पतित पावनी नर्मदा के के दर्शन मात्र से सारे पाप धुल जाते 

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नर्मदा, काल की अनवरत गति के समान ही युगों से बहती चली आ रही है। नर्मदा सदियों पुरानी गंगा से भी पहले से पतितों को पावन करती बहती नदी है। कभी वह अपनी सरल तरल लहरों और कभी गर्जन भरी तरंगों से पार्श्वभूमि को प्लावित तथा उर्वर बनाती हुई, वनो, मैदानों एवं कुंज के अंतराल से यात्रा करती हुई अपने गंतव्य की ओर बढ़ती जाती है। नदियों का और इंसानों का रिश्ता बहुत पुराना रहा है। इंसानी सभ्यताएं नदियों और उसके किनारों पर ही परवान चढ़ी है। चाहे वह सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिसीपिपी की सभ्यता अथवा नीलघाटी की सभ्यताः मानव की आदिम स्मृतियों से लेकर आज तक नदियां किसी न किसी रुप में जीवन से मिलती, उसे प्रभावित करती रही है। ठीक वैसे ही नर्मदा मध्य प्रदेश की जीवनदायी व स्थानीय लोगों की प्यास बुझाती सदियों से मानव को अपना ऋणी बनाती आ रही है।

‌अनूपपुर(मध्यप्रदेश) जिले और गौरेला पेंड्रा मरवाही( छत्तीसगढ़) जिले की सीमारेखा के पास स्थित अमरकंटक से 3468 फुट की ऊंचाई से निकलती हुई नदी 669 मील तक मध्यप्रदेश के मंडला जबलपुर. नरसिंहपुर, होशंगाबाद , खंडवा तथा खरगौन जिलों से होकर बहती है। नर्मदा 21 मील तक मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच और बाद में 25 मील तक महाराष्ट्र तथा गुजरात की सीमाएं बनाती है। और खम्भात की खाड़ी में गिरने के पहले लगभग सौ मील गुजरात में बहती है। मध्यप्रदेश के लगभग 90 लाख से अधिक निवासी मुख्य नर्मदा नदी के 669 मील तथा उसकी सहायक नदियों के 1200 मील लंबे किनारों पर बसे हुये है। नर्मदा का कुल जलसंग्रह क्षेत्र 37610 वर्ग मील है, जिसमें से 88.2 प्रतिशत क्षेत्र मध्यप्रदेश में, 1.7 प्रतिशत  क्षेत्र महाराष्ट्र में तथा 10.1 प्रतिशत क्षेनत्र गुजरात में है। ‌नर्मदा का मूल नाम “मेकलसुता” मैकल कन्यका वा मेकला दिजा था।

भारत की कतिपय नदियों के नाम उनके उदगम स्थल पर्वतों की पुत्रियों के रुप में रखे गये है। तभी तो मैकल पर्वत से निकलने के कारण नर्मदा का उक्त नाम पड़ा।  गंगा का नाम हिमालय पर्वत से निकलने के कारण हिमकन्या, कंक पर्वत से निकली महानदी का नाम कंक नंदिनी पड़ा। कालांतर में नर्मदा का नाम  मेकलसुता का विस्मृत होकर रेवा का नाम चल पड़ा । सूयवंशी राजा इक्वाच्छू के प्रपौत्र रेव नामक राजकुमार की पुण्य स्मृति में उपयुक्त नाम प्रचलित हुआ। वेदों में नर्मदा का उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह है कि वैदिक आर्य नर्मदा तक नहीं पहुंच पाये थे, परंतु महाभारत और मत्स्य, पदम कूर्मा, अग्नि,ब्रम्हांड़ तथा स्कंद पुराण में उसका बार-बार उल्लेख आया है। स्कंद पुराण में तो नर्मदा की महिमा पर एक खण्ड ही समर्पित है। कालिदास ने भी नर्मदा का उल्लेख रघुवंश और मेघदूत में किया है।

