अरपा का जीवनदान

-आपबीती-

इस घटना को बताने के पूर्व मैं अरपा नदी जिसे हम श्रद्धा से अरपा मैया के नाम से बुलाते हैं इस पर ‌कुछ बात‌ करना जरूरी‌ समझता हूं। अरपा वैसे तो मेरे घर के बहुत पास से ही बहती हुई आगे की ओर निकलती है। मैंने होश संभालते ही अरपा नदी के ममत्वभरे आंचल को देखा समझा है, और इसे बड़ी शिद्दत से महसूस भी किया है। अरपा नदी की खासियत तो हम शहर वासियों के नजरों में ऐसी है कि जिसकी कोई उपमा‌ नहीं‌ दी जा सकती है। ये शहर के बीच से बहती हुई निकलती है पूरे बिलासपुर शहर को बीचो-बीच दो भागों में बांट देती है, तो स्वाभाविक है यह शहर के लोगों की प्यास तो बुझाती ही है, साथ ही साथ अपने किनारो पर रहने वाले अन्य गांव बस्तियों की भी प्यास इसी नदी से बुझती है।अरपा के कारण ही इस क्षेत्र की भूमि उर्वर और हरीभरी है। कृषि सब्जी उपज का भरपूर उत्पादन इस नदी की ही कृपा है। 

बिलासपुर शहर और मां बिलासा जिनके नाम पर शहर बसा है, और अरपा नदी यह तीनों एक दूसरे के अटूट पर्याय हैं। अगर आप तीनों में से एक का नाम लेगें तो समझ लीजिए की हर हाल में इन तीनों की भूमिका का वर्णन आवश्यक रूप से आएगा। वैसे अरपा नदी का मेरे अपने जीवन के लिए तो विशेष अविस्मरणीय स्थान है और रहेगा।मेरा बचपन अरपा के रेतीले चादरों के बीच, इसके घाटों में ऐसे गुजरा है जैसे घर का आंगन। अरपा की वह उत्ताल बलखाती तरंगे उछाल मारती मस्त और खिलंदड़ी लहरों की निर्मलता के बीच अल्हड़ बचपन मस्ती और निश्चिंतता के साथ कैसे बीता..कब बीता..पता ही नहीं चला। 

 खास करके  जब अरपा नदी में गर्मियों के समय जब शाम होती थी, दिन ढल जाता था और इसकी रेतीली चादर में चारों तरफ कोचई, ककड़ी और अन्य सब्जियों के बाड़ी लगे रहते थे तब इसे घाट के ऊपर से देखने पर पूरी नदी का रेत वाला एरिया हरियाली से भरपूर दिखाई पड़ता था। वह दृश्य बड़ा ही सुंदर और मनमोहन रहता था। शाम के जब हम नदी जाते थे तो इसके रेतीले चादर के बीच लेट कर चांदनी रात का जो मजा लेते थे वह कभी नहीं भूलने वाला अविस्मरणीय और सुकून शांति भरा एहसास होता था, जो शायद अब कभी ना मिले। अरपा के मखमली रेत का वह शीतल कोमल एहसास जब हम महसूस करते थे तो वह अत्यंत आनंददायक था। वहीं बाड़ियों में लगे ताजे-ताजे स्वादिष्ट ककड़ी का स्वाद मुंह में आज भी बना हुआ है। वही गर्मियों में जब अरपा कि धाराएं कम हो जाती थी तो रेत के बीच गड्ढे कर बाड़ी लगाने वाले झिरिया का निर्माण करते थे।

यह झिरिया ऐसा होता था जिसे रेत को खोदकर पानी की नालीनुमा धारा निकाली जाती थी, और सामने की ओर थोड़ा चौड़ा गड्ढा कर देने से वहां पर नहाने का भी इंतजाम हो जाता था उस झिरिया के पानी को वैसे  सिंचाई के लिए बनाया जाता था। उसी पर नहाया भी जाता था। लेकिन अगर उसके पानी को आप पिएं तो इतना शीतल स्वच्छ और निर्मल रहता था कि आप उसको पीते ही पवित्रता और शीतलता के अविस्मरणीय एहसास से भर जाते थे। प्यास तो ऐसी बुझती थी जैसे अमृत पी रहे हों। उसका जल बहुत ही स्वादिष्ट लगता था..ऐसी थी मेरी अरपा मैया की महिमा। लेकिन अब न जाने किस की नजर लग गई है कि अरपा की सुंदरता, अरपा की स्वच्छता और बलखाती लहरों का वह मनभावन मंजंर अब नहीं दिखाई देता। माफियाओं की ललचाई भरी नजरों ने अरपा की सुंदरता ,अरपा का अस्तित्व ही आज संकट में डाल दिया है। 

