रंगीन कलेवर, सुंदर चित्रों से सजा, मन को सहज छू लेने वाली बाल कविताओं का अनोखा बाल कविता संग्रह है- निर्मल देश हमारा। कवि राजपाल सिंह गुलिया सेना शिक्षा कोर में शिक्षा अनुदेशक के पद पर रहे हैं। सरकारी विद्यालय में शिक्षक राजपाल जी का हृदय शिक्षक का हृदय है। वे बच्चों के करीब रहते हैं, उनकी कविताएं भी बच्चों के इर्द गिर्द ही रची गई हैं। 50 पेज के इस बाल कविता संग्रह में कुल 39 कविताओं को विभिन्न चित्रों के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस संग्रह की प्रत्येक कविता बच्चों का मनोरंजन करने में सक्षम है।
इस संग्रह में कुल उनतालीस बाल कविताओं का संग्रह किया गया है, जो इस प्रकार हैं- बंदर बना सिकंदर, बस्ता, भूखा बंदर, नादान कौआ, खेलें होली, दादा जी, मोटा चूहा, सर्दी आई, पानी, पंख दिला दो, मेरी विनती, दादी जी, चिड़ियाघर की सैर, कौन सवेरा लाया ?, पेड़ अगर जो, डॉगी की दुकान, आओ करें सफाई, मोटू फिसला, कंप्यूटर जी, वन में इंटरनेट, खाना खूब दवाई, बंदर चला बाजार, मेला, सूरज बाबा, बचपन, लोरी, बस्ते जी, हे गजराज, नाना जी का घर, नटखट लंगूर, बच्चा बन जाते हैं, चंदा मामा, मेघ, किससे पूछें ?, अगर न होते सबके कान, आई बूंदें, आन जगाते हो, नववर्ष का उन्माद और थैला लेकर भागा भालू। सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हैं।

राजपाल गुलिया बच्चों को ध्यान में रखकर मनोरंजन का खजाना चुनते हैं। उनके बाल कविता संग्रह ‘निर्मल देश हमारा’ की पहली कविता ‘बंदर बना सिकंदर’ सहज ही बालमन को गुदगुदाने वाली है। पंक्ति द्रष्टव्य है-
लालमुखी इक मोटा बंदर।
जंगल का वह बना सिकंदर।।
खुद को वह कहता था राजा।
फल भी खाता बिल्कुल ताजा।।
राजपाल गुलिया की बाल कविताएं बच्चों को सहज ही प्रभावित करने वाली हैं। बच्चों को खेल-खेल में संदेश देती प्रतीत होती हैं। बस्ते को लेकर एक सुंदर कविता का सृजन गुलिया जी ने किया है। इसकी एक बानगी देख सकते हैं –
सोहन, मोहन आओ सारे,
देखो मेरा थैला।
जेब कई हैं इसमें भैया,
रंग बहुत अलबेला।।
हम दोनों हैं मित्र निराले,
कभी करें ना कुट्टी।
दोनों ही आराम करें हम,
हो जिस दिन भी छुट्टी।।
बंदर बहुत शरारती होते हैं। बच्चे इनसे डरते हैं। बंदर घुड़की देकर सबको डराते हैं। लेकिन यहाँ बंदर कि एक अलग कहानी है, जो बच्चों गुदगुदाती है, पंक्ति देखें-
छत से उतरा बन्दर भूखा।
खाना था बस रूखा-सूखा।।
बन्दर जी का दिल ललचाया।
खाना खूब दबा कर खाया।।
लगा तड़फने कोई आओ।
पेट दर्द की दवा दिलाओ।।
हमारा हर त्योहार अपने आपमें अनोखा है। दीपावली पर दीप जलाकर घरों में उजाला किया जाता है, तो वहीं होली रंगों का त्योहार है। रंगों के पर्व पर बहुत कविताएं रची गई हैं। गुलिया जी ने जानवरों को लेकर बेहतरीन कविता का सृजन किया है। एक कविता देखें –
सभी जानवर मना रहे थे,
होली का त्योहार।
जंगल के राजा को उस दिन,
चढ़ गया तेज बुखार।।
बदपरहेजी से तो दादा,
बढ़ जाती बीमारी।।
रंगों से तुम बचकर रहना,
दुश्मन है पिचकारी।।
