-नस्लवाद के खिलाफ़ उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस – 21 मार्च, 2025-
नस्लवाद केवल कुछ लोगों के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि पूरे समाज को खोखला कर देता है। यह न केवल विभाजन और अविश्वास को जन्म देता है, बल्कि घृणा और असहिष्णुता का जहर भी घोलता है। नस्लवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ कुछ लोगों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हम सभी की साझा जिम्मेदारी है। एक ऐसे विश्व की कल्पना करें जहाँ नस्ल, जाति, धर्म, भाषा और रंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो – यही वह दुनिया है जिसे हमें मिलकर बनाना है। इसी उद्देश्य से हर साल 21 मार्च को नस्लवाद के खिलाफ उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह दिन हमें 1960 के दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले नरसंहार के पीड़ितों को याद करने और नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष को तेज करने की प्रेरणा देता है।

नस्लवाद: एक वैश्विक समस्या
नस्लीय भेदभाव किसी व्यक्ति की त्वचा के रंग, जातीय मूल, या जन्म के आधार पर किया गया अन्याय है। यह लोगों को समान अवसरों से वंचित करता है और उन्हें अपमानित करता है। यह केवल किसी एक देश की समस्या नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया इससे ग्रसित है। 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने संकल्प 2106 (एक्सएक्स) को अपनाकर ‘सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ को लागू किया, जो नस्लवाद के खिलाफ वैश्विक प्रयासों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। इस वर्ष इस संधि की 60वीं वर्षगांठ है, जो नस्लीय भेदभाव के खिलाफ हमारी प्रतिबद्धता को फिर से मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण अवसर है।
भारत में नस्लवाद: चुनौतियाँ और प्रयास
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत में एक समतामूलक और भेदभावमुक्त समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि नस्लवाद किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। लेकिन यह भी सच है कि आज भी हमारे समाज में पूर्वाग्रह और असहिष्णुता की गहरी जड़ें हैं। विशेष रूप से पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नस्लीय भेदभाव और अपराधों का सामना करना पड़ता है। राजधानी दिल्ली समेत कई महानगरों में पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ हिंसा, हत्या, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध, नस्लीय टिप्पणियाँ और साइबर उत्पीड़न जैसी घटनाएँ बढ़ रही हैं। यह स्थिति भारत की विविधता और समावेशी संस्कृति के लिए एक गंभीर खतरा है।
नस्लवाद के उन्मूलन के लिए आवश्यक कदम
तेजी से बढ़ती नस्लीय हिंसा और भेदभाव को रोकने के लिए प्रतीक्षा नहीं, एक ठोस प्रक्रिया आवश्यक है। आज भारत में भेदभाव की मानसिकता तेजी से फल-फूल रही है, जिससे समाज में प्रेम, भाईचारा और सौहार्द कमजोर हो रहा है। आधुनिक समाज की पहचान यह होनी चाहिए कि वह सभी जातियों, नस्लों और धर्मों को समान रूप से स्वीकार करे। दुर्भाग्यवश, राजनीतिक स्वार्थ और पूर्वाग्रहों के कारण हम इस दिशा में वांछित सफलता हासिल नहीं कर पा रहे हैं।
तकनीक और विज्ञान आगे बढ़े, पर इंसानियत पीछे छूट गई?
हम चंद्रमा और मंगल तक पहुंच चुके हैं, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और रोबोटिक्स से अपनी समस्याओं का समाधान निकाल रहे हैं, लेकिन इंसान-इंसान के बीच के भेदभाव को मिटाने में अब भी असफल हैं। नस्लीय, जातीय, लैंगिक और भाषाई भेदभाव समाज को कमजोर कर रहे हैं। इससे न केवल अल्पसंख्यक समुदाय प्रभावित होते हैं, बल्कि पूरी मानवता का विकास बाधित होता है। जब तक हम सभी को समान अधिकार और सम्मान नहीं देंगे, तब तक एक न्यायसंगत समाज की कल्पना करना असंभव है।
नई सोच, नया भारत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज़ादी के अमृतकाल 2047 तक एक नया, विकसित और सशक्त भारत बनाने का संकल्प लिया है। इसके तहत भारत में जातिवाद, छूआछूत और भेदभाव की बुराइयों को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। भेदभाव की दीवारों को गिराने का यही सही समय है।
समाज को एक नई दिशा देने का संकल्प लें
इस नस्लवाद के खिलाफ उन्मूलन के अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर हम सभी को संकल्प लेना चाहिए कि नस्ल, जाति, भाषा, रंग, धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव को बढ़ावा नहीं देंगे। हमें एकजुट होकर नस्लवाद के खिलाफ आवाज उठानी होगी और ऐसी दुनिया बनानी होगी जहाँ सभी को समान अवसर और सम्मान मिले। आइए, नफरत नहीं, प्रेम और सौहार्द को अपनाएँ और एक बेहतर समाज का निर्माण करें।