गंगेद्य यमुने चैव। गोदावरि सरस्वति,
नर्मदा, सिंधु, कावेरी
जलेस्मिन, सन्निधि कुरु ।।

स्कंद पुराण में नर्मदा के अवतरण की अनेक कथाएं है। पहला अवतरण आदिकल्प के सतयुग में हुआ। दूसरा अवतरण राजा हिरण्वतेजा के तप से हुआ, इसकी कथा निम्न है:- एक समय सूर्यग्रहण पड़ा। उस समय जम्बूदीप (भारत) में कोई नदी नहीं थी। राजा ने लाखो गौए, सोना, हीरे जवाहरात, घोडे हाथी आदि का दान किया, उन्होने देखा कि पितरों को जलपान का कष्ट है। पितरों ने कहा कि नदी के अभाव में न देवता तृप्त होते हैं न पितर। यदि नर्मदा इस द्वीप में उतर आये तो हम सबकी मुक्ति हो जावेगी। यह सुनकर राजा हिरण्यतेजा उदयांचल पर्वत गये और शिव की उपासना करने लगे। उनके कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए। उनहोंने वर मांगने को कहा, हिरण्यतेजा ने कहा पितरों के उद्धार के लिये नर्मदा देवी का पृथ्वी पर अवतरण आवश्यक है। शिव ने कहा कि नर्मदा को कोई पृथ्वी पर नहीं उतार सकता तुम कोई दूसरा वर मांग लो। तब राजा ने कहा- प्रभु आपके प्रसन्न होने पर कुछ भी असाध्य नहीं है।

मुझे नर्मदा जी को ही दीजिये। राजा का दृढ़ निश्चय देख शिवजी ने नर्मदा को बुलाया और पृथ्वी पर  उतरने का आदेश दिया, नर्मदा बोली- देव मैं बिना किसी आधार के जम्बूद्वीप कैसे जाऊंगी? जब अन्य पर्वतों ने नर्मदा को धारण करने में असमर्थता व्यक्त कर दी तब उदयाचल ने कहा- मैं नर्मदा को धारण करने में समर्थ हूं। इसलिए नर्मदा उदयांचल की चोटी पर चरण देकर आकाश से पृथ्वी पर आई और वायु के वेग से पश्चिम दिशा में बह चली। उन्होनें राजा के पितरों का उद्धार कर दिया। अन्य करने कथाएं इस प्रकार है: एक बार ब्राम्हणों ने महाराज  पुरूत्वा से कहा कि महाराज नर्मदा संपूर्ण विश्व का पाप हरण करने में समर्थ है। उन्हें स्वर्गलोक से आप पृथ्वी पर उतारें। यह सुनकर चंद्रवंशीय चकवती राजा पुरुत्वा ने घोर तप किया शंकर जी प्रसन्न हुये। उन्होनें वर मांगने को कहा, पुरुत्वा का निवेदन स्वीकार कर महादेव शंकर ने नर्मदा को पृथ्वी पर उतारा।

अन्य दूसरी कथा के अनुसार कहते हैं एक बार जब शिवजी तपस्या कर रहे थे तो उनके शरीर से पसीने की धार फूट पड़ी। पसीना एक कुंड में जमा होता रहा। इसी से नर्मदा‌ निकली। यह भी कहा गया है कि ब्रम्हाजी की आंख से, दो आंसू गिरे उनमें से एक आंसू से नर्मदा और दूसरे से सोनभद्र प्रवाहित हुए। नर्मदा के नामकरण के पीछे भी एक कथा है: कहते है इसकी उत्पत्ति एक सुंदर स्त्री के रुप में हुई देवता उस पर मोहित हो गये। शिवजी आसक्त देवताओं को देखकर हंसे और इसका नाम नर्मदा “नर्म” याने सुख. “दा” दाने देनेवाली रख दिया वैसे इसे, शिवतनहम रुद्रदेहा, शिव कण्डोदरी, इन्दुजा, जटाशंकरी मां, गौतमी, शिवसुता, पश्चिम वाहिनी गंगा आदि भी नामों से पुकारा गया है।