राजपाल गुलिया पेशे से शिक्षक हैं और कोमल हृदय से कवि हैं। वे जहाँ बच्चों के नटखटपन को लेकर प्रफुल्लित होते हैं, तो दूसरी ओर उनके फास्ट फूड की ओर झुकाव को लेकर चिंता भी व्यक्त करते हैं। बाल कविता ‘निर्मल देश हमारा’ में अपनी बात में वे स्वीकार करते हैं- “मेरा प्रौढ़ मन सदैव बाल लीलाओं से प्रभावित व प्रेरित रहा है। बालसाहित्य का क्षेत्र भी बालकों के लिए विषय सीमित नहीं है, बल्कि उनका भी साहित्यिक परिवेश प्रौढ़ साहित्य जितना ही व्यापक हैं ! परी कथा से कम्प्यूटर तक बच्चों की दुनिया फैली है। हमारे नौनिहाल ‘दूध की कटोरी’ से ‘फास्ट फूड’ तक की दूरी तय कर चुके हैं। हिन्दी में बालसाहित्य को समृद्ध व संवर्धित करने में चंदामामा, लोटपोट, बाल भारती, बालमन, बालप्रहरी व बच्चों का देश आदि पत्रिकाओं का श्लाघनीय व सराहनीय योगदान रहा है। जिसे भुलाया नहीं जा सकता।”
‘निर्मल देश हमारा’ बाल कविता संग्रह नाम रखने का कवि का उद्देश्य एकदम सटीक है। हमारा भारत देश रंग-रंगीला होने के साथ-साथ हर तरह से निर्मल है। यहां विभिन्न जाति-समुदायों के, विभिन्न बोलियों के लोग रहते हुए भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक भारत है। कल-कल करती बहती नदियों में नहाकर और उसका जल पीकर लोग अपने आपको तृप्त हुआ पाते हैं। इसलिए यह देश निर्मल है।
दादाजी बच्चों के सबसे प्रिय होते हैं। हो भी क्यों न, छोटी छोटी बातों पर बच्चों के पक्ष में खड़े होते हैं और सबसे अधिक लाड़ भी वही करते हैं। ऐसी ही मनभावन कविता गुलिया जी ने “दादा जी” कविता में लिखी है। पंक्ति देखें-
छड़ी उठाकर सुबह सवेरे,
निकल पड़े हैं दादा जी।
दौड़ लगाते कभी लॉन में,
कभी बैठते किसी ध्यान में।
हमें सुनाते रोज कहानी,
कभी नई तो कभी पुरानी,
किस्से गढ़ने में तो देखा,
कुशल बड़े हैं दादा जी।
चूहे घर में सजा-सजाया सामान थोड़ी सी देर में तहस-नहस कर देते हैं। आपने भले कितनी मेहनत से उसे सजाया हो। राजपाल गुलिया ने अपनी कल्पना से “मोटा चूहा” नामक कविता में उसकी कारगुजारियों पर विस्तार से बताया है-
दुबली बिल्ली मोटा चूहा,
लगता देख बिलौटा चूहा।
लगती है बिल्ली डरी हुई,
डर से है आधी मरी हुई,
पता नहीं ये क्या खाता है,
कल तक था ये छोटा चूहा।
जाड़े का मौसम सब जीवों के लिए कष्टकारी होता है। बच्चे, बड़े सभी रजाई से चिपके रहते हैं। बदलते मौसम के साथ कोहरा भी पड़ता है, जिससे कुछ भी दिखाई नहीं देता है। इस पर गुलिया जी की बड़ी सुंदर कविता है “सर्दी आई“।पंक्ति द्रष्टव्य है-
सर्दी आई, सर्दी आई।
पहने भारी एक लबादा,
चले सैर को देखो दादा।
जाड़े को भी दुश्मन समझो,
हमसे हरदम कहते दादा।
कितनी अच्छी लगे रजाई,
सर्दी आई, सर्दी आई।
पानी हर प्राणी की जरूरत है। पानी के बिना जीवन असंभव है। पानी की अपनी राम कहानी है। इसी को गुलिया जी अपनी “पानी” कविता में स्पष्ट करते हैं-
सुन लो बच्चो पानी कहता,
अपनी राम कहानी।
कभी गिरा मैं झरने से तो,
कभी नदी बन बहता,
कहीं बर्फ बन जम जाता तो,
कहीं उबलता रहता,
दाता ने किस्मत में कैसी,
लिख दी देख रवानी।
पानी संपूर्ण मानव जाति को प्यास को तो बुझाता ही है, हमेशा आगे बढ़ते जाने का भी अनोखा संदेह देता है। आग लगने पर तुरंत आग बुझाने का भी काम करता है। इसकी एक बानगी गुलिया जी की “पानी” कविता में देखें-
मुझसे भरते ताल तलैया,
मुझसे है हरियाली,
मेरे बिन प्यासे को देखो,
बनकर खड़ा सवाली,
पल में ठंडा किया अनल को,
