपचाप बैठे खुदीराम को इस कार्य के लिए चुना क्योंकि पुलिस के रिकार्ड में खुदीराम के विरुद्ध न कोई वाद पंजीकृत था और न ही उसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध थी। अपने चयन पर खुदीराम हर्षित हुए। उनके सहयोगी के रूप में बलिष्ठ कद काठी के किशोर प्रफुल्ल चाकी जाने को तैयार हुए। दोनों को एक-एक पिस्टल और एक बम दिया गया। दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में छद्म नाम से रुक गये और जज किंग्सफोर्ड के कार्यालय, आवास एवं अन्य गतिविधियों की निगरानी कर 30 अप्रैल, 1908 की शाम उचित अवसर जानकर क्लब से बाहर निकलते समय किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला किया गया।
बम की क्षमता इतनी अधिक थी कि विस्फोट की आवाज दूर तक सुनाई दी। हमला कर दोनों क्रांतिकारी योजनानुसार अलग-अलग रास्तों से निकल भागे। इस हड़बड़ी में खुदीराम के पैर से जूते रास्ते में कहीं निकल गये। प्रफुल्ल चाकी ट्रेन के द्वारा कलकत्ता पहुंचना चाह रहे थे। कमरे जाकर कपड़े बदल एक हितैषी रेलकर्मी की मदद से ट्रेन में सवार हो पटना की ओर बढ़ गये। उसी बोगी में सवार एक सब इंस्पेक्टर द्वारा प्रफुल्ल चाकी के हाव-भाव देख शंका हुई और पुलिस को सूचना कर आगे मोकामा घाट स्टेशन पर घेर लिया। प्रफुल्ल चाकी लड़ते रहे और जीवित गिरफ्तारी से बचने के लिए अंतिम गोली कनपटी पर मारकर देश के प्रति सर्वोच्च आत्मोत्सर्ग का अप्रतिम उदाहरण बन गये। इधर खुदीराम धर्मशाला के कमरे न जाकर पुलिस की निगाहों से बचने हेतु ट्रेन की पटरी-पटरी रात भर दौड़ते रहे।
भूख-प्यास से बेहाल, नंगे पैर, पसीने से लथपथ वह किशोर अगली सुबह मुजफ्फरपुर से 25 किमी दूर जब वनी स्टेशन पर पहुंचा और एक दूकानदार से पीने के लिए पानी मांगा तो वह घटनाक्रम आपने इस लेख के आरंभ में पढ़ ही लिया है। खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर पुलिस ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की अदालत में पेश किया। दिखावे का मुकदमा चला, खुदीराम बोस द्वारा बम हमले की घटना को ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध घोर षड़यंत्र और राजद्रोह मान उसे फांसी की सजा सुनाई गई।
11 अगस्त, 1908 को केंद्रीय कारागार मुजफ्फरपुर के फांसीघर में 18 वर्ष 8 महीने का वह देशभक्त किशोर खुदीराम बोस श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ कर वंदेमातरम् का जयघोष कर हंसते हुए फांसी का फंदा चूम मां भारती के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर कोटि-कोटि हृदयों में सप्रेम विराजमान हो गया। उनके बलिदान पर स्कूल कालेज बंद कर छात्र सड़कों पर उतर आये। सम्मान में बुनकरों ने एक विशेष धोती बुनी जिसके किनारों पर खुदीराम बोस लिखा होता था। उस समय वह धोती पहनना गर्व एवं गरिमा का परिचायक बन गया। उनके जीवन पर लोकगीत रचे-गाये जाने लगे। कहना न होगा कि खुदीराम बोस के बलिदान ने क्रांतिकारी आंदोलन को नवल धार दे अनंत ऊर्जा से भर दिया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पृष्ठों में अंग्रेजी सरकार द्वारा फांसी पर चढ़ाये गये सबसे कम उम्र के पहले क्रांतिकारी के रूप में अंकित किशोर बलिदानी खुदीराम बोस का नाम प्रत्येक भारतवासी को देशप्रेम की पावन भावना से ओत-प्रोत करता रहेगा। भारत सरकार ने 1990 में खुदीराम बोस पर आधृत एक रुपए का डाक टिकट जारी कर श्रद्धा समर्पित की। समस्तीपुर अंतर्गत वनी स्टेशन का नाम बदलकर अब खुदीराम बोस पूसा स्टेशन कर दिया गया है। मुजफ्फरपुर में गंडक नदी के तट पर एक विशाल स्मारक निर्मित कर आदमकद प्रतिमा की स्थापना की गई है, जहां हर वर्ष हजारों भारतीय दर्शन कर किशोर बलिदानी खुदीराम बोस की पुण्य स्मृति को प्रणाम कर हृदय में देश-राग का अनुभव करते हैं।