नदियाँ जीवन का आधार हैं। सुखद शुभ स्रोत हैं, जीवन का उत्स हैं। नदियों के निकट ही मानव सभ्यता जन्मी, पल्लवित पुष्पित हो विकसित हुई। बस्तियां बसीं। नदियों ने ही प्राणिमात्र में जीवन का संचार किया। कहीं हरित कानन विकसित हुए तो कहीं सुरभित सुमनों के महकते उपवन मुसकाए। पशु-पक्षियों ने नदी नीर से जीवन रस लिया। नदी की जलधार ने अनगढ़ प्रस्तर को घिस-घिस शालिग्राम का देव रूप दे पूजनीय बना दिया। नदियों के तट मेलों के साक्षी बने और विद्वत समाज के विचार-विमर्श के दर्शक भी। विश्व की पहली कविता नदी के जल प्रवाह के मध्य ही प्रकट हुई जब तमसा नदी के तट पर मिथुनरत युगल क्रौंच (सारस) पक्षी में से एक नर पक्षी का किसी बहेलिया द्वारा वध कर देने पर आदि कवि ऋषि वाल्मीकि के मुख से अनायास सहज ही विश्व का प्रथम छंद प्रकट हुआ-
नदी की जलधार के बीच प्रस्फुटित हुई कविता की यह यात्रा अद्यावधि गतिमान है। भाषा विकास क्रम संस्कृत, पालि प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट से उपजी हिंदी की खड़ीबोली तक काव्य रचना के इस सफर को इतिहासकारों ने चार युगों में विभाजित कर अध्ययन एवं शोध हेतु सुगम एवं सहज ग्राह्य बना दिया। प्रथम युग वीरगाथा काल में राज्याश्रय प्राप्त कर कवियों ने राजा के शौर्य-पराक्रम की सराहना कर रानी एवं राजकुमारियों के श्रांगारिक वर्णन में शब्द संपदा अर्पित की। युद्धों के लोमहर्षक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन एवं अलंकार से सज्जित कविता चंदबरदाई, जगनिक, नरपति नाल्ह आदि की कंठहार बनी। भक्ति काल में भक्त कवियों ने ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण रूप की चर्चा कर भाव शब्द सुमन अर्पित किए। कबीर, दादू, नानक निर्गुण धारा के ध्वजवाहक बने तो तुलसी, सूरदास, मीराबाई सगुण साकार ब्रह्म के उपासक सिद्ध हुए।
रीतिकाल में श्रृंगार रस की प्रधानता के साथ ही लक्षण ग्रंथों की रचना हुई। केशवदास, बिहारी युग के प्रतिनिधि कवि हुए किंतु रीति के विरुद्ध अपवाद स्वरूप महाकवि भूषण ने वीर रस का परचम थाम शिवाजी और वीर छत्रसाल का प्रशस्ति गायन किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने आधुनिक कविता की नींव रखी। तब से कविता ने स्वयं को कई रूपों में ढाल ब्रज और खड़ी बोली के शब्दों के रथ पर सवार हो रचना पथ पर गतिशील हुई। भारतेंदु एवं द्विवेदी युग से बढ़ छायावाद के रहस्यवादी विधान से मुक्त हो कविता प्रयोगवादी बनी। वह प्रगतिशील कविता, नई कविता, अकविता, साठोत्तरी कविता, समकालीन कविता के नाम से जानी गई। इसी युग में कविता में छंद के बंधन टूटे और कविता छंद मुक्त हो गद्य कविता की संज्ञा से अभिहित हो जन पक्षधरता की डोर पकड़ हाशिए पर अवस्थित आम जन की पीर, कसक, वेदना एवं अभावों की अभिव्यक्ति का मध्यम बनी।
‘नदी बहने लगी है’ इस दिशा में एक नवल रचनात्मक प्रयास है जिसकी धारा में कविता के विभिन्न पुष्प अपनी चमक, सुवास और रस का सत्व ग्रहण किए पाठक को डुबकी लगाने का आह्वान करती कविता का रसास्वादन करा रही है। वास्तव में कविता वही बड़ी है जो व्यक्ति को विचार के धरातल पर स्थापित करती है, पाठक को बदलने की सामर्थ्य रखती है। वह पाठक के सम्मुख अर्थ के नवल आयाम प्रकटाती हुई चिंतन का धरातल उपस्थित करती है। कविता जीवन एवं प्रकृति साहचर्य है, साक्षात्कर है, समन्वय है। इस संग्रह की कविताएँ इसी दिशा में कदम बढ़ाती दिखती हैं।
