चाकलेट ओवर एण्ड आउट नाओ

दस में से नौ लोगों का कहना है कि उन्हें चाकलेट बहुत ही पसंद है और लगभग आधे से ज्यादा लोगों के अनुसार वे एक दिन भी बिना चाकलेट के नहीं जी सकते

चाकलेट का लेते ही मुंह में पानी भरने व जी ललचाने लगता है। रोते बच्चे को चुप कराना हो, या रूठी गर्लफ्रेंड के गुस्से को भगाना हो, तो चाकलेट सबसे अच्छा उपाय माना जाता है। लेकिन, उस स्थिति के बारे में सोचिए कि जब आप से कोई यह कहे कि बस अब चाकलेट ओवर एण्ड आउट. सोचकर भी डर लगता है कि अगर चाकलेट खत्म हो गई तो कैसे चलेगा? कैसे?
दरअसल, एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग दस में से नौ लोगों का कहना है कि उन्हें चाकलेट बहुत ही पसंद है और लगभग आधे से ज्यादा लोगों के अनुसार वे एक दिन भी बिना चाकलेट के नहीं जी सकते।

ऐसे में, अगर आप की भी लार चाकलेट के नाम से टपकती है, तो कान खोलकर सुन लें व समझ लें कि विश्व में चल रहे कई अध्ययनों व शोधों से यह पता चलता है कि विश्व में चाकलेट का कोटा समापन की ओर बढ़ रहा है। चाकलेट जो कि कोकोआ से बनाई जाती है, उसकी उपज खतरे में है। उसकी पैदावार धीरे-धीरे कम हो रही है. तो, ऐसे में अगर कोकोआ नहीं तो चाकलेट भी नहीं।
विशेषज्ञों के अनुसार पश्चिमी अफ्रीका में बसे आईवरी कोस्ट, जहां पर विश्व की लगभग 40 प्रतिशत कोकोआ की पैदावार होती है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षो से वहां अस्थिरता के कारण किसानों ने कोकोआ की खेती करना कम कर दिया है। कुछ लोग तो वहां की खेती बाड़ी सब छोडकर जहां तहां भाग गए हैं।
इसके अलावा कुछ बचे-खुचे किसान वहां उगने वाली कोकोआ की घाना नामक देश में तस्करी करते हैं, ताकि उन्हें अच्छा पैसा मिले। इस तरह चाकलेट बनाने वाली कंपनियां पिछले 30 वर्षो से कोकोआ की दिनों दिन बढ़ती उच्च कीमतों को झेल रहे हैं। उसके अलावा आईवरी कोस्ट के द्वारा कोकोआ के निर्यात पर लगाई गई रोक ने चाकलेट बनाने वालों के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है।
विशेषज्ञों के अनुसार आईवरी कोस्ट में कम होते किसानों की संख्या को देखते हुए नए प्रशिक्षित किसानों को काम सिखाकर खेती कराना भी एक विकल्प बन सकता था, लेकिन यह भी कारगर नहीं है क्योंकि पहली बात तो यह बहुत ही खतरनाक स्थान है, क्योंकि वहां पर राजनीतिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। तो ऐसे में अब वहां के सभी किसान अपना नया ठिकाना ढ़ूंढ़ रहे हैं। लेकिन सिर्फ यही एकमात्र कारण अगर होता तो शायद हालात कुछ बेहतर होते। परंतु यहां चुनौतियां और भी हैं।
दरअसल, कोकोआ की खेती करना बहुत आसान नहीं होता है।

इसे करने के लिए बहुत सारे मजदूरों की आवश्यकता होती है। क्योंकि विश्व का ज्यादातर कोकोआ अफ्रीका के देशों से आता है जो कि गरीब देश है। इसलिए आईवरी कोस्ट, तो वहां पर मजदूर या काम करने वाले कम उम्र के बच्चे आसानी से मिल जाते हैं और पेट भरने के लिए वे कोकोआ के खेतों में आसानी से काम कर लेते हैं।