जब भी भौहें तानी।
मेरी आदत बड़ी निराली,
आगे बढ़ता जाता,
मीठा होकर भी मैं खारे,
सागर में मिल जाता,
निशदिन तुम भी बढ़ते जाना,
गर हो मंजिल पानी।
आसमान में उड़ते पक्षियों को देखकर बच्चों के मन में भी उड़ने की जिज्ञासा होती है। वे भी चाहते हैं कि सुपर हीरो बनकर लोगों के कष्टों को दूर करें, दूर तक उड़ान भरें। ‘पंख दिला दो’ नामक कविता में बच्चे की इसी कल्पना को साकार रूप देने का प्रयास गुलिया जीने किया है-
पंख दिला दो चाचा जी अब,
छूटे ये भागा दौड़ी।
रंग-बिरंगे डैने ला दो,
देख-देख कर सब ललचाएँ,
मम्मी-पापा रहें खोजते,
दूर कहीं पर हम उड़ जाएँ,
पैसे दूँगा कभी बाद में,
आज नहीं फूटी कौड़ी।
जब भी परिवार अथवा अपनों पर कोई संकट या परेशानी आती है तो बच्चे भी भगवान से प्रार्थना करते हैं। अपने खेलने, पढ़ने के लिए भी प्रार्थना करते हैं। खेलना-कूदना बच्चों का प्रिय विषय है। “मेरी विनती” नामक कविता में बच्चे की इसी प्रयास को आवाज को देने का कार्य कवि ने किया है-
सुन लो मेरी विनती भगवन,
बना दो मुझको फिर बच्चा।
रोज करें हम धमा-चौकड़ी,
गलियों में हो अपना राज,
बरखा के ही इस पानी में,
फिर से चलें अपने जहाज,
आँगन में इक महल बनाऊँ,
चाहे भले हो वो कच्चा।
खेलना-कूदना और घूमना बच्चों का प्रिय शौक है। वे पढ़कर आगे बढ़ते हैं और अपने घर-परिवार, समाज का नाम रोशन तो करते ही हैं, वहीं खेलने और घूमने से उनके शारीरिक, बौद्धिकता का विकास होता है। राजपाल गुलिया ने “चिड़ियाघर की सैर” कविता में बच्चों के घूमने का सुंदर वर्णन किया है, पंक्ति द्रष्टव्य है-
आओ बच्चो साथ हमारे,
सैर करें चिड़ियाघर की।
सभी जानवर हैं पिंजरे में,
बात नहीं है अब डर की।।
शेर भरा गुस्से में देखो,
कहें इसे वनराज सभी,
उधर देख लो एक चिंघाड़ा,
मस्ती में गजराज अभी,
उधर देख लो रेंग रही है,
काली नागिन गजभर की।
बच्चों की दुनिया कोमल कल्पनाओं से भरी होती है। उनके सोचने का फलक विस्तृत होता है। “पेड़ अगर जो” कविता में गुलिया जी बच्चों की इसी कल्पना को उड़ान देते हैं-
पेड़ अगर जो चलते-फिरते,
अजब नजारा होता।
आज यहाँ, कल चले वहाँ पर,
खोजे कोई कहाँ-कहाँ पर,
वहीं खड़े ये मिल जाते सब,
मिलता पानी इन्हें जहाँ पर,
इनका एक ठिकाना फिर तो,
नदी किनारा होता।
बच्चों के चरित्र-निर्माण में साहित्य का विशेष योगदान रहा है। अतः बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने के लिए आवश्यक है कि उन्हें अच्छा बालसाहित्य उपलब्ध कराया जाए, जो बच्चों का मनोरजंन करने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक हो सके। सर्वविदित है कि बालसाहित्य बच्चों में सद्गुणों का विकास कर उनके लिए श्रेष्ठ मनुष्य होने का मार्ग प्रशस्त करता है। 48 पृष्ठ का यह बाल कविता संग्रह बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक है। संग्रह की ‘आओ करें सफाई’ कविता इस बात को स्पष्ट करती है-
बीच गली ये कचरा कैसा,
आओ करें सफाई।
मेरी गलियाँ विमल रहें अब,
सभी ठान लें मन में,
अब न फैले कहीं गंदगी,
भाव जगे हर जन में,
मक्खी-मच्छर पनप रहे हैं,
छिड़को तनिक दवाई।
