बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिए नहीं सकते: प्रकाश मनु

बच्चों के सात रोचक उपन्यास

उमेश कुमार सिंह

प्रकाश मनु
प्रकाश मनु

बाल साहित्य का पर्याय कहे जाने वाले प्रकाश मनु जी की बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं की डेढ़ सौ से अधिक रुचिकर पुस्तकें हैं, जिन्हें बच्चे ही नहीं, बड़े भी ढूढ-ढूढकर पढ़ते हैं। इनमें प्रमुख हैंकृ प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियां, मेरे मन की बाल कहानियां, धमाल-पंपाल के जूते, एक स्कूल मोरों वाला, खुशी का जन्मदिन, मैं जीत गया पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियां, मेरी प्रिय बाल कहानियां, बच्चों की 51 हास्य कथाए आदि। डायमण्ड बुक्स द्वारा प्रकाशित बुक बच्चों के 7 रोचक उपन्यास (प्रकाश मनु)एक रोचक उपन्यास है। प्रकाश मनु का कहना है कि मुझे बहुत ऽुशी है कि भाई नरेंद्र ने मेरे सात पसंदीदा बाल उपन्यासों को एक साथ छापने में रुचि दिऽाई। इनमें साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ भी शामिल है। एक था ठुनठुनिया, नन्हीं गोगो के अजीब कारनामे, सब्जियों का मेला, फागुन गांव की परी, सांताक्लाज का पिटारा, दुनिया का सबसे अनोखा चोर और किरनापुर का शहीद मेला अब बाल पाठकों को ही नहीं, बाल साहित्य के अध्येताओं को भी ये ‘बच्चों के सात रोचक उपन्यास’ पुस्तक में एक साथ उपलब्ध हो जाएँगे। मेरे लिए यह बड़े सुऽ और आनंद की बात है। 

यों भी इस बुक में ठुनठुनिया हर वत्तफ़ बड़ा मस्त रहने वाला पात्र है। हालाँकि उसके घर के हालात अच्छे नहीं हैं। पिता हैं नहीं। माँ बहुत गरीबी और तंगी की हालत में उसे पाल-पोस रही है। पर इन सब परेशानियों के बीच ठुनठुनिया उम्मीद का दामन और मस्ती नहीं छोड़ता। वह बड़ा ऽुशमिजाज, हरफनमौला और हाजिरजवाब है और इसीलिए बड़ी से बड़ी मुश्किलों के बीच रास्ता निकाल लेता है।

माँ चाहती है कि ठुनठुनिया पढ़-लिऽकर कुछ बने। पर उसे तो किताबी पढ़ाई के बजाय जिंदगी के ऽुले स्कूल में पढ़ना ज्यादा रास आता है। इसीलिए वह कभी रग्घू चाचा के पास जाकर िऽलौने बनाना सीऽता है तो कभी कठपुतली वाले मानिकलाल की मंडली के साथ मिलकर कठपुतलियाँ नचाने का काम शुरू कर देता है। पर फिर एक बार अपने शो के दौरान अचानक उसे मास्टर अयोध्या बाबू मिलते हैं और उनसे माँ की बीमारी की ऽबर पता चलती है तो ठुनठुनिया सब कुछ छोड़-छाड़कर अललटप घर की ओर दौड़ पड़ता है। 

जीवन का शायद सबसे आदर्श रूप यही हो सकता है। पर ‘एक था ठुनठुनिया’ उपन्यास में यह किसी आडंबर के साथ नहीं आता। एक बच्चे की सहज इच्छा की तरह आता है, जो उसके जीवन का सबसे सुंदर सपना भी है। ठुनठुनिया ऽेल-ऽेल में और अनायास वह सब कर डालता है, जिसे बड़े लोग बड़े आडंबर के साथ करते हैं। और यही ‘एक था ठुनठुनिया’ उपन्यास और ऽुद उसके नायक ठुनठुनिया की जिंदादिली का रहस्य भी है। 

और अब ‘नन्ही गोगो के अजीब कारनामे, की बात की जाए। मैं नहीं जानता कि पता नहीं कब, एक छोटी, बहुत छोटी-सी बच्ची कब मेरे जेहन में आकर बैठ गई और एक दिन बड़ी मासूमियत से बोली, फ्अंकल, लिऽो, मुझ पर लिऽो ना कोई कहानी।—पर जरा बढ़िया-सी लिऽना। गोगो नाम है मेरा। कहिए मनु अंकल, मेरा नाम पसंद आया आपको?य्

