तीर्थराज प्रयागराज में सतत प्रवाहित सदानीरा सुरसरि मां गंगा के अंचल में चमकती सिलेटी रेती में प्रत्येक वर्ष माघ महीने में पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक कल्पवास करने की प्राचीन परम्परा अद्यावधि गतिमान है। कल्पवास बारह वर्षों की एक अविराम सात्विक साधना है जो एक महाकुंभ से आरंभ होकर दूसरे महाकुंभ में पूर्ण होती है। कल्पवास के पूर्ण होने पर उद्यापन अंतर्गत श्रीमद्भागवत पुराण कथा श्रवण, तीर्थ पुरोहित को शैय्या दान एवं भंडारा करने का लोक विधान है। वास्तव में कल्पवास व्यक्ति द्वारा आत्म साक्षात्कार कर आध्यात्मिक मनीषा के उत्कर्ष का साधना पथ है, सात्विक वृत्तियों के जागरण का काल है। व्यष्टि से समष्टि की कल्याण-कामना की विशेष अनुभूति है, प्रतीति है।

कल्पवास व्यक्ति की सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना के परिष्कार की अंतर्यात्रा है, दैहिक संस्कार-शोधन एवं परिमार्जन की हितकारिणी विधा है। कल्पवास पुण्यार्जन की पुनीत कथा है तो संयमित जीवन जीने की कमनीय कला भी। सहकार एवं समन्वय दृष्टि का उन्मेष है, नवल सर्जना को आतुर-उत्कंठित अनिर्वचनीय आग है तो जड़-चेतन के प्रति आनंद, अभिनंदन एवं आत्मीयता का मधुर राग भी। कह सकते हैं, कल्पवास सुप्त मानव मन में दैवत्य जाग्रत कर साहचर्य एवं सायुज्यता का मृदुल सुवासित आगार है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता-आभार है।
पाठकों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि कल्पवास क्या है, कल्पवास करने के नियम क्या है, इस एक मास की अवधि में दिनचर्या क्या होती है? मैं इस समय महाकुंभ में कल्पवास कर रहा हूं। प्रस्तुत लेख में कल्पवास पर अनुभवजन्य विचार रखने का प्रयत्न करता हूं। कल्पवास का परम लक्ष्य मोक्ष की कामना है। कल्पवास करने से एक कल्प अर्थात् ब्रह्मा के एक दिन के बराबर तप एवं दान-दक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। हिंदू काल गणना में निमेष लघुतम तथा कल्प महत्तम इकाई है। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को मिलाकर चतुर्युग कहते हैं। 71 चतुर्युग से एक मन्वंतर बनता है, जिसका स्वामी मनु कहलाता है। 14 मन्वंतरों के योग से एक कल्प का समय निर्धारण होता है जो ब्रह्मा का एक दिन कहलाता है। वर्तमान में 7वां मन्वंतर वैवस्वत मनु चल रहा है। तो एक महीने कल्पवास करने से 14 मन्वंतरों में किए गये दान, जप, तप आदि के बराबर फल मिलता है और सभी पापों का क्षय हो जाता है।
कल्पवास करने और पुण्य फल प्राप्ति का यह शास्त्रीय पक्ष था। मुझे लगता है कि व्यक्ति के समाज जीवन के विविध घटकों को प्रभावित करने वाले पक्षों पर भी कल्पवास के आलोक में विवेचन समीचीन होगा। कल्पवास जहां व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना हेतु अंतर्मन का शोधन करता है वहीं आयुर्वेद की दृष्टि से विचार करें तो कल्पवास शरीर शोधन का भी अवसर बनता है। आयुर्वेद में देह को नवजीवन देने की प्रक्रिया को कल्प कहते हैं यथा कायाकल्प। इसके अंतर्गत रोगी को एक मास तक केवल दुग्ध, मट्ठा या शोधित पारद का उचित मात्रा में औषधि अनुपान के साथ सेवन कराया जाता है। पहले पन्द्रह दिनों तक शनै:-शनै: मात्रा बढ़ाई जाती है, तत्पश्चात क्रमशः कम की जाती है। एक महीने बाद शरीर नवल तेज, ओज, शक्ति एवं ऊर्जा ग्रहण कर लेता है। कायाकल्प व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक शक्ति में वृद्धि कर तंत्रिका तंत्र को नवजीवन देता है। कोशिकाओं के क्षय को विराम दे अंग-उपांगों की जीवनी शक्ति बढ़ाता है। मन-मस्तिष्क में शांति, धैर्य एवं निर्मलता का वास होता है। कल्पवास की अवधि में कल्पवासी निराहार रह केवल गंगाजल का पान करते हैं तो कुछ केवल दुग्धाहार। यह शरीर की आंतरिक शुद्धि में सहायक होता है।