शिक्षक एवं साहित्यकार दुर्गेश्वर राय द्वारा संपादित प्रस्तुत साझा संग्रह ‘नदी बहने लगी है’ में दर्शन, प्रेम, भक्ति, नीति, श्रम, प्रकृति एवं वात्सल्य की सप्त सुवासित अंतर्धाराएँ प्रवहमान है। इसमें बेसिक शिक्षा में कार्यरत 48 रचनाधर्मी शिक्षक एवं शिक्षिकाओं की रचनाओं को स्थान मिला है। ये रचनाकार मुख्यतः कवि या कवयित्री नहीं हैं बल्कि ‘बाल देवो भव’ के उपासक शिक्षा साधक हैं। स्वभावत: रुचि के कारण कविता लेखन उनकी आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बना है जिसमें उनका वह अवलोकन प्रकट हुआ है जो बहुधा दूसरों से देखने में छूट जाता है। उनके अवलोकन की हद में वे तमाम मुद्दे शामिल हैं जो जीवन, प्रकृति एवं दुनिया के सौन्दर्य के लिए आवश्यक हैं। भावपक्ष में समर्थ, सबल ये रचनाएँ पाठक को ताजगी तो देंगी ही साथ ही सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध भी कराएँगी। ये रचनाकार भविष्य के श्रेष्ठ साहित्यिकों में गण्य होंगे, ऐसा विश्वास है।
‘नदी बहने लगी है’ की पावन धारा से कुछ निर्मल रजत बूँदें यहाँ साझा करना चाहूँ तो सीमा मिश्रा का गीत सांसारिक नश्वरता एवं क्षण भंगुरता की ओर संकेत करता, अभिमान के त्याग एवं जीवन में प्रीति को स्थापित करता है। कविता में प्रतिरोध का स्वर आवश्यक है, वह चुप्पी के विरुद्ध संघर्ष का शंखनाद है। यही स्वर अनीता यादव की रचना में सुनाई देता है। शिक्षक की चुनौतियाँ हर युग में रही हैं पर वह व्यक्ति एवं राष्ट्र निर्माण की साधना में अनथक लीन है। विंध्येश्वरी प्रसाद विंध्य इन्हीं चुनौतियों से जूझ अपनी साधना का राग प्रकट करते हैं। भारतीय लोक जीवन में माँ का स्थान सर्वोपरि है। विनीत कुमार मिश्रा, अनुराधा दोहरे, डा. अरविंद द्विवेदी, कमलेश कुमार पांडेय ने माँ के प्रति अपने शब्द सुमनों का श्रद्धा-अर्घ्य अर्पित किया है। दीप्ति राय दीपांजलि एक मजदूर की विवशता एवं पीर को ‘आशियाना’ में चित्रांकित करती हैं वहीं कविता सिंह ने समाज में स्त्री के प्रति दृष्टिकोण को ‘स्त्री का आत्म संवाद’ में व्यक्त किया है। गुंजन भदौरिया एक कन्या भ्रूण के माध्यम से माँ से संवाद कराती दिखती हैं तो मीनाक्षी सिंह की रचना ‘मेरे पापा’ एक प्रकार से दुनिया के सभी पिता के प्रति संतान का विनम्र स्मरण है। सुमन कुशवाहा इस जग को स्वर्ग सम सुंदर बनाने का आह्वान करती हैं तो वहीं डॉ. श्रवण कुमार गुप्त एवं हिना नाज़ शिक्षा के महत्व पर कविता रचते दिखे हैं। निशी श्रीवास्तव, रीतिका मिश्रा, वत्सला मिश्रा, शालिनी सिंह एवं अमिता सचान ने बचपन का खाका खींचा है तो मंजू वर्मा जीवन में ‘धूप और छांव’ के चित्र उकेरती हैं।
चंद्रशेखर मित्र दोहे रच नीति की राह दिखाते हैं तो सुरेश अकेला क्रांतिकारियों के शौर्य एवं बलिदान को नमन करते हैं। विनीता सिकरौदिया ने एक नदी के दर्द को स्वर दिया है, काश! हम नदी की उस पीर का स्वर सुन पायें। सुनीता वर्मा, राजन लाल एवं अर्चना देवी वर्मा पर्यावरण के प्रति चिंता जाहिर करते हैं। सीमा रानी शर्मा और विवेक पाठक बेटियों पर शब्द न्योछावर करते हैं। पूनम कुमारी और सरस्वती ने स्कूली बच्चों की समझ के नयनाभिराम दृश्य अंकित किए हैं। फरहत माबूद और वैशाली मिश्रा अपनी रचनाओं में किसान के श्रम, कर्ज एवं अभावों को स्मरण करती हैं। अंतिम पृष्ठों में मुद्रित संपादक दुर्गेश्वर राय की तीन छंदमुक्त कविताएँ अपने कथ्य से ध्यान खींचती हैं। अन्य रचनाकारों की रचनाएँ भी अपने उद्देश्य में सफल हैं और पाठक के मन को प्रभावित करेंगी।
पुस्तक संपादन एक दुरूह कार्य है और वह भी कविता संकलन का संपादन तो दुधारी तलवार पर चलना ही है। पर दुर्गेश्वर राय ने सभी रचनाकारों के साथ संपादकीय न्याय करते हुए कविताओं को प्रस्तुत किया है। मुझे विश्वास है बेसिक शिक्षक-शिक्षिकाओं के सुमधुर कोमल भावों की यह कृति ‘नदी बहने लगी है’ न केवल पाठकों को आकर्षित करेगी अपितु उन्हें रचना कर्म हेतु प्रेरित एवं उत्साहित भी करेगी, यही इसकी सफलता होगी।