हम रहें न रहें, पहचान बनी रहना सबसे जरुरी है

अक्सर देखने में आता है कि लोग अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर किसी नए क्षेत्र में हाथ आजमाने की कोशिश करते तो हैं, जिसका कारण यह समझा जा सकता है कि उनमें कहीं न कहीं कुछ नया सीखने की चाह होती है। लेकिन जितनी अधिक उनमें चाह होती है, उतनी ही जल्दी वे हार भी मान लेते हैं, यदि हाथ में सफलता एक बार में नहीं लगती। शायद उनका मानना यह है कि एक बार में सीख लेने में नए मुकाम हासिल कर लेने का नाम ही सफलता है। वे विफलता को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। आजकल के युवाओं में यह मानसिकता बहुत तेजी से बढ़ती हुई दिखने लगी है। एक कारण यह भी है कि बीते कुछ वर्षों में आत्महत्या के मामले तेज रफ्तार से बढ़ते दिखे हैं।   

इस बात से दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि भागती-दौड़ती जिंदगी में समय की बहुत कमी है। ऐसे में जरुरत होती है, तो धैर्य बनाए रखने की। यदि कुछ काम सीखने के लिए आपने ठाना है, तो जब तक उसे पूरी तरह सीख नहीं जाते, हार नहीं मानना चाहिए। उम्र कोई भी हो, सीखने की ललक कभी-भी ठंडे बस्ते में नहीं जाना चाहिए, तब ही आप जीवन में नए मुकाम हासिल कर पाएँगे। बड़े-बुज़ुर्ग यूँ ही नहीं कह गए हैं कि “सीखने की कोई उम्र नहीं होती..” 

इस पंक्ति की सटीक मिसाल के रूप में एक ही नाम मेरे ज़हन में सबसे पहले आता है, वह है डॉ. श्रीकांत जिचकर का। हालाँकि, वे अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आज भी उन्हें आजीवन सीखते रहने और पढ़े-लिखे व्यक्ति की ख्याति प्राप्त है। इस लेख को पढ़ने के बाद उन सभी युवाओं को इस व्यक्तित्व से प्रेरणा लेना चाहिए, जो थोड़े में ही थक-हार जाते हैं, और गिरे हुए मनोबल की गर्त में देखते ही देखते खुद को अंदर तक झोंक देते हैं।

नागपुर के एक मराठी परिवार में 14 सितंबर, 1954 को जन्मे डॉ. श्रीकांत जिचकर ने अपनी पहली डिग्री नागपुर यूनिवर्सिटी से एमबीबीएस और एमडी में ली। इसके बाद जिचकर ने मरते दम तक कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और बीएएलएलबी, एलएलएम (इंटरनेशनल लॉ), एमबीए, बिजनेस मैनेजमेंट में डॉक्टरेट, बैचलर इन जर्नलिज्म, संस्कृत लिटरेचर में पीएचडी किया।

जिचकर यहाँ भी नहीं रूके, इनके अलावा उनके नाम 19 मास्टर डिग्रीज़ भी थीं। 1973 से लेकर 1990 के बीच 42 यूनिवर्सिटीज़ में विभिन्न परीक्षाएँ देने वाले जिचकर ने अपनी ज्यादातर डिग्रीज़ फर्स्ट डिवीज़न में प्राप्त कीं और उनके पास कई यूनिवर्सिटीज़ के गोल्ड मेडल्स भी थे। 

1978 में यूपीएससी की परीक्षा पास करके श्रीकांत को इंडियन पुलिस सर्विस यानी आईपीएस कैडर मिला। लेकिन सीखने की लग्न ने उन्हें यहाँ भी रुकने नहीं दिया। दो महीने बाद ही अपने पद से इस्तीफा देकर साल 1980 में दोबारा सिविल सर्विस की परीक्षा पास करके इस बार उन्हें आईएएस का कैडर मिला, लेकिन चार महीने के बाद ही उन्होंने इस पद से भी इस्तीफा दे दिया। और सीखने की चाह जो उनमें भरपूर थी। इसी साल वे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव जीतकर विधायक बने। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री के तौर पर उन्होंने 14 विभागों का कार्यभार संभाला। वे महाराष्ट्र से दिल्ली, राज्यसभा सांसद के तौर पर भी पहुँचे। नागपुर में संदीपनी स्कूल की स्थापना की। 1998 तक राज्यसभा सांसद रहे। 1998 और 2004 के लोकसभा चुनाव में बेहद कम अंतर के साथ उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

थकना या हारना शायद जिचकर की डिक्शनरी में था ही नहीं। नागपुर में कवि कुलगुरू कालिदास संस्कृत विद्यालय स्थापित करने वाला जिचकर ने संस्कृत भाषा में डॉक्टरेट भी किया। संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए 1993 में संस्कृत यूनिवर्सिटी स्थापित करने की पैरवी के बाद सरकार ने डॉ. जिचकर की स्टडी को स्वीकार करते हुए नागपुर में संस्कृत विश्वविद्यालय खोलने की स्वीकृति दी और उन्हें इसका कुलपति बनाया गया।वर्ष 2004 में एक सड़क दुर्घटना में देश के इस सपूत को हमने खो दिया। लेकिन अब तक उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भारत के सबसे क्वालिफाइड शख्स के तौर पर दर्ज है। वे आज नहीं हैं, लेकिन उनकी पहचान कभी नहीं मिट सकेगी। इस व्यक्तित्व से देश के तमाम युवाओं को प्रेरणा लेने की अथाह जरुरत है। उन्हें यह समझने की जरुरत है कि जरुरी नहीं है कि आपको हर बार सफलता मिलती ही जाए, कई दफा मेहनत आपके सोचे हुए जीवन से कई गुना अधिक सौगात आपको दे जाती है। इसलिए सफलता और विफलता के जाल से बचते हुए हमेशा सीखते रहें, मुकाम अपने आप मिलेगा। हम रहें या न रहें, पहचना बनी रहना चाहिए..

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