नर्मदा को गंगा से भी अधिक पवित्र और फलदायिनी माना गया है। स्कंद पुराण में इसके बारे में एक कथा है। नर्मदा की तपस्या पर शंकर जी ने प्रसन्न होकर वर दिया- “तुम्हारे तट पर जितने पाषाण खण्ड हैं वे सब शिवलिंग के समान हो जायेंगे। यमुना सात दिनों तक स्नान करते ही पापों का नाश करती है। परंतु तुम्हारे दर्शन मात्र से मनुष्य पाप मुक्त हो जावेगें।

नर्मदा के कंकर,
उत्ते शंकर त्रिभिः
सारवतं तापं सप्ताहेन सु यामुनम् सद्यः पुनाति गाग्डेय,
दर्शनादेव नार्मदम्

पुराणों के अनुसार चार नदियां भारत में सबसे अधिक पवित्र मानी गई है। ये है- यमुना, गंगा, सरस्वती, और नर्मदा। इनको वेद का रुप माना गया है। गंगा को ऋग्वेद, यमुना को यजुर्वेद, सरस्वती को अर्थवेद और नर्मदा को सामवेद का रुप मानते है।

महाभारत तथा कतिपय पुराणों में नर्मदा को  दूस्वाकू वंश के अनेक राजाओं की पत्नी के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। जो विवादास्पद है। कहते हैं पुरुकन्स से लगभग ग्यारह पीढ़ी पहिले दूस्वाकु वंश में ही दुर्योधन नामक एक अत्यंत पराक्रमी, मधुरभाषी एवं वेद-वेदांगों में पारंगत राजा हुआ, जिसके साथ पुण्य शीला, शीतल जलमयी देवनदी नर्मदा का विवाह सम्पन्न हुआ-

दुर्योधनों नाम महान् राजा
राजर्षिसत्तामः ।
नं नर्मदा देवनदी पुण्यों शीतंजला शिवा
चकमें पुरुष व्याधं स्वेन भावेन 
भारत।।

एक कथा है कि नदियों में श्रेष्ठ नर्मदा पुरुकुत्स की पत्नी थी।अन्य विवरण में कहा गया है-

पुरुकुत्सों नृपः सिद्धि महतीं समवाप्तवान्
भार्या समभवद् यस्य नर्मदा सरितां वरा

एक जनश्रुति है कि नर्मदा का विवाह सोनभद्र नदी के साथ निश्चित हो गया था, पर किसी अन्य स्त्री के साथ सोनभद्र के प्रेम संबंध का पता चला तो नर्मदा ने विवाह करने से इंकार कर दिया और यही कारण ,बताया जाता है कि दोनों विपरित दिशाओं में प्रवाहित होते हैं। हिन्दुओं की अनेक धार्मिक आस्थाओं में अन्यतम आस्था यह है कि नर्मदा की परिक्रमा करने से व्यक्ति पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।

 ‌‌नर्मदा के तट पर तीर्थों और दर्शनीय स्थानों का अंबार है। इनमें सबसे पहला है अमरकंटक। महाकवि कालिदास ने इसे आम्रकूट कहा है। संदेशवाहक मेघ से कालिदास कहते है:- “जब तुम, मूसलाधार पानी बरसाकर म्रकूट पहाड़ के जंगलों की आग बुझाओगे तो वह तुम्हारा उपकार मानकर और तुम्हें थका हुआ समझकर आदर के साथ अपनी चोटी पर ठहरायेगा। अमरकंटक के निकट ही नर्मदा माई का उद्‌गम है। वहां स्थित नर्मदा कुंड मे देवी अहिल्याबाई भोंसले व राजा और कलचुरियों के बनाये मंदिर है। आगे कपिल “धारा और दुधधारा नामक दो प्रपात हैं। कहते है कपिल ऋषि ने यहां तपस्या की थी. इसलिये इसका नाम कपिलधारा पड़ा। अमरकंटक, पावन तीर्थ स्थली एवं तपस्थली के रूप में विश्व विख्यात है। 

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