बस स्टैंड की वह रात….? 

-संस्मरण-

ये सन् 1995,  29 दिसंबर की ठिठुरती सर्द रात्  की बात है। तकरीबन रात्रि के उत्तरार्ध में दो बजे मैं भोपाल से बस से  अभी अभी जबलपुर के स्टैण्ड में पहुंचा था। भोपाल मैं अपनी सर्विस के सिलसिले में गया हुआ था। काम हो जाने के बाद वहां से बस में बैठकर बिलासपुर लौट रहा था, तभी रास्ते में ही मेरा विचार कुछ बदल गया और जबलपुर में जो कि सफर के बीच पड़ता है, जबलपुर आने के पहले ही, सोचा चलो जबलपुर वाले भईया के यहां भी होता चलूं! मेरे मौसेरे‌ भाई साहब यहीं के घ​मापुर इलाके में रहते थे। अतएव मैं उस पूस की कडकडाती रात को राज्य परिवहन की खटारा सी बस से जबलपुर बस स्टैंड में उतर गया! मुझे बस ड्राइवर पर झुंझलाहट भी बहुत हो रही थी. कमबख्त न इधर न उधर बीच अर्धरात्रि को वहां ला पटका था। चूंकि बस के वहां पहुंचने का सही समय रात्रि दस बजे था, जिसे उसने लेटलतीफी से देर रात, दो बजा दिया था!

         मैं सख्त परेशानी महसूस कर रहा था, एक तो सुबह ग्यारह बजे से बस में बैठा था ,तभी से कुछ खाया-पिया भी नहीं था, इसलिये भूख भी जोरों से लग रही थी। मगर देर रात्रि होने के कारण एक भी होटल नहीं खुला रह गया था,दूसरे थकावट एवं नींद भी खूब लग रही थी! सबसे ज्यादा तो जोरों से पड़ रही ठंड से परेशानी हो रही थी! मै बस से उतरकर किनारे चार आदमियों के बैठने के लिये बनाये गये सीमेंट की एक कुर्सी पर बैठ गया। अपनी अटैची भी वहीं नीचे रखकर सोचने लगा, कि इतनी देर रात, फिर ऊपर से भारी ठण्ड में अभी भईया के यहां जाना उचित नहीं होगा या नहीं! इसी उधेड़बुन के बीच अंत में मैंने निर्णय लिया किं सुबह होने तक यहीं इंतजार किया जाए!

        सीमेंट की कुर्सी जिसमें मैं बैठा था  वह ऐसा लग रहा थां जैसे मैं किसी बर्फ की सिल्ली पर बैठा होऊं। “बस ड्राइवर की मेहरबानी से वह रात भूख से कुनमुनाते हुए ही गुजारनी पड़ रही थी, हालांकि इसमें वह पूरी तरह से दोषी नहीं था, क्योंकि जब भोपाल से हम निकल रहे थे तब वहां के बाहरी इलाके में पेयजल की समुचित आपूर्ति के नाम पर रहवासियों द्वारा चक्का जाम कर दिया गया था। जिससे हमारी बस वहां से कई घण्टे लेट हो चुकी थी! ठंड को देखते हुए मैंने दो-दो स्वेटर पहना हुआ था, हांथों में दास्ताने, गले एवं कान में मफलर बांधा हुआ था ,पैरों में भी जूते एवं मोजे पहना हुऐ थे, बावजूद इसके ठण्ड कह रही थी कि सिर्फ मैं ही हूं। शायद ठण्ड की अधिकता इतनी थी कि मुझे चारों ओर ठण्ड का ही साम्राज्य नजर आ रहा था, ये अहसास तीव्रता से बढ़ता ही जा रहा था!