अरपा नदी वैसे तो हमारे शहर और शहर वासियों के लिए जलदायनी नदी तो है ही लेकिन मेरे और मेरे एक दोस्त के लिए जीवनदायिनी भी है। जिसकी कहानी अब शुरू होती है।बात उस समय की है जब मैं बारह तेरह वर्ष का रहा होउंगा। एक मेरा एक लंगोटिया दोस्त संजू शुक्ला था, प्राय हम साथ में ही रहते थे खेलते थे, यहां तक की स्कूल की पढ़ाई भी एक साथ ही किया करते थे, हमारी एक ही एक ही कक्षा थी और एक जगह ही हम लोग बैठकर पढ़ाई करते थे। सो हम दोनों बचपन के उन दिनों में काफी समय साथ ही बिताया करते थे। हम दोनों उन मस्ती भरी ,दिन दुनिया से बेखबर दिनों में मस्तियां करते थे, शैतानियां भी करते थे। वैसे भी वह थोड़ा शैतान और मस्ती में भरा रहता था। सो दिन भी ऐसे ही गुजर रहे थे। हमारा स्कूल जाने का समय सुबह सात बजे से ग्यारह बजे तक हुआ करता था। इसके बाद हम दोनों  स्कूल की छुट्टी से लौट के बाद सीधे अरपा के जनकबाई घाट की ओर भागते थे, जहां घंटों नहाया करते थे। कई बार तो घर के बड़ों को चिंता हो जाती थी कि ये लोग नहाने गए थे नदी पर अभी तक कैसे नहीं लौटे। तो कई कई बार खोजने के लिए घर वालों कों घाट तक आना पड़ता था, जहां हमें नहाते देखकर घर वाले अक्सर डांटते हुए घर लेकर आते थे। उन दिनों ना जाने क्यों हमें नदी से ऐसा लगाव था की स्कूल के बाद के समय में दिनभर नदी की ओर रेत में ही खेलते हुए गुजर जाता था।

 ऐसे ही गुजरते‌ दिनों में एक वह दिन भी आया जो हमारी जिंदगी का यादगार लम्हा बनने जा रहा था। उन दिनों हमें एक नई जिंदगी मिली थी जिंदगी के मायने कुछ-कुछ समझ में भी आए थे और जो हमें नई जिंदगी मिली थी वह मां अरपा की कृपा और दया से ही प्राप्त हुआ था। जो कुछ उस दिन हुआ था जिंदगीभर नहीं भूला जा सकता। उस दिन हुआ ऐसा था कि हम दोनों दोस्त हमेशा की तरह स्कूल से  ग्यारह बजे आकर सीधे नदी घाट की ओर नहाने चले गए। उन दिनों नदी में किनारे की ओर पानी तीन-चार फीट तो कहीं-कहीं पांच फीट की गहराई तक बह रहा था, लेकिन नदी बीच तट की ओर जाने पर तेज बहाव भी था और गहराई भी काफी ज्यादा हो जाती थी। हम दोनों जनकबाई घाट में किनारे की तरफ नहाने लगे थे। उन दिनों हम अपने आप को तैराकी का का बड़ा सूरमा भी समझने लग गए थे, हालांकि दोनों को तैरना तो नहीं आता था, पर हां कम गहरे पानी में हाथ पांव मार लेते थे, जिससे हमारी बचपन की बुद्धि समझ रही थी कि हमें तैरना आ जाता है। खैर घाट में और भी लड़के जहां-तहां पानी में नहा रहे थे। घाट में उछल कूद मचा रहे थे । ऐसे ही हम लोग दोनों भी नहा रहे थे। घाट की पचरी से छलांग लगा लगाकर पानी में कूदते और पानी में मस्ती कर रहे थे। घाट के नीचे पानी भी करीब चार-पांच फीट के आसपास रहा होगा, बस इसी गहरे पानी में हाथ पैर मार कर हम समझने लगे थे कि हमें तैरना आ जाता है। 