वैसे भी कोकोआ की खेती में हर काम खुद से करना पड़ता है। मशीनी प्रयोग बहुत कम हद तक ही आप को देखेने को मिलेगा और यह सारी मेहनत तपती धूप के नीचे करनी होती है। फिर अंत में किसान को अपनी पूरी मेहनत के लिए बहुत ही कम पैसे मिलते हैं जो कि उनके दो वक्त के लिए काफी नहीं होता है। उसके अलावा उन पैसों में या तो वे लोग पेट भर लें या फिर नई जमीन पर कोकोआ की खेती. पैसों की कमी के कारण वे किसी और जगह पर दुबारा से कोकोआ की खेती नहीं करते हैं।
वैसे भी, कोकोआ की फसल को पूरी तरह से तैयार होने में कम से कम 5 साल का समय लगता है। उसके बाद धीरे-धीरे वह मिट्टी भी उस लायक नहीं रहती है। इसके अलावा अगर आप पष्चिमी अफ्रीका से बाहर कोकाआ की खेती करना भी चाहेंगे तो भी आप को भूमध्य रेखा के दस डिग्री के भीतर ही करना होगा।
विशेषज्ञों के अनुसार विश्व का तीसरा कोकोआ उत्पादक देश इंडोनेशिया स्थित सुलावेसी में भी कोकोआ के उत्पादन को लेकर बड़ी समस्याओं का सामना किया जा रहा है। वास्तव में, वहां पर मिट्टी की गुणवत्ता घट गई है और पुराने कोकोआ के पेड़ गिरते जा रहे हैं। उन्हें वहां बरकरार रखने के लिए विशेष देखभाल की आवश्यकता है, जिसकी जानकारी वहां के किसानों को नहीं है। उन्हें इसका प्रशिक्षण नहीं है कि गिरते हुए पेड़ों की देखभाल कैसे की जाए? तो, वहां के कोकोआ उत्पादन में काफी गिरावट पाई जा रही है।
भारत की कुछ लोकप्रिय चाकलेट-
अमूल –अमूल मिल्क चाकलेट, अमूल फ्रूट एण्ड नट चाकलेट, अमूल बिंदास, अमूल चौकोज, अमूल फंडू.
कैडबरी- ओरियो, नैबिस्को, ट्रिडेंट, टैंग, मिल्का, बोर्नविले, क्रंची, डेयरी मिल्क।
नैस्ले- किटकैट, मिल्की बार, नेस्ले क्रंच।
फेरेरो रोशर- फेरेरो रोशर
मार्स चाकलेट- मार्र्स, बाउंटी।

बहुत से लोग कहते हैं कि चाकलेट जंक फूड की श्रेणी में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह मुख्य तौर पर कोकोआ से बनाया जाता है और कोकोआ में बहुत सारे एंटी आक्सीडेंट और न्यूट्रिएंट होते हैं जो कि चाकलेट को पुष्टिकर बनाते हैं। लेकिन मार्केट में मिलने वाली अधिकतर चाकलेट में शूगर व दूध उत्पादों का समावेश होता है और कोकोआ का स्तर कम। तो, वह किसी भी कोण से स्वास्थ्यवर्धक नहीं रह जाती है। हालांकि सच्चाई कुछ भी हो लेकिन इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि चाकलेट करोड़ों लोगों की पहली पसंद मानी जाती है।
लगभग 1000 वर्ष पहले माया सभ्यता के लोग कोकोआ पेड़ की पूजा किया करते थे क्यों कि इसे अन्न का भगवान माना जाता था। फिर जिन स्थानों पर कोकोआ की पैदावार नहीं होती थी, वहां पर कोकोआ को मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. धीरे-धीरे 1600 ईस्वी में यूरोप के लोगों के बीच चाकलेट लोकप्रिय हो गई, लेकिन धनी लोग ही इसे खरीद पाते थे। इसके बाद 1879 में स्विस उत्पादक के द्वारा पहली बार दूध व चीनी मिलाकर चाकलेट तैयार की गई। लेकिन उन्नीसवें शतक से पहले ये अमेरिका व यूरोप में कहीं भी खुले तौर पर उपलब्ध नहीं हो पाई और आज इक्कीसवें षतक में आलम यह है कि इसके बिना खाने की कल्पना भी अधूरी सी लगती है।
एवीके न्यूज सर्विस

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