 ठण्ड से ध्यान हटाने के लिये मैंने आसपास नजर डाली! मैंने देखा जहां-तहां कुछ ग्रामीण व गरीब किस्म के यात्रीगण सिकुटे-सिमटे सोये पड़े हुए थे। वहीं कुछ लोग जाग भी रहे थे, शायद उन्हें रात में ही यात्रा करनी थी! मैं यह सब देखने में ही मसगूल था कि किसी महिला की उस शांत वातावरण में एक बड़ी तीखी सी खिलखिलाने की आवाज सुनाई दी! मैं चौंककर तुरंत आवाज की दिशा में देखने लगा! तब देखा कि मैली-कुचैली सी साड़ी और वैसी ही अवस्था की जहां-तहां से फटी हुई ब्लाउज पहने एक पैंतीस चालिस वर्षीय औरत हाथों में गंदै कागज, लकड़ी, कूड़ा आदि पकड़े हुए अपने आप ही खिलखिलाती,हंस रही थी!

           गेंहूये रंग की वह औरत औसत कद-काठी की थी! शायद.. वह पगली या विक्षिप्त थी, उसके हाव-भाव भी यही दास्तान कह रहे थे! लगा जैसे वह वहीं बस स्टैण्ड में ही अपना जीवन जैसे, तैसे गुजार रही थी! पहली नजर में ही उसे देखकर मुझे महसूस हुआ कि वह औरत किसी संभ्रांत घराने की महिला रही होगी, लेकिन न जाने किन हालातों और परिस्थितियों ने उसे ऐसे दुर्दिनाअवस्था में ला पटका था!

            सबसे बड़ा ताज्जुब तो मुझे तब हुआ जब मैंने ध्यान दिया कि वह पागल सी औरत जो कई जगहों से कटी-फटी एक साड़ी ही तो पहनी हुई थी ,लेकिन उस पर जैसे उसे जोरदार पड़ रही ठण्ड का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा था। उसे देखकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि उसे ठण्ड लग रही होगी। ठण्ड का तो जैसे उसे एहसास भी नहीं हो पाया था, वह जैसे ठण्ड से बेखबर चारो ओर मंडराती दौड़ती -कूद रही थी। स्टैंड की जमीन पर कहीं-कहीं पानी छितराया हुआ था, उस पर भी वह नंगे पांव आ-जा रही थी! यह देखकर मैं सोच रहा था- “हे ऊपर वाले तूने भी कैसी दुनिया बनाई है, यहां उपस्थित प्रत्येक आदमी ठण्ड से आक्रांत है, लेकिन इस पागल सी औरत को जरा भी इसका एहसास नहीं है। उसने तो जैसे ठण्ड के आच्छादित साम्राज्य को अकेले ही परास्त कर दिया था। आखिर वह भी तो इंसान ही है। उसके भी शरीर में हाड़-मांस होगा! परंतु क्या बात थी…जो उसे जरा भी ठण्ड लग नहीं रही थी मैं जरा भी समझ नहीं पाया! 

          उसे मैं लगातार अपनी नजरों से वाच करता जा रहा था, इसी दरमियान मैंने गौर किया तो पाया कि वह प्रायः शादी-व्याह के अवसरों पर गाये जाने वाले लोक-गीतों को बड़े ही सुर और राग से गा रही थी! मैं सुन रहा था उसकी आवाज वह इतनी नफासत से गा रही थी, लगता था वह पागल ही न हो! मेरे मानस पटल पर ठीक वैसे ही दृश्यों का आना-जाना शुरु हो गया था. जैसा की उसके गीतों में वर्णन था! यह शायद उसकी आवाज का ही जादुई असर था! गाते-गाते ही यह धीरे-धीरे कर के न जाने कहां-कहां से बहुत सारी लकड़ी, कागज एवं पराली लाकर एक स्थान पर बडा़ सा ढेर बना दिया था!