लेकिन इसकी असल परीक्षा तो तब हो गई जब इसी बीच संजू ने नदी में जाकर करीब एक किलोमीटर पानी के बहाव के साथ तैरते हुए नीचे का घाट मोपका नाका तक तैरते जाने के लिए कहा। यह सुनकर मैंने कहा नहीं भाई रहने दे पानी कहीं गहरा होगा तो लेने के देने पड़ जाएंगे। तब उसने कहा नहीं नहीं कुछ नहीं होगा हम लोगों को तैरना तो आता ही है, तैर कर किनारे घाट पर निकल कर वापस आ जाएंगे। ये बोलकर वह मुझे चलने के लिए जोर देने लगा,उसके जोर देने पर मैं भी आखिरकार राजी हो गया। बस फिर क्या था हम दोनों ही अरपा की बलखाती लहरों के साथ-साथ नदी के बीच लहरों की तरफ कूद पड़े थे।अब तैर क्या रहे थे बस चार फीट के पानी में हाथ पैर चला रहे थे। इस बीच हम दोनों लहरों के तेज बहाव में थोड़ा नदी के बीच लहर में भी आ गए। बहते बहते लहरों के साथ तैरने का प्रयास भी चल रहा था और हमें मजा भी आने लगा था।तभी अचानक हुआ यूं की पानी की गहराई अचानक बढ़ गई जब पानी पंद्रह फीट की गहराई तक बढ़ गया।

तब तक तो ऐसा हो चुका था कि हम लहरों के साथ-साथ अरपा मैया की कृपा पर ही आश्रित हो गए। हमारा अपना कुछ बस नहीं चल रहा था, क्योंकि  गहराई भी ज्यादा हो चुकी थी और लहरों का बहाव भी काफी अधिक था। जिहसे अब हम कुछ नहीं कर सकते थे। तैरना तो वैसे भी नहीं आता था फिर भी हम लोग हाथ पैर काफी तेजी से चला रहे थे। पानी के लहरों का बहाव बहुत तेज हो गया था। हम बहते-बहते नीचे की ओर तेजी से जाने लगे। पानी की लहर के साथ-साथ बडे़ आराम से बहते बहाव की दिशा में बहते चले भी जा रहे थे कि …… इतने में ही अचानक ही पानी की गहराई बढ़कर पंद्रह फीट के पास पहुंच गई।

और बस यही से शुरू हो गया हम दोनों के जीवन का संघर्ष। गहरे अब पानी में डूब जाने के कारण हमारा तैराकी का भी वहम धीरे-धीरे खत्म हो चला था, क्योंकि गहराई में हमे तैरना जो नहीं आता था। अब तक हमें भी इस समय तक समझ में आ गया था कि तैरना तो हम दोनों को नहीं आता क्योंकि हम दोनों ही गहरे पानी में नीचे डूब गए थे। हां जरूर यह था कि हमारे हाथ पांव बिल्कुल तेजी से चल रहे थे और लेकिन अरपा की बलखाती लहरों के बीच हमारा जीवन संकट में फंस चुका था। अब मुझे कुछ भय सा भी महसूस होने लगा था, और सोच रहा था कि अब तो वापस भी नहीं जाया जा सकता और न कुछ किया जा सकता है। अब तो बस ऊपर वाला और अरपा मईया की ही कृपा पर जिंदा रह सकते हैं।

हम दोनों जब पंद्रह फीट पानी के नीचे जब पहुंचे थे तभी लगा कि अब क्या होगा कैसे होगा ….कि तभी अचानक बहते-बहते नीचे कुछ दूर जाने के बाद पानी की गहराई कम हो गई थी या कह सकते हैं की अरपा के तल में रेत की ऊंचे ऊंचे ढूह आ गए जिससे पानी केवल चार-पांच की फिट की ऊंचाई में ही रह गया था। इसके पहले अरपा की अटखेंलिंयां चल रही थी या उसकी कृपा दृष्टि थी, जो हमें जीवन रूपी सांस लेने के लिए अवसर मिल गया,क्योंकि रेत के पहाड़नुमा ढूह आने से अरपा की तलहटी ऊंची हो गई, पानी की गहराई भी इसी वजह से पांच फीट की रह गई। इसके कारण हम पानी के बाहर भी आ गए। लेकिन तेज लहरों के साथ हमारा बहते चले जाना अनवरत चालू था, और हमारा जीवन संघर्ष भी हाथ पांव चलने के साथ पूरी तेजी से चल रहा था। फिर ना जाने ऐसा हुआ की फिर से अचानक गहराई बढ़कर पंद्रह फिट हो गई। ऐसे में फिर हम पानी के अंदर डूब गए और ऐसे ही हमारा जीवन संघर्ष फिर शुरू था। लेकिन गनीमत यह थी कि ऐसा ही क्रम लगातार चल रहा था। बहते हुए ही गहराई बढ़ जाती थी फिर रेत के टीले आ जाने के कारण गहराई कम हो जाती थी..इस क्रम के कारण हमें सांस लेने के लिए पानी के ऊपर आने का जीवन अमूल्य अवसर मिल रहा था। और यही चीज हमारे जान बचाने के लिए काफी था।     

