
29 मार्च, 1857। कलकत्ता से 22 किमी दूर भारत की सबसे बड़ी और प्लासी युद्ध के बाद सन् 1765 में स्थापित पहली सैन्य छावनी बैरकपुर छावनी में ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल इंफेंट्री रेजीमेंट की 34वीं वाहिनी के सिपाही सुबह नियमित परेड के लिए मैदान में वर्दी पहने अपनी बंदूकों सहित तैयार खड़े हैं। नायक के आदेश पर परेड आरम्भ हुई। सिपाही कदम से कदम और हाथ से हाथ मिलाते हुए निश्चित सीमा तक परेड करते हुए आ-जा रहे हैं। सिपाहियों की गर्दनें तनी हुई और सिर ऊंचे हैं। पूरी देह में रक्त नसों में दौड़ रहा है। सिपाहियों के मुख मण्डल शौर्य एवं पराक्रम से दीप्तिमान हैं। किंतु आज सैनिकों का भाव और व्यवहार बिलकुल अलग सा है। लग रहा है कि जैसे उनके हृदयों में कुछ उबल रहा है। परेड को विश्राम दिया गया और सभी सिपाहियों को नये कारतूसों का वितरण शुरू हुआ। लेकिन यह क्या, एक सिपाही ने कारतूस लेने स्पष्ट मना कर दिया। वह बोला, ” इन कारतूसों में गाय एवं सुअर की चर्बी लगी है। हम इनका प्रयोग नहीं करेंगे, क्योंकि इससे हमारा धर्म भ्रष्ट होगा।” अन्य सिपाहियों ने भी साथ दिया। कारतूस वितरण करने वाले ने कड़क आवाज में पूछा, “तुम्हारा नाम-परिचय क्या है?” वह युवा सिपाही उच्च स्वर में बोला, “नाम मंगल पांडे। पिता दिवाकर पांडे, माता अभय रानी। जन्म तिथि 19 जुलाई, 1827 बलिया में। सेना में भर्ती सन् 1849 में।” इतना सुनकर कारतूस वितरण करने वाला अधिकारी काम बंद कर लेफ्टिनेंट बॉग के कक्ष की ओर बढ़ गया और सैनिक अपनी बैरकों की ओर।
हुगली नदी के सुरम्य प्राकृतिक तट पर स्थित ईस्ट इंडिया कम्पनी की बैरकपुर छावनी में उस दिन सुबह की इस घटना ने पूरे सैन्य अधिकारियों के कान खड़े कर दिए थे। समाधान हेतु उनमें विचार-विमर्श चल रहा था। इधर, सैनिक भी अपनी बैरकों में बैठे चर्बी वाले कारतूस प्रयोग न करने पर दृढ संकल्पित थे क्योंकि बंदूक की नली में कारतूस भरने से पहले उसका अगला सिरा दांत से काट बारूद नली में भरकर फिर कारतूस डालना होता था। गाय हिंदुओं के लिए पूज्या थी तो सुअर की चर्बी से मुस्लिम सैनिकों की भावना आहत थी। सैनिकों ने तय किया कि यदि अधिकारियों ने चर्बी वाले कारतूस प्रयोग करने का दबाव बनाया तो खुला विरोध करेंगे, बगावत होगी। मंगल पांडे के दिल-दिमाग में यह बात कुछ अधिक ही घर कर गई थी। उस शाम जब सूर्यदेव विश्राम हेतु पश्चिम के नील गगन के क्षितिज-पर्यंक पर गमन करने वाले थे, विहंग वृंद अपने नीड़ की ओर उड़ान भर रहा था, गायें रंभाती हुई बछड़ों को दुग्धपान कराने गोशाला की ओर दौड़ रही थीं, तभी उस गोधूलि बेला में मंगल पांडे भरी बंदूक लेकर बैरक से बाहर आया और साथी सिपाहियों को ललकारते हुए चर्बी युक्त कारतूस प्रयोग के विरोध हेतु बाहर निकलने का आह्वान किया। सिपाही बाहर आ गये। घटनाक्रम की खबर अंग्रेजों के वफादार किसी सैनिक द्वारा नमक-मिर्च लगाकर तुरंत लेफ्टिनेंट बॉग तक