कल्पवास कुम्भ या माघ मेले के दौरान ही होता है तो प्रत्येक कल्पवासी भारत की सामाजिक व्यवस्था एवं सांस्कृतिक समृद्धि के वैभव के विराट स्वरूप का दर्शन सहज ही कर लेता है। क्योंकि कुम्भ में सम्पूर्ण भारत वर्ष से विभिन्न समुदाय, पंथ, जाति, वर्ग, गिरि-काननवासी, बंजारे, किसान-मजदूर, विद्यार्थी-शिक्षक, नेता-अभिनेता, संत-महंत, महामंडलेश्वर-मठाधीश, नागा-सन्न्यासी, विरक्त-वैरागी-किन्नर, वैष्णव, शाक्त, अघोरी-अखाड़े आदि शामिल होते हैं। सभी की अपनी एक विशिष्ट पहचान है, वेशभूषा है, धर्म-पंथचर्या है। पर कुम्भ में आकर सभी एक पुष्पमाला में गुंथ जाते हैं। एक घाट पर ही धनी-निर्धन, ब्राह्मण-दलित, संन्यासी-गृहस्थ मिलकर मानवजनित भेदभावों से मुक्त होकर स्नान कर रहे हैं, मां गंगा का पूजन-अर्चन कर रहे हैं।
यहां सब एक हैं, दूसरा कोई है ही नहीं, ऐसे परम भाव के साथ आचरण-व्यवहार करते हुए परिवार एवं विश्व की मंगल कामना कर रहे हैं। विदेशी भक्त भी सहभागिता करते हैं। मेले में विभिन्न जातीय समूहों एवं वनवासी बंधु-भगिनी अपनी कला एवं संस्कृति का विभिन्न मंचों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। दिन-रात चल रहे भंडारों में तीर्थयात्री पूड़ी-सब्जी, खिचड़ी, हलुवा, लड्डू, बूंदी, कचौड़ी, दाल-भात, कढ़ी-राजमा, छोले, बाटी-चोखा, गुलाबजामुन, बालूशाही से तृप्त हो रहे हैं। चाय-टोस्ट से थकान मिटा रहे हैं। घर-गृहस्थी की दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं से लेकर शोभाकारी सामान विक्रय की दूकानें तीर्थयात्रियों का मन मोह रही हैं। संतों के पांडालों में कथा-भागवत चल रहा है। तो एक कल्पवासी ये सब देखते-सुनते स्वयं को समृद्ध करते हुए धन्य महसूस करता है।
एक कल्पवासी की दिनचर्या साधना एवं तपश्चर्या की होती है। ब्रह्ममुहूर्त में जागरण, दिन में तीन बार गंगा स्नान, केवल एक बार भोजन, सायंकल फलाहार करना, अपने आवासीय तम्बू के द्वार पर जौ बोना तथा तुलसी माता का नियमित पूजन करना। जप, श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीरामचरितमानस का नित्य पाठ, भूमि पर शयन। कल्पवासी का आरम्भ और अंत में क्षौर-कर्म आवश्यक है। अपराह्न में रुचि अनुसार संतों का दर्शन एवं कथा श्रवण करना और संध्याकाल में दीप-आरती कर भगवन्नाम स्मरण करते हुए शयन करना।
इस अवधि में सरसों का तेल, अरहर की दाल, लहसुन-प्याज, मूली-गाजर, बैंगन का उपयोग निषेध है। माघ पूर्णिमा के दिन जौ से उपजे जवारे लेकर गंगा घाट पर सिराना, 365 बाती बना तिल के तेल में भिंगो एक साथ दीपक तैयार कर आरती-पूजन के साथ मां गंगा से मनोकामना पूर्ति हेतु प्रार्थना और मास पर्यंत हुई त्रुटियों के लिए क्षमा याचना की जाती है। घर जाने से पहले अपने तम्बू में एक स्थान लीपकर घी का दीप जला शीश नवा अगले वर्ष पुनः आने की भावना के साथ अपने तीर्थ पुरोहित पंडा जी को यथेष्ट धन-धान्य अर्पित कर प्रस्थान करते हैं। निश्चित रूप से कल्पवासी एक महीने पश्चात् स्वयं में आशातीत बदलाव महसूस करता है। कल्पवास की यह परम्परा सामाजिक सद्भाव एवं सौहार्द के सौंदर्य में वृद्धि करती रहेगी, यही मंगल कामना है।

शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)