-26 अक्टूबर गणेश शंकर विद्यार्थी जयंती-
हिंदुस्तान की स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती वर्षों की पत्रकारिता का मुख्यतः उद्देश्य देश में मानवीय मूल्यों की स्थापना करना था, राजा राममोहन राय से लेकर लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविंद, गांधी, पंडित मोतीलाल नेहरु, गणेश शंकर विद्यार्थी, पडित नेहरु, मौलाना आजाद, मालवीय, लालपत राय आदि सभी प्रमुख राजनेताओं ने उस समय सामान्य जनता तक अपने विचार एवं अपनी बातों को पहुंचाने के लिए पत्रकारिता के माध्यम को अपनाया था, इतना ही नहीं बल्कि जो मुख्य रुप से पत्रकारिता से ही जुड़े थे, उनका भी उद्देश्य स्वतंत्र भारत का निर्माण करना था।
हिन्दी पत्रकारिता के महान पत्रकार लेखक गणेश शंकर विद्यार्थी ने देश की एकता और सद्भाव की वेदी पर अपनी बलि तक चढ़ा दिया। उन्होंने जनवरी 1920 में एक पत्र में अपनी नीति का खुलासा करते हुए कहा था उनकी कोशिश होगी कि वे पाठको को घर से बाहर अनुकूल और प्रतिकुल सामाजिक संघषों का परिचय दें, उन्हें अपना मत स्थिर करने में ‘सहायता दें और इस प्रकार उन्हें देश के कल्याण के लिए अग्रसर होने का आमंत्रण है। याद रहे कि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का प्रारंभ ही अत्यंत संघर्षशील परिस्थितियों में हुआ था।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने संपादत्वकाल में 1913 को “प्रताप” में कहा था कि आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूर्ण विश्वास रखकर “प्रताप” कर्मक्षेत्र में आता है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरुरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं। निसंदेह रुप से यह उन्नति तब तक संभव नहीं थी, जब तक देश में स्वराज की स्थापना न हो जाए। “प्रताप” का सिद्धांत वाक्य था
उस समय की पत्रकारिता का हमारे लोकमानस पर कितना गहरा और अद्भुत प्रभाव था, इसे बापू के शब्दों में देखा जा सकता है- “समाचार पत्रों के शब्दों ने लोगों के बीच गीता, बाइबिल कुरान का स्थान ले लिया है। उनके लिए लिखे हुए अक्षर ब्रम्ह वाक्य के समान है” उस समय का भारतीय मानस अत्यंत सजय था, उन्हें राजनेताओं व पत्रकारों, लेखकों पर बड़ा गहरा विश्वास था।
गणेश शंकर विद्यार्थी का स्वर क्रांतिकारी था, उन्होंने प्रताप के द्वारा लिखा था कि हमारे सिरों पर प्रहार होते हों तो हों, बिजलियां गिरती हों तो गिरे, परंतु ” हमारे व्यवहार में न नरमी आए और न ही कोई शिथिलता, हम डटे रहें वहीं पर, जहां हम डटे हुए हैं। हमारी दृष्टि रहे उसी लक्ष्य पर जिस पर वह लगी हुई है। प्रहारों की मारं से इनमें कोई अंतर न पड़े और अंत में प्रहारों को करने वाले हाथ में शिथिलता आएगी, इसके साथ ही निश्चित रुप से आएगी हमारी अंतिम विजय की सूचना । गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस दौरान भावनाओं को उद्वेलित करने वाली अनेक कविताएं लिखकर जनभावना को प्रेरित व उत्साहित किया। अनेक कविताएं तो उस समय के क्रांतिकारियों तथा स्वतंत्रता सैनानियों के गले के स्थाई राग बन गए थे। महान क्रांतिकारी शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की एक कविता तो अब भी झकझोर देती है।
वहीं दूसरे कवि बाल कृष्ण “पाल” की कविता तो मुर्दों में भी वीररस का संचारण करने की शक्ति रखती थी….
गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता भारतीय समाज में नवजागरण का संदेश प्रसारित कर देश की आजादी के लिए सतत् सचेत सैनिक की भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वहन किया। विद्यार्थी को यह अच्छी तरह से ज्ञात था कि जब तक समाज को अंधविश्वासी, सड़ी गली परंपराओं जाति और धर्मगत संकीर्णता और नारी के प्रति सामंतवादी संघर्ष के लिए जागृति नहीं हो सकती। इस दृष्टि से भी गणेश शंकर विद्यार्थी ने महत्वपूर्ण कार्य किए, उन्होंने नारी के उत्थान के प्रति अपनी आवाज बुलंद की, उन्होंने बाल-विवाह, सतीप्रथा का विरोध किया। गणेश शंकर विद्यार्थी के ये शब्द कि – “मैं पत्रकार को सत्य का पुजारी मानता हूं। सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है। सत्य के साथ उसका वहीं नाता है जो एक पतिव्रत नारी का पति के साथ रहता है।” उक्त उक्तियां श्री विद्यार्थी के चरित्र के उस उज्जवलतम पक्ष का प्रतिबिंबित करते हैं, जिस पर हमारी वर्तमान पत्रकारिता व जनता को गर्व है।