बच्चों के लिए सृजन करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसमें सरल, सरस, सहज एवं बच्चों की समझ के अनुकूल शब्दों का प्रयोग किया जाए। इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए मुझे राजपाल सिंह गुलिया की कविताएँ बाल मनोविज्ञान के अनुकूल लगीं। संग्रह की ‘कंप्यूटर जी’ एक ऐसी ही कविता है, पंक्ति देखें-
सुनो मेरे कम्प्यूटर जी,
तुम हो मेरे ट्यूटर जी।
टीवी-सा है तन तुम्हारा,
मोबाइल-सा मन तुम्हारा,
पासवर्ड से ही तुम खुलते,
क्या कर लेगा चीटर जी।
नेटवर्क से जब जुड़ जाते,
बिना पंख के तुम उड़ जाते,
खोज-खबर फिर सारे जग की,
दिखलाता मानीटर जी।
वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रो. रामनिवास ‘मानव’ सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी, राजस्थान में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं। ‘निर्मल देश हमारा’ पुस्तक की समीक्षा उन्होंने ही लिखी है। वे राजपाल गुलिया की बाल कविताओं के संदर्भ में लिखते हैं- “विषय चाहे बस्ता, पानी, वर्षा, सूरज और चंदा जैसे पुराने हों या कंप्यूटर और इंटरनेट जैसे नये, सबका प्रस्तुतीकरण नया और आकर्षक है। बालरुचि और बाल-मनोविज्ञान का कवि ने विशेष ध्यान रखा है, तो दूध में चीनी की तरह मिलाकर संदेश भी दिया है। सभी कविताएँ गीतात्मक और बालोपयोगी हैं।”
‘वन में इंटरनेट’ कविता इंटरनेट की लोकप्रियता को दर्शाती है। आज मानव इंटरनेट का दास बनकर रहा गया है, व्यापारी वर्ग के अधिक्टर कार्य इसी इंटरनेट पर टिके हैं। इसी को केंद्र में रखकर राजपाल गुलिया ने सुंदर कविता लिखी है, पंक्ति द्रष्टव्य है-
सारे वन में चहल-पहल थी,
पशुओं में रोमाँच।
किया शेर ने ‘कहो’ नाम का,
एक पोर्टल लाँच।।
निर्भय होकर बात लिखे सब,
दर्ज करें ऐतराज।
दूर करेंगे गिला सभी का,
जंगल के महाराज।।
राजपाल गुलिया की बाल कविताएँ बच्चों को पसंद आती हैं। सरल-सुबोध भाषा में रचित और सुंदर चित्रों से सुसज्जित ये बालगीत बाल-पाठकों को पसंद आयेंगे, ऐसा विश्वास है। ‘मेला’ कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
चहल-पहल है आज गाँव में,
लगा हुआ है मेला।
बुला रही हैं सजी दुकानें,
ले लो खेल-खिलौने।
रेट फिक्स हैं सब चीजों के,
मिलें न औने-पौने,
घोड़े लेंगे चार-पांच हम,
खाली पड़ा तबेला।
यह सुखद है कि हर उम्र के बच्चों के लिए अनवरत रूप से साहित्य का सृजन हो रहा है। आज बच्चों के लिए प्रचुर संख्या में बाल साहित्य को पुस्तकें उपलब्ध हैं। विभिन विधाओं एवं विषयों की ये पुस्तकें बच्चों की अभिरुचियों को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं। राजपाल सिंह गुलिया द्वारा रचित ‘निर्मल देश हमारा’ संग्रह की ‘सूरज बाबा’ बच्चों को गुदगुदाती है-
सूरज बाबा रहम करो कुछ,
काहे उगल रहे हो आग।
बिना बुलाए ही आ जाते,
सबकी निंदिया दूर भगाते।
चंदामामा और सितारे,
दुम दबाकर भागे सारे।
पता नहीं ये पास आपके,
है कैसा जादुई चिराग।
राजपाल सिंह गुलिया बालमन की समझ रखने वाले साहित्यकार हैं। वे खुद सौम्य एवं सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। यही कारण है कि वे बच्चों के लिए मनभावन कविताओं का सृजन करते हैं। इनकी ‘बचपन’ कविता सबको बचपन में पहुँचा देती है-
बचपन था या सपना सलोना,
क्या भूलें क्या याद करें ?
