भारत उत्सवों की भूमि है, त्योहारों की पावन धरा है। यह मंगल कार्यों की आधार पीठिका है और पर्वों की पुण्य प्रभा भी। उत्सव जीवंतता के प्रतीक हैं और उल्लास एवं उमंग के संवाहक भी। उत्सव, तीज-त्योहार और पर्वों का सतत आयोजन किसी समाज की सुख-समृद्धि का संकेत हैं और प्रगति एवं विकास का मानक भी। भारत वर्ष में चैत्र नवरात्रि से नव संवत् का आरम्भ होता है और फाल्गुन की पूर्णिमा से चैत्र के पहले पखवारे तक वर्ष के अवसान का समय होता है। वर्ष पर्यंत अनेकानेक उत्सवों का आयोजन और विश्व मंगल की कामना भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था की सुदीर्घ परम्परा का अनिवार्य घटक रहा है। फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका दहन और धुलेंढ़ी को रंग खेलना इस पर्व परम्परा में एक सुखद अनुभूति है। माघ मास की पंचमी से वसंत लोक का द्वार खटखटा सुवासित सौंदर्य की चादर धरती पर बिछा देता है। वसंत प्रेम की, मनुहार की ऋतु है। फागुन में बहती मलय बयार शुष्क मन को भी रससिक्त कर देती है।

तभी तो प्रकृति भी उल्लसित हो पुराने पल्लव त्याग नवल रूप धारण कर लेती है। वन-उपवन के नाना वृक्ष पुष्पों और फलों से लद जाते हैं, डालियां विनम्रता से झुक जाती हैं। औषधियां प्राणवान हो उठती हैं। फूलों पर मंडराते भ्रमर दल की गुंजार से लोकजीवन मानो सुमधुर संगीत की धारा में अवगाहन करने लगता है। निर्झर, सरिता एवं सरोवरों का जल निर्मल हो अमियमय हो जाता है। खेतों में फसलें खुशी से नर्तन करती हैं, और उन्हें देख-देख कृषक आह्लादित होते हैं। समाज जीवन में चतुर्दिक नवल सर्जना एवं सहकार के रंग बिखर जाते हैं। कह सकते हैं, रंग पर्व होली सामाजिक समरसता, समता, आत्मीयता और मधुरता का सत्व ग्रहण किए गांव-गांव, नगर-नगर मानो संदेश देती हो कि वाह्य विभेदों से परे होकर हम एकरस, एकरंग और एकात्म हो जायें। यह एक रंग है मानवता का, परस्पर विश्वास और बंधुत्व का और पारस्परिक समझ एवं साझेपन का।
होली सामाजिक प्रेम-सद्भाव, सौहार्द एवं सहकार का अपनी तरह का अनूठा पर्व है जिसमें धनी-निर्धन, जात-पात एवं भाषा-क्षेत्र के तमाम भेद तिरोहित हो जाते हैं। सभी एक साथ मिलकर फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका दहन करते हैं और अगले दिन धुलेंढ़ी को अबीर-गुलाल उड़ा एक-दूसरे पर रंग डालते हैं, गले मिलते हैं। बुंदेलखंड में होलिका दहन के लिए गाय के गोबर से बल्ले (वृत्ताकार चपटी पट्टी से कटोरे जैसे बनाकर बीच में छेद किया जाता है) बनाये जाते हैं। इनमें एक-एक चंद्रमा और सूरज के बल्ले भी होते हैं। सूखने पर मूंज की सुतली से गूंथ कर सामूहिक होलिका दहन स्थल पर शुभ मुहूर्त के पूर्व सभी अपने बल्लों की माला लेकर एकत्रित होते हैं। एक-एक माला एक-दूसरे से बदल लेते हैं, शेष मालाएं दहन हेतु इकट्ठी की गयी लकड़ी एवं उपलों के ढेर पर समर्पित कर दी जाती हैं।