फिर उसमें उसने माचिस, शायद कहीं से ढूंढकर रखा था, से आग सुलगा दिया! जब आग उसमें अच्छी तरह से पकड़ लिया और तपन लगने लगी तो वह खुश होकर सबसे पहले और पहली बार मेरी ओर ही देखकर मुझे पुकार उठी….. ओ बबुआ.. बबुआ! यींहा आवो.. आग ताप् लो! मैं उसे अपनी ही ओर हाथ हिलाकर आवाज लगाते देखकर आश्चर्यचकित रह गया था , लेकिन न जाने क्यों मैं कुछ उठने का उपक्रम करते हुये झिझक रहा था। मैं चौंक सा भी गया। यह उसे कैसे महसूस हुआ कि मैं काफी ठंड महसूस कर रहा हूं, और मुझे परेशानी हो रही है। उसने अब तक मेरी उपस्थिति को नजरअंदाज किया हुआ था, मैं शायद उसके लिये यहां उपस्थित ही नहीं था, लेकिन अकस्मात मुझे संबोधित कर बुलाने की उसकी प्रक्रिया से मैं पता नहीं कैसे रोमांचित सा हो उठा था! इसी कारण मैं उसके बुलाने पर तत्काल उठ नहीं पाया ! मैं अपनी जगह से हिल भी नहीं पाया था कि तबतक उसने और भी लोगों को आवाजें दे देकर बुला लिया!

थोड़ी ही देर में उस स्थान पर जहां पर उस औरत ने आग सुलगाया था, कई लोग इर्द-गिर्द घेरा बनाकर बैठ गये और आग तापने लगे ! आग सेंकने के बाद  लोगों को काफी राहत मिलने लगी, सभी हड्डी तक को कंपा देने वाली सर्दी में आग की तपन पाकर बडी राहत महसूस कर रहे थे! लोग अब आपस में बतियाने लगे! उनकी बातचीत की कुछ-कुछ आवाजें मुझे भी सुनाई दे रही! धीरे-धीरे आग सेंकने वालों की भीड़ बहुत बढ़ चुकी थी, मगर यह क्या….? वह पगली सी औरत अब वहां नजर नहीं आ रही थी। मेरी नजर उस औरत को ढूंढने लगी! लेकिन वह कहीं नहीं दिखाई दी ! न जाने क्यों मेरी नजर उसे ही ढूंढ रही थी, पर उसे….न दिखना था, और न मैं उसे देख पाया! मैं अबतक उस सीमेन्ट की कुसी पर ही बैठा था! पर अब तक मेरा मन काफी भारी हो चला था। मैं न जाने किस अपराध भावना से ग्रसित हो गया! मेरा मन पूरी तरह से अनजानी खिन्नता से बोझिल हो उठा! मेरे अन्दर विचार-द्वंद का प्रवाह बड़ी तेजी चल रहा था! ‘उस औरत के बारे में ही सोच रहा था,वो पगली सी औरत जिसे ठण्ड तो जैसे लग ही नहीं रही थी, पर उसे क्या लोगों के ठण्ड का एहसास था ?

जो उसने लोगों के राहत के लिये आग  सुलगा दिया था, और स्वयं गायब हो गई थी ! फिर लोग भी कैसे थे? उस आग सुलगाने वाली औरत के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति या धन्यवाद तक का प्रदर्शन नहीं कर , अपनी ही बातों में मसगूल थे, उस पगली सी औरत ध्यान किसी को भी नहीं आया! मेरे मन अपने आप से पूछ रहा था…..क्या वह औरत सच में पागल है..? अगर है तो उसे लोगों के ठण्डक एहसास कैसे है..? यही सब सोचते मेरा सर दर्द सा करने लगा ! इतने में ही मेरा ध्यान सुबह के उजाले की और गया! भोर का उजाला फैल चुका था! मैने सोचा अब चलना चाहिये, अतः आपनी अटैची उठाकर खड़ा हो गया। फिर अंतिम बार बड़ी आशा से पुनः उस पगली औरत को मेरी नजरों ने ढूंढा कि वह दिखाई दे जाये। चारों और एक उम्मीद में मैंने नजर दौडा़ई लेकिन वह कहीं नहीं दिखी।मन न जाने कैसा,एक अजीब सा बोझ लिए, उधेड़बुन के साथ उठ रहे कई सवालों के साथ आखिरकार मैं अपने गंतव्य की ओर बढ़ चला … ..। 

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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