माँ की वो मीठी-सी लोरी,
बुला नींद को लाती थी,
अपनी टोली ताल किनारे,
जमकर धूम मचाती थी,
घुमा हमें दो बिठा पीठ पर,
अब किससे फरियाद करें।
आज के बदलते सामाजिक परिवेश में बच्चे एकाकीपन के शिकार हो रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को बालसाहित्य उपलब्ध कराना बहुत आवश्यक है। बच्चे पुराने खेल भूलते जा रहे हैं, पंक्ति देखें-
कहीं खो गए गिल्ली-डंडा,
डूबी कागज की नैया,
छूट गए वे खेल-अखाड़े,
याद नहीं अब कोई दाँव,
सोच रहे हैं इन यादों को,
हम कैसे आबाद करें।
बच्चों को नाना-नानी का घर हमेशा अच्छा लगता है। वे वहाँ पर रहकर मटरगश्ती करते हैं, खेल खेलते हैं, नाना नानी से कहानी सुनते हैं। इसी की बानगी इस कविता में देखें-
हुई छुट्टियाँ मम्मी जी चल,
नाना जी के घर।
नहीं करेंगे हम शैतानी,
याद बहुत आती है नानी।
नाना जी की बात निराली,
गाते गीत बजाकर ताली।
झूठमूठ की मुझे डराते,
दिखे गर जो कहीं कुतवाली।
साथ रहे फिर नाना जी तो,
फिर हमको क्या डर।
राजपाल सिंह गुलिया की बाल कविताएँ बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उनका ज्ञानवर्धन करने में भी सहायक हैं। इनकी नए कथ्य की बाल कविताएँ हैं, जो बच्चों को आकर्षित करती हैं, उनमें उत्सुकता को बढ़ाती हैं। ‘अगर न होते सबके कान’ इनकी एक अलग तरह की नए कथ्य पर आधारित कविता है, पंक्ति देखें-
अगर न होते सबके कान,
कैसे लगते तब श्रीमान ?
ऐनक कैसे लोग लगाते,
मॉस्क देखकर भी घबराते,
कानों कान खबर न होती,
कान किसी के जब वे खाते,
कान ऐंठता कोई कैसे,
गलती करता जब इंसान।
इस संग्रह की अंतिम कविता है- ‘थैला लेकर भागा भालू’। इस संग्रह की यह बहुत ही अच्छी कविता है। बच्चे इसे सहज ही याद कर लेंगे। पंक्ति द्रष्टव्य है-
चला घूमने बंदर छैला,
मिला राह में उसको थैला,
थैले में थी भरी दवाई,
बना डॉक्टर बंदर भाई।
इक दिन की हम बात बताएँ,
बंदर की करतूत सुनाएँ,
सुबह सवेरे आया भालू,
लगता था घबराया भालू।
भेद बात का उसने खोला,
बंदर से हकलाते बोला।
वन में संकट आन पड़ा है,
शेर हुआ बीमार बड़ा है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि राजपाल गुलिया के बाल कविता संग्रह निर्मल देश हमारा की सभी बाल कविताएं बच्चों का मनोरंजन करने में सक्षम हैं और बाल साहित्य की कसौटी पर खरी उतरती हैं। कृति ‘निर्मल देश हमारा’ बाल मनोभावों को चित्रित करती कविताओं का एक अच्छा संग्रह है। आज के बदलते सामाजिक परिवेश में बच्चे एकाकीपन के शिकार हो रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में बच्चों को बालसाहित्य उपलब्ध कराना बहुत आवश्यक है। राजपाल सिंह गुलिया की यह कृति बच्चों का एकाकीपन दूर कर उन्हें एक सकारात्मक वातावरण प्रदान करने में समर्थ है। सभी बाल कविताएँ एक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती हैं और बच्चों के सामने वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। ये कविताएँ बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें जानकारियों से अद्यतन करेंगी। आशा है, राजपाल सिंह गुलिया भविष्य में बच्चों के लिए और भी उत्कृष्ट कृतियों का सृजन कर बाल साहित्य को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाएंगे।

वाह । आपने बहुत सुंदर व पुस्तक के प्रति जिज्ञासा बढ़ाने वाली समीक्षा की है , डॉक्टर सिरसवारी जी । आत्मीय आभार ।