भोपाल: भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य को जीवंत रखने वाला महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रम, साहित्योत्सव जश्न-ए-अदब कल्चरल कारवां विरासत, मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 21 और 22 सितंबर को सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इस दो दिवसीय सांस्कृतिक समारोह का आयोजन ओल्ड रविन्द्र भवन ऑडिटोरियम, प्रोफेसर्स कॉलोनी, राजभवन रोड पर किया गया। इस कार्यक्रम में सभी के लिए प्रवेश निःशुल्क था।
संस्कृति मंत्रालय (भारत सरकार), पर्यटन मंत्रालय (भारत सरकार) और आयकर विभाग, भोपाल के सहयोग से आयोजित साहित्योत्सव में पूरे भारत के प्रतिष्ठित कलाकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और एक से बढ़कर एक कलात्मक प्रस्तुतियों के साथ दर्शकों का मन मोह लिया। दर्शकों ने कार्यक्रम में गज़ल, नाटक, मुशायरा एवं कवि सम्मेलन जैसे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भरपूर लुफ्त उठाया गया।
विद्या शाह द्वारा एक से बढ़कर एक दिल छू लेने वाली गजलें प्रस्तुत की गईं, जिनमें हमारी अटरिया पर आओ सांवरिया, रंगी गुलाबी चुनरिया रे और आज जाने की जिद न करो शामिल रही। इसके बाद साजन मिश्रा द्वारा राग का आयोजन किया गया। वहीं, ‘शाम-ए-गज़ल’ के दौरान पद्मश्री उस्ताद अहमद हुसैन और पद्मश्री उस्ताद मोहम्मद हुसैन ने अपनी खूबसूरत गज़लों से महफिल में चार चाँद लगा दिए।
डॉ. ओम निश्चल के नजरिए से पेश किया गया ’हिंदी भाषा के 75 वर्ष’ विशेष आकर्षण का केंद्र रहा, जिसके अंतर्गत उन्होंने बताया कि हमारी मातृभाषा आजादी के 75 वर्षों में कितने उतार चढ़ावों से गुजरी है। फिर, प्रोफेसर दानिश इकबाल द्वारा लिखित और अनिल शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक ‘कटघरे में ग़ालिब’ का मंचन हुआ।
इसके बाद ओटीटी और सिनेमा का भाषाई सरोकार आयोजित हुआ, जिसके अंतर्गत जानी मानी अदाकारा सुनीता रजवार ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। ये रिश्ता क्या कहलाता है, श्श्श्श… कोई है, सीआईडी और सावधान इंडिया जैसे शोज में एक से बढ़कर एक किरदार निभा चुकीं सुनीता ने ओटीटी और सिनेमा पर आने वाली कहानियों के बारे में बताते हुए कहा कि सिनेमा कभी भी गलत को प्रमोट नहीं करती है। वह आपको फिल्म के माध्यम से एक कहानी दिखाती है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कैसे लेते हैं। कोई भी कहानी आपको अपने मन में गलत धारणा बनाने को नहीं कहती। इसे आपको एक सीख के तौर पर लेना चाहिए कि यदि आप गलत करेंगे, तो स्वाभाविक सी बात है कि आपके साथ भी गलत ही होगा। और यदि आप सही करेंगे, तो बेशक आपके साथ भी सब कुछ सही ही होगा। अब यदि किसी गुंडागिर्दी संबंधी कहानी दिखाई जा रही है, तो गाली गलोंच का आना भी स्वाभाविक है। यदि आपको यह सब सही नहीं लगता, तो बेशक आपको इस तरह की कहानियां नहीं देखना चाहिए। बात रुचि की है। आपको जिस विषय में रुचि है, आप उस तरह की कहानियां देखें। अब यदि आप कहते हैं कि मिर्जापुर देखकर लोग बिगड़ रहे हैं, तो सिनेमा ने तो बागबान जैसी फिल्में भी दी हैं। आप इस फिल्म और उससे मिलने वाले संस्कारों को अपने भीतर क्यों नहीं उतारते हैं? क्यों आज के समय में माता पिता का वह स्थान नहीं बचा जो वास्तव में होना चाहिए? आप सिनेमा से यह सब क्यों नहीं सीखते? आप गलत के पीछे ही क्यों भागते हैं?