27 दिसंबर मिर्जा गालिब जयंती अवसर पर-
– सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
शेरों शायरी के पर्याय बन चुके मिर्जा गालिब ने देश को अंग्रेजों की गुलामी से निकालने हेतु 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी रहे हैं। यह शायद कम ही लोगों को ज्ञात होगा। 1857 के गदर को बर्बरता पूर्वक दबाने के लिये अंग्रेजों ने जब देश के साथ दिल्ली को भी बुरी तरह जख्मी किया तो उनका शायर दिल इसे सहन नहीं कर सका, और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अपने स्तर पर काम करना शुरु कर दिया। गालिब ने इसके लिये नवाब शाहक को एक पत्र लिखकर उनके जुल्मों का खुलासा कर उनसे कुछ करने की गुजारिश की थी। वह कुछ इस प्रकार था-
“पांच लश्कर का हमला पैदल इस शहर हुआ पहला, बागियों का लश्कर उसमें शहर का एतबार लूटा दूसरा, लश्कर खाकियों का, उसमें जान ओ माल और नामूस व मकान व आसमान व जमीन आसार ए एहस्ती लूट गये ।।
वैसे मिर्जा गालिब की जिदंगी का अधिकांश समय दिल्ली में ही गुजरा, उनकी दो कमजोरियां थी। एक शराब दूसरी आम। आम के वे इतने शौकीन थे कि आम पर ही उन्होंने शायरी लिख डाली थी। आम के रसिया होने के कारण वे साल में एक बार अवश्य रामपुर जाते थे, जहां वे छककर आमों का सेवन कर अपना शौक पूरा करते थे। गालिब की शायरी का माध्यम खालिश उर्दू भाषा थी। वे अपने दिल की बातों का खुलासा पूरी ईमानदारी से अपने शायरी में लिख दिया करते थे। शायरी का माध्यन उनके अंतर मन के विचारों को अभिव्यक्त करने का सशक्त जरिया था। इसके माध्यम से वे जीवन की अनुभूतियों को बेलाग खोल देते थे। अपने अनुभवों और कल्पना शक्ति के मिले जुले रंगों से वे उर्दू शायरी को दिल के दर्द और दिल की आवाज के बीच ला खडे करते हैं।
मिर्ज़ा गालिब का उर्दू ज्ञान इतना उच्च था कि अनेक उर्दू के विद्वान ऐसा मानते हैं कि अन्य शायरों ने भी उनके जैसे पर्याप्त स्तर के शायरी लिखें हैं, किंतु उनमें से किसी ने भी गालिब जैसी स्तरीयता प्राप्त नहीं की। उनकी शायरी से जहां गालिब की जिंदगी, उनका व्यक्तित्व, परिवेश और मानवीय संबंधों का अंतरंग परिचय मिलता हैं वहीं वे अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से देश, जाति और धर्म की सीमाओं से कही बहुत आगे जाकर मानवीयता के उच्च सोपान को भी लांघ जाते हैं। ऐसे विलक्षण शायर का जन्म 27 दिसंबर 1796 को आगरा में हुआ था और उनका़ निधन 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में हुआ था।