यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कृष्ण की ‘कर्मणये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना’ की उक्ति पूर्णत: सार्थक व सटीक है ।
कर्मयोद्धा बन उन्होंने गीता का जो पाठ इस समस्त मानव जाति को पढ़ाया वह युगों-युगों तक जीवन को सही दिशा की ओर अग्रसर करता है । आज कलयुग में मनुष्य की लालसा का कोई अंत नहीं है ।
आज जो कुछ भी हो रहा है वह कंस,दुर्योधन, शकुनि,जरासन्ध जैसी मनोवृत्तियों के विचारों में समाहित होने के फलस्वरूप ही तो है । कहीं सत्ता, कहीं गाड़ी-बंगले, नौकर-चाकर, कहीं बाह्य आकर्षण,कहीं दिखावा, कहीं गरीब कुचलता, कहीं भुखमरी, कहीं कोई कूड़ेदान से रोटी के टुकड़े बीनती लाचारी तो कहीं किसी बंगले के रसोईघर में बचा हुआ असीमित सड़ता अन्न जिसे चार-चार दिन बाद फेंक दिया जाता है !!
बस क्या यही कृष्ण के पर्व का महत्तव शेष रह गया इस धरा पर ?
प्रश्न उठता है हम मंदिरों में जा घंटे बजा – बजा अपनी आस्था ईश्वर के प्रति प्रगट करते हैं , झूमते हैं, नाचते हैं , श्री कृष्ण जन्मोत्सव को उल्लास के साथ, व्रत-पूजन विधिवत कर जीवन में सुख-शांति की प्रार्थना करते हैं। दूसरी तरफ़ अपने बुज़ुर्ग माता-पिता को ओल्ड एज होम छोड़ आते हैं ? अरे ! सोचिए मन के भीतर अपने कि कर्मयोगी कृष्ण का जन्मोत्सव कैसे सार्थक हो ? प्रतिवर्ष इस पर्व पर किसी एक अच्छे काम को करने का बीड़ा उठाइए और फिर देखना कि तुम्हें मंदिर की घंटी, ये व्रत- उपवास और तुम्हारी कृष्ण के प्रति आस्था में कितनी सच्चाई महसूस होगी। यदि ‘कर्म को ही कृष्ण मान लोगे तो इस पर्व का महत्तव तुम्हारे साथ- साथ सृष्टि की सुंदर रचना में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
इस धरा के हर प्राणी में कृष्ण विराजे हैं एक बार खुद की ओर पलकें झुकाकर देखो तो सही ।
भावना अरोड़ा ‘मिलन’
एडुकेशनिस्ट एवं मोटिवेशनल
स्पीकर, नई दिल्ली