समाज की शक्ति स्तम्भ नारियाँ: अरुणा त्रिवेदी

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देवी भागवत में है कि प्रलय के बाद व सृष्टि से पहले केवल देवी जगदम्बा का निर्गुण रूप ही था। फिर उनका सगुण रूप आया। अर्थात् सारी सृष्टि एक नारी से ही जन्म लेती है। नारी का स्थान बहुत ऊँचा है। देवी ने अपने स्वरूप से तीन देवियाँ बनाकर त्रिदेव को दी थी। देवी ने कहा था कि इनका आदर करना। इनकी सहायता से तुम तीनों सृष्टि, स्थिति व संहार का कार्य करो। यदि इनकी उपेक्षा करोगे तो ये तुम्हें छोड़कर वापस चली जायेगी। यही हुआ भी जब विष्णु व शिव ने उनकी अवहेलना की, तब वे उन्हें छोड़कर चली गई। जिससे वे दोनों शत्तिफ़हीन हो गए। पुनः देवी के आदेश पर ही उनकी शत्तिफ़याँ लौट कर आई। तभी वे अपने पूर्ण शत्तिफ़मय स्वरूप को प्राप्त हुए।

नारी शत्तिफ़ के लिये बस इतना ही कहना है कि भगवान भी जब राक्षसों को नष्ट करने में सफल न हो सके तब उन्होंने ‘‘शत्तिफ़’’ देवी को जन्म दिया। दुर्गा जी को सभी भगवान भी सर झुकाते हैं।

जब श्रंृगी ऋशि जिन्हें भृंगी ऋषि भी कहते हैं, शिव से मिलने आये थे उस समय उन्होंने कहा था कि मुझे अपने गणों में शामिल कर लीजिए। उस समय शिव ने उनसे कहा था कि मेरी परिक्रमा कर लो तब मैं तुम्हें अपने गणों में शामिल कर लँूगा। श्रंृगी ऋषि ने कहा था कि मैं शिव भत्तफ़ हँू। एक स्त्री की परिक्रमा नहीं करूँगा। उस समय उनको नारी की शत्तिफ़ का एहसास दिलाने के लिए शिव ने उनके शरीर से स्त्रीत्व को समाप्त कर दिया था जिससे वे एक चेतनाहीन मासपिन्ड की तरह रह गए थे। तब यह नारी के अस्तित्व की महिमा का रहस्य उनकी समझ में आया था। उस समय उन्होंने नारी के महत्व को पहचाना व स्वीकारा था।

भगवान ने स्त्री व पुरुष को बराबर की ही भूमिका दी है। स्त्री व पुरुश समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए के समान होते हैं। जब तब दोनों पहियों में हर दृश्टिकोण से समानता नहीं होगी गाड़ी सुचारु रूप से नहीं चल सकेगी। उसके बनाये संसार को चलाने के लिये यह दोनों स्तम्भ ही बराबर का स्तर रऽते हैं। बल्कि स्त्री को उन्होंने आत्म शत्तिफ़ व सहनशीलता ज्यादा ही दी है। नारी तो एक नई पीढ़ी को जन्म देती है फिर उससे पाये संस्कार से वही पीढ़ी अपना व समाज का विकास कर उन्नति करती है।

संसार समझता है कि भारत में स्त्रियों को उचित सम्मान नहीं मिलता है। पाश्चात्य सभ्यता में स्त्रियों काें समानता का स्थान प्राप्त है। परन्तु यह कहना उचित नहीं है। भारतीय समाज में भी स्त्रियों को समानता का अधिकार प्राप्त था। बल्कि कुछ ज्यादा ही महत्व नारियाें को मिलता था यह तो कुछ समय के लिए भारत में मुगल साम्राज्य आने के कारण उस समय की परिस्थितियों को देऽते हुए नारियों को पर्दे में रहना पड़ा। जो कि बाद में कुरीतियों की तरह समाज ने अपना लिया। अब पुनः समाज में नारियों को उनका उचित स्थान दिया जाने लगा है। आधुनिक समय में भारत में ये दोनों पहिये पुनः बराबर का स्थान प्राप्त कर समाज की गाड़ी को तेजी से उन्नति की ओर दौड़ा रहे हैं।

भारत में नारियों को दोहरी भूमिका निभाना आता है। अन्य देशों में पुरुश भी अपनी नौकरी के साथ घर में नारी के साथ घर की जिम्मेदारी निभाने में सहायता करते हैं। भारत में नारी ज्ञान प्राप्त कर विदुशी भी बनती थी व घर भी सम्भालती थी। परन्तु पुरुष केवल बाहर की भूमिका निभाते थे। अब भारत के पुरुशों ने भी विदेशों की तरह अपने परिवार में पत्नी का हाथ बंटाने की आवश्यकता समझकर हाथ बंटाना आरम्भ कर दिया है। 

डायमण्ड बुक्स द्वारा प्रकाशित बुक समाज की शक्ति स्तंभ नारियां (लेखक अरूणा त्रिवेदी) किताब बेहद सरल और आधुनिक भाषा में लिखी गई है। इस पुस्तक में जिन सभी नरियों का उल्लेख है उनके नाम इस प्रकार हैं- अनुसुइया, सुकन्या, शकुन्तला, कैकई, सीता, मन्दोदरी, तारा, उर्मिला, मांडवी, सत्यवती, अहिल्या, कुन्ती, गांधारी, द्रौपदी, हिडिम्बा, सावित्री, यशोधरा, अहिल्या बाई होल्कर, मणिकर्णिका और रानी दुर्गावतीआदि।

-लेखक परिचय-

अरुणा को अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही पढ़ने व नई चीजें सीऽने का शौक था। वे अपनी माँ के चरित्र से बहुत प्रभावित थी। उनकी माँ एक दृढ़ प्रतिज्ञ स्त्री थीं। उन्होंने अपने बच्चों का चरित्र निर्माण इस तरह से किया कि वे देश के एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें। वे उनके जीवन का आदर्श थी। उनके चरित्र से प्रभावित होकर उनसे मिली सीऽ व जानकारी को समाज तक पहुँचने के विचार से उन्होंने अपने जीवन को दूसरी पारी में लेिऽका होने के दायित्व निभाने में अपना समय लगाया। अरुणा का पुस्तक प्रेमी होना उन्हें उनके जीवन के लक्ष्य तक ले गया।

इसके कारण उन्हें धार्मिक, ऐतिहासिक व सामाजिक पुस्तकें पढ़ने से ऽोज करने की जिज्ञासा बढ़ी। फलस्वरूप इस क्षेत्र में आगे बढ़़कर उन्होंने पौराणिक पुस्तकें भी लिऽीं। वे अपने ग्रैन्ड चिल्ड्रन को रात्रि में कहानियाँ सुनाया करती थीं। उन्होंने अनुभव किया कि आज के एकल परिवार में बच्चों को बुजुर्गों का साथ न मिलने के कारण उनमें संस्कारों की कमी रह जाती है। उन्होंने बच्चों की इस कमी को पूरा करने के लिए लेऽन का सहारा लिया।

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