पहुंची। नाफरमानी को बगावत समझ लेफ्टिनेंट बॉग झटपट घोड़े पर सवार हो सिपाहियों की ओर बढ़ चला। शीघ्र ही पहुंचकर उसने देखा कि तीस वर्षीय सिपाही मंगल पांडे साथी सिपाहियों को कारतूस नहीं लेने के लिए मना कर रहा है, सिपाहियों में आक्रोश है। रोष से चेहरे तमतमा उठे हैं। लेफ्टिनेंट बॉग समझ गया कि यह तो खुला विद्रोह है, फिर भी अंदर से भयभीत उसने साहस बटोर कर आदेश दिया, “सिपाहियों ! बैरक में जाओ।” पर विरोध में एक साथ कई मुट्ठियां आकाश में तन गईं। बौखलाये बॉग की नजर नेतृत्व कर रहे सैनिक मंगल पांडे पर पड़ी और वह गरज कर बोला, “तुम अपनी बंदूक और वर्दी जमा करो।” आदेश का कोई असर होता न देख, वह मंगल पांडे को पकड़ने को बढ़ा। किंतु मंगल पांडे ने फायर कर दिया। बॉग बाल-बाल बच गया, किंतु गोली घोड़े के पैर पर लगी और सवार सहित घोड़ा धराशायी हो गया। बॉग खड़ा हुआ और सिपाहियों को मंगल पांडे को पकड़ने का हुक्म दिया पर एक भी सिपाही आगे नहीं बढ़ा। क्रोधित लेफ्टिनेंट बॉग ने तलवार निकाल मंगल पांडे पर प्रहार किया। बचाव में मंगल पांडे ने भी तलवार से जोरदार हमला किया, बॉग के सीने से लहू की धार बह निकली। तब तक मेजर ह्यूसन अंग्रेज सैनिकों के साथ पहुंच गया जिसका स्वागत मंगल पांडे की बंदूक से निकली गोली ने किया। अब मंगल पांडे की तलवार का मुकाबला एक साथ दो तलवारों से हो रहा था। लेफ्टिनेंट बॉग और मेजर ह्यूसन खून से लथपथ थे पर तलवारें भांज रहे थे, कि तभी मंगल पांडे ने उछलकर तलवार का जोरदार प्रहार किया किंतु अंग्रेजों के वफादार सैनिक शेख पलटू ने मंगल पांडे की कमर पकड़ ली। तब तक अन्य अंग्रेज सैनिकों का जत्था निकट आ पहुंचा। अपने को घिरा देख मंगल पांडे ने आत्म बलिदान हेतु स्वयं पर गोली मार ली, वह घायल होकर मां भारती की गोद में गिर पड़े। अंग्रेज सैनिकों ने मंगल पांडे को बंदी बना लिया और अस्पताल में भर्ती कराया गया। 6 अप्रैल, 1857 को कोर्टमार्शल हुआ और मंगल पांडे को मृत्युदंड दिया गया। फांसी की तारीख निश्चित की गई 18 अप्रैल। किंतु मेरठ, कानपुर , दिल्ली से आ रही बगावत की खबरों से परेशान अंग्रेजों ने तय तारीख से दस दिन पहले 8 अप्रैल, 1857 की प्रातः 5.30 बजे बैरकपुर छावनी में सिपाहियों के सामने घायल मंगल पांडे को फांसी पर चढ़ा दिया गया। उस दिन जब सूरज उगा तो अपनी किरणों का स्वर्णिम गुच्छ बलिदानी मंगल पांडे के चरणों में समर्पित कर अपनी श्रंद्धाजलि दी, जिसने भारत की स्वतंत्रता के लिए पहली गोली चलाई थी। मंगल पांडे को फांसी के बाद सामूहिक सजा के तौर पर पूरी 34वीं रेजीमेंट को भंग कर दिया गया
मंगल पांडे की स्मृति में भारत सरकार ने 5 अक्टूबर, 1984 को 50 पैसे का एक डाक टिकट जारी किया, जिसे कलाकार सी.आर.पाकरसी ने डिजाइन किया था। बैरकपुर में बना मंगल पांडे का ओजमय समाधि स्थल दर्शनार्थियों में देशभक्ति, त्याग एवं बलिदान का भाव भरते हुए देश के सर्वांगीण विकास का आह्वान कर रहा है।
