26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर विशेष-
– सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
प्रतिवर्ष 26 जनवरी को हमारा देश गणतंत्र दिवस के रूप में राष्ट्रीय पर्व मनाता है। इसलिये कि इस दिन स्वतंत्र भारत का संविधान लागू हुआ था। वैसे तो स्वतंत्रता का प्रतीक दिवस 15 अगस्त ही काफी था, परंतु वास्तविक अर्थो में अपने देश के संविधान एवं कानून द्वारा शासित होने पर ही आजादी का उपभोग किया जा सकता था। इसका तात्पर्य यह है कि 26 जनवरी 1950 के पूर्व तक हम आंशिक रुप से ब्रिटेन की गुलामी को ही भोग कर रहे थे। शायद इसीलिये न की संविधान में ये शब्द हैं:-
“हम भारत के लोग भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा इसके नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,विचार रखने तथा प्रकट करने, विश्वास, धर्म और पूजा की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समानता प्राप्त कराने तथा उन सब में व्यक्ति का मान और राष्ट्र की एकता निश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिये दृढ संकल्पित होकर…. इस संविधान को अपनाते हैं।”
संविधान के आरंभ में उल्लिखित इन पंक्तियों से स्पष्ट है, कि 15 अगस्त, 1947 के दिन मिली आजादी अधूरी थी। वास्तविक आजादी तो हमें 26 जनवरी, 1950 को ही मिली थी। अतः गणतंत्र दिवस का विशेष महत्व है। यही दिवस तो वास्तविक आजादी का प्रतीक है।
इस वर्ष हम गणतंत्रता की छिहत्तरवीं सालगिरह मना रहे हैं। आज से पचहत्तर साल पहले हमने विश्व के सबसे लंबे संघर्ष के बाद देश को विदेशी परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराया था, और साथ ही एक स्वावलंबी, स्वतंत्र एवं समझद भारत का सपना देखा था, जिसमें किसी की आंखों में पीड़ा, अभाव के आंसू न होंगे, विषमता असमानता की खाई न रहेगी, अन्याय शोषण के कुचक्र से सब मुक्त रहेंगे और अपने संपूर्ण स्वराज्य, पूर्ण स्वतंत्रता के आदर्श को साकार करेंगे। लेकिन स्वतंत्रता की आधी शताब्दी से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी देश आज जिस मोड़ पर खड़ा हैं उसकी तस्वीर कोई बहुत अच्छी नहीं है। अब राजनीति सेवा की बजाय स्वार्थसिद्धि एवं शोषण का पर्याय बनी हुई है। भ्रष्टाचार तो जैसे समूची व्यवस्था का ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है।
चारो ओर आर्थिक विषमता,जातीयता, अलगाववाद, सांप्रदायिक हिंसा,आतंकवाद एवं अराजकता का साम्राज्य फैल रहा है। उदारीकरण के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन एवं बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव ने पतन पराभव को परावलंबनता के शिकंजे को और कस दिया है। जनता की अधिकतम भागीदारी व हित सुरक्षा एवं कल्याण के उद्देश्य से अपनाई गई लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत हम कहने के लिये विश्व का सबसे बड़ा लोक तांत्रिक देश होने का गर्व कर सकते हैं, किंतु इसका बढ़ता हुआ आंतरिक खोखलापन यथार्थता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। छिहत्तर वर्षों में उपलब्धियों के नाम पर उद्योग, विज्ञान, कृषि वाणिज्य, कला, साहित्य, आदि विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों की तालिका बनाई जा सकती है, किंतु गहराई से देखने पर स्थिति मूल रूप से चिंतनीय एवं भयावह बनी हुई है।