मुहूर्त पर अग्नि प्रज्ज्वलित कर धधकती अग्नि की सभी परिक्रमा करते हैं। नवान्न गेहूं, जौ, चना आदि बांस के अग्रभाग में बांधकर भूनते और प्रसाद ग्रहण करते हैं। बाल्टी या किसी सुरक्षित पात्र में होली की आग घर लाकर घर में सजाई गयी होलिका का दहन करते हैं। घर में माताएं बेसन से परिवार के सभी सदस्यों का उबटन करके होलिका में आरोग्य प्रदान करने की कामना के साथ डाल देती हैं। इस अवसर राई-चोकर मुट्ठी में लेकर सभी के सिर के ऊपर से घुमाकर जलती होलिका में डालते जाते हैं जो चट्ट-चट्ट की आवाज के साथ जलता है। होली अग्नि की आराधना और साधना का पर्व भी है। इस आग को अंगीठी में सुरक्षित कर लेते हैं जो वर्ष पर्यंत चूल्हा जलाने में प्रयोग की जाती है। अंत में मंद आग में एक बड़े लोटा में जल रख देते हैं। सुबह सभी लोग स्नान करते समय लोटे का जल का थोड़ा-थोड़ा प्रयोग करते हैं। सुबह से रंग खेलना आरम्भ हो जाता है। होली के अवसर पर घरों में बेसन-मैदा और खोया से बने पकवान यथा पापड़, मठरी, नमकीन, सेव, खुरमा, खाजा, पूरी, गुझिया, रसगुल्ले आदि बनाये और खिलायें जाते हैं।
होली त्योहार मनाने से सम्बंधित अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कहानियां भी प्रचलित हैं और होली मनाने एवं रंग खेलने के अपने तरीके तथा परम्पराएं भी। किंतु एक कहानी जो सर्वत्र स्वीकृत और लोक जीवन में रची-बसी है, वह दैत्य राजा हिरणयकशिपु और उसके पुत्र प्रह्लाद से जुड़ी है। ग्रंथों में उल्लेख मिलता है, हिरण्यकशिपु और हिरणयाक्ष दो भाई थे जो अत्यंत बलशाली थे। एक बार हिरण्याक्ष पृथ्वी को लेकर अंतरिक्ष-सिंधु में छिप गया जिसे भगवान विष्णु के वराह अवतार ने मारकर पृथ्वी को मुक्त किया। दूसरे भाई हिरण्यकशिपु ने सत्ता शक्ति में मदांध हो स्वयं को ईश्वर के रूप में प्रजा द्वारा पूजा-आराधना करने हेतु विवश कर रखा था। यहां तक कि विष्णु भक्त अपने पुत्र बालक प्रह्लाद को भगवान विष्णु का पूजन बंद कर स्वयं की पूजा करने का सख्त आदेश दिया।
किंतु प्रह्लाद द्वारा मना करने से उसे मृत्युदंड दे अपनी बहिन होलिका, जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, को प्रह्लाद को गोद में लेकर धधकती अग्नि में बैठकर समाप्त करने की जिम्मेदारी दी। दैव योग से होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गये। पुत्र को स्वयं मारने हेतु उद्यत होने पर स्तम्भ से प्रकट होकर भगवान नृसिंह ने प्रह्लाद की प्राण रक्षा की। इस प्रकार अग्नि से प्रह्लाद के सकुशल बचने और होलिका के जल जाने के आनंद में प्रजा ने एक-दूसरे पर रंग डाले और खुशियां मनाई। तब से परम्परा में होलिका दहन करके और रंग-गुलाल उड़ाकर खुशी प्रकट की जाने लगी।
वैसे देखा जाये तो प्रतीक अर्थ में होलिका कटुता, कलुषता, विषमता, ईर्ष्या-द्वेष एवं अन्याय का प्रतीक है और प्रह्लाद आनंद, खुशी एवं उल्लास का। जब कटुता-कलुषता आदि बुराईयों का कूड़ा-कचरा और लकड़ियां जलाई जाती है तभी समाज में समता, प्रेम, मधुरता एवं न्याय का वातावरण तैयार होता है। होली के इस प्रेम, आत्मीयता-मधुरता भरे पावन पर्व पर हम परिवार, समाज एवं राष्ट्र की प्रगति के लिए तमाम बुराईयों, कुरीतियों एवं जड रूढ़ियों का दहन कर मानवीय मूल्यों के पोषक, सह-अस्तित्व का भाव सहेजे और सामूहिकता का राग साधे सतत अग्रसर समाज निर्माण का संकल्प लें, यही मंगल कामना करता हूं।