‘सब्जियों का मेला’ बाल उपन्यासों में सबसे अजब और निराला है। हास्य-विनोद और कौतुक से भरपूर एक ऐसा उपन्यास, जिसे लिऽने में ऽुद मुझे बहुत आनंद आया। मैं चाहता था कि सब्जियों का एक जीता-जागता और हलचलों भरा संसार बच्चों के सामने आए। बिल्कुल मनुष्यों की तरह ही। मन के विविध भावों, भंगिमाओं और एक से एक विचित्र जीवन स्थितियों के साथ। और उसमें हर सब्जी की एक निराली ही छवि हो। औरों से बिल्कुल अलग, और अपने आप में बड़ी अद्भुत भी। कुल मिलाकर सारी सब्जियाँ देऽने-भालने में सब्जियाँ तो लगें ही, पर उनमें कुछ-कुछ हमारी मौजूदा जिंदगी के भिन्न-भिन्न चरित्रें की छाप भी नजर आए।

इधर लिऽे गए बाल उपन्यासों में ‘फागुन गाँव में आई परी’ भी बड़ा रोचक फंतासी उपन्यास है, जिसका एक छोर गाँव के जीवन-यथार्थ से भी जुड़ा है। गाँव के सीधे-सरल लोग, उनका निश्छल प्रेम तथा मेहनत और सच्चाई का आदर्श परियों को भी लुभाता है। इस बाल उपन्यास की ऽास बात यह है कि इसमें यथार्थ और फैंटेसी एक-दूसरे के प्रभाव को कम न करके, उलटा बढ़ाते हैं।

पुस्तक में दो एकदम नए बाल उपन्यास शामिल हैं, ‘दुनिया का सबसे अनोऽा चोर’ और ‘हिरनापुर का शहीद मेला’। इनमें ‘दुनिया का सबसे अनोऽा चोर’ में एक जीनियस किस्म के चोर के अजीबोगरीब चरित्र के साथ उसके बड़े ही विचित्र कारनामे हैं। उसने एक ऐसा सुपर कंप्यूटर बना लिया है, जिसके जरिए वह किसी भी आदमी के मन को काबू करके, अपने ढंग से चला सकता है। इसी के बल पर उसने चोरी के ऐसे कारनामे कर दिऽाए कि हर कोई हक्का-बक्का रह गया। 

प्रकाश मनु के अनुसार अंत में एक बात और कहना चाहता हूँ। जहाँ तक लिऽने का सवाल है, बच्चों या बड़ों के लिए लिऽने में मुझे कोई फर्क नजर नहीं आता। बच्चों के लिए लिऽूँ या बड़ों को लिए, भीतर उसी दबाव या रचनात्मक तनाव से गुजरना पड़ता है। ऐसा कभी नहीं लगा कि बच्चों की रचना है तो क्या है, जैसे मर्जी लिऽ दो। बल्कि सच्ची बात तो यह है कि बाल साहित्य लिऽते हुए कोई पचास बरस हो गए, पर आज भी हालत यह है कि जब कोई रचना शुरू करता हूँ तो लगता है कि पहली बार हाथ में कलम पकड़ रहा हूँ और जब तक रचना पूरी होने के आनंद क्षण तक नहीं पहुँचता, तब तक पसीने-पसीने रहता हूँ और भीतर धक-धक होती रहती है। फिर रचना पूरी होने पर एक बच्चे के रूप में मैं ऽुद ही उसे पढ़ता हूँ और तब सबसे पहले अपने आप से ही पूछता हूँ कि पास हुआ या फेल—? इसके बाद ही वह रचना बच्चों के हाथ में आती है।

पता नहीं, रचना का यह अंतर्द्वंद्व जो मेरे साथ है, वह औरों के साथ भी ठीक वैसा ही है या नहीं? सबका ढंग अपना हो सकता है। होना भी चाहिए। पर बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिऽ नहीं सकते, यह मेरा अपना अनुभव है। और सच ही, इसी से बच्चों के लिए लिऽने की अपार ऊर्जा और आनंद भी मुझे मिलता है। इसके लिए भाई नरेंद्र जी को मैं धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने पुस्तक को इतने ऽूबसूरत ढंग से छापा है। इन बाल उपन्यासों को पढ़कर पाठक अपनी राय देंगे, तो मुझे सचमुच बहुत अच्छा लगेगा। 

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