-25 दिसंबर क्रिसमस पर विशेष-
क्रिसमस ईसाई धर्म के प्रणेता यीशु के जन्म दिवस के अवसर पर मनाया जाने वाला उत्सव है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार यीशु का जन्म यहूदा प्रदेश के बैतलहम ग्राम में हुआ था। बाइबिल के अनुसार यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जो व्यक्ति आज से दो हजार अधिक साल पहले 25 दिसम्बर को पैदा हुआ माना जाता है, वह मृत्यु के बाद पुनः जी उठा था। इस महान आत्मा के जन्म के समय पूर्व देश के ज्योतिष शास्त्रियों ने एक अद्भुत अदभुत दीप्तिमान चलायमान तारा देखा था। कहा जाता है कि कई ज्योतिषी उस महान बालक को प्रणाम करने हेतु पहुँचे, पर सिर्फ तीन ज्योतिषी ही बालक के दर्शन कर सके, शेष कठिन मार्ग को पार न का सके और बीच में ही भटक गए। तीनो ज्योतिषियों ने शिशु यीशु को प्रणाम कर तीन वस्तु भेंट में चढाई सोना, लोभान, और गंध रस। ये तीनों वस्तु पवित्र राजकीय भेंट की प्रतीक हैं।
यीशु के जन्म के साथ ही आश्चर्य जनक घटनाएँ भी घटित हुई, अर्थात स्वर्गदूतों का गड़रियों को यह संदेश देना कि आज दाउद के नगर में तुम्हारे लिये एक उद्दारकर्ता का जन्म हुआ है। वही मसीह प्रभु है। और स्वर्ग का गीत गाना कि “आकाश में परमेश्वर की महिमा और पृथ्वी पर उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न हैं, शाँति व्याप्त हो।” फिर ज्योतिषियों का पूर्व से जाकर बालक को प्रणाम करना। यीशु के पैदाईश के कितने वर्षो पहिले नबीयों का मसीह के आने की बातें की गई की कि ईस्ट इजराइल में से आएगा, दाऊद के घराने और यहूदा के गोत्र में पैदा होगा, वह एक कुमारी से पैदा होगा और बैतलहम में पैदा होगा। साथ ही यह भी भविष्यवाणी की गई कि “तब बीज के टूट में से एक आखा कलवंत होगी।” यह बालक कौन होगा? बाट जोहने वालों के मन में यह दृढ विचार था कि यह अवश्य मसीह है। जो कि परमेश्वर की प्रतिज्ञा के अनुसार आने वाला था। उसकी विशेषता किसी को पूरी रीति से मालूम नहीं थी। ये भविष्यवाणियाँ यीशु खीस्ट में पूरी हुई।
जब यूहन्ना बपतिस्मा देने वना नदी के पास लोगों को बपतिस्मा देता था, उस समय यीशु ने भी उसके पास जाकर बपतिस्मा माँगा। उस समय ईश्वर ने आश्चर्यजनक रीति से प्रगट किया कि यह मेरा पुत्र है। पवित्र आत्मा श्वेत कबूतर के रूप में यीशु पर उतर कर उस पर ठहर गया। इस तरह मनुष्यों के सामने ईश्वर की छाप लगाई गई। पौलुस प्रेरित ने एक जगह लिखा है कि यीशु के जी उठने के कारण संसार को इसका निश्चय होता है कि वह परमेश्वर का पुत्र है। मृतकों में से जी उठने से उनका ईश्वरत्व लोगों पर निश्चय ही प्रगट हो गया।
यीशु जब बारह साल के थे तब उनके माता पिता उन्हें फसह का पर्व मनाने के लिये येरुशलम ले गये। इस त्यौहार को यहूदी बड़ी धूमधाम से मनाते है। त्यौहार मनाकर उसके माता पिता नागरत की ओर वापस काफिले के साथ थे, पर यीशु उनके साथ नहीं था एक दिन का पड़ाव निकल जाने के बाद जब उन लोगों ने यीशु को नहीं देखा तो वे पुनः येरुशलम आकर यीशु की तलाश करने लगे। तीन दिनों के पश्चात् उन्होंने यीशु को। मंदिर में धर्म गुरुओं के बीच बैठे हुये पाया, जो उनसे बात करते हुये अपनी जिज्ञासाएँ शाँत करने के लिये प्रश्न पूछ रहा था। उसकी बुद्धि पर पास बैठे सभी लोग काफी चकित थे। यही तीन दिन अल्पवयस्क यीशु के लिये महत्वपूर्ण साबित हुये, जब उन्हें आत्म ज्ञान हुआ कि उनके परमात्मा ने दुखियों का दुख दूर करने तथा पापियों को पुनः पाप कर्म न कर ईश्वर की और मन लगाने का ज्ञान देने हेतु भेजा है। उन्होंने विनम्र होकर अपने माता से कहा था आप मुझे यहाँ – वहाँ क्यों ढूंढ रहे हैं..? क्या आप नहीं जानते थे कि मुझे अपने पिता के घर में होना ही चाहिये।
यीशु का मानना था कि गॉड एक है जो प्रेम रूप में सभी इंसानों को प्यार करता हैं। व्यक्ति को क्रोध में आकर किसी से बदला लेने की बजाय क्षमाभाव का गुण रखना चाहिए, वे लोगों को स्वयं मसीहा, ईश्वर की संतान तथा स्वर्ग के द्वार बताते हैं।
यहूदी कट्टरपंथी यीशु को अपना दुश्मन मानते थे। वे इन्हें केवल पाखंडी समझते थे तथा उनके द्वारा स्वयं को ईश्वर का दूत कहना विरोधियों को सबसे बुरा लगा। इन कट्टरपंथियों ने मिलकर यीशु की शिकायत रोमन गवर्नर पिलातुस से की। इन लोगों को खुश करने के लिए पिलातुस ने ईसा को क्रूस पर मृत्यु की सजा दी।
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