इस बीच हम दोनों तेजी से  लहरों के साथ-साथ बहते बहते नीचे घाट की ओर चले जा रहे थे।  इस दौरान नीचे का पहला डूमरघाट दूसरा डोंगा घाट भी निकल चुका था हम दोनों भी डूबते उतराते हुए बहते चले जा रहे थे, न जाने कैसा चमत्कार था या अरपा मईया की कृपा थी जिससे हमें जीवन का दान मिल रहा था। इसे मैं आज कई वर्षों के बाद लिख रहा हूं तो इसके पीछे मां अरपा के द्वारा दिया गया अमूल्य जीवन दान का ही प्रताप है जो कि आज मेरे द्वारा लिखे गए इस घटना को आप सभी पढ़ रहे हैं । चलिए आगे बढ़ते हैं अब हुआ यूँ कि हम दोनों लहरों के भरोसे और अरपा के सहारे डूबते उतराते हुए बहते हुए नीचे की ओर चले जा रहे थे। इस बीच हमारा भाग्य था कि बीच-बीच में पानी की गहराई बीच-बीच में पंद्रह फीट से पांच फिट की हो जाती थी। ऐसा ही क्रम बीच-बीच में चल रहा था जो हमारे लिए एक वरदान से काम नहीं था बस इसी तरह हम बहते जा रहे थे और नीचे घाट की ओर जाते जा रहे थे लेकिन मन में यह अभी विचार चल रहा था कि ऐसा अगर आगे नहीं रहा तब तो आज मृत्यु निश्चित है। लेकिन अरपा मैया की बहुत कृपा दृष्टि हम पर बनी हुई थी। यही सब सोचते  आगे बहे जा रहे थे।

फिर धीरे से आ गया काली मंदिर घाट, काली मंदिर घाट से बहते धीरे-धीरे आखिर हम मोपका नाका घाट के पास करीब एक किलोमीटर नीचे तक बहते हुए आ गए थे। इस बीच नदी की गहराई लगातार कम ज्यादा होते रहने के कारण हमें सांस लेने के मौके मिल रहे थे,यही कारण था कि  हम दोनों का जीवन अब तक सुरक्षित बचा हुआ था।हाँ यह जरूर कह सकते हैं कि इस एक किलोमीटर दूरी तक बहते जाने के दौरान जहाँ जीवन संघर्ष चल रहा था, वही हमारे हाथ पांव बहुत तेजी से चलते जा रहे थे। इस बीच डूबते उतराते रहने की वजह से हमारे पेट में बहुत सारा पानी भी चला गया था।

हम दोनों भी संघर्ष करने से थककर लस्तपस्त हो चुके थे।इसी बीच हमने देखा कि मोपका नाका घाट आ रहा है तो हम हाथ पांव और तेजी से चलाने लगे , इससे थोड़ा हमें किनारे की तरफ आ गए, मोपका नाका घाट पहुंचते पहुंचते हम थोड़ा नदी के किनारे तरफ आ गए फिर हुआ ऐसा की किनारे तरफ की लहर का वेग कम हो जाने और गहराई भी कम हो जाने से हम दोनों जैसे ही किनारे पर पहुंचे तब तक हम सुरक्षित भी हो गए, लेकिन तब तक थककर इतना पस्त हो गए थे फिर भी जैसे तैसे घाट के किनारे जाकर करीब आधे घंटे तक लेटे हुए हम ऐसे ही पड़े हुए थे,तब जाकर शरीर में कुछ जान आई। तब मैंने उसकी और देखा और कमजोर सी आवाज में कह उठा- आज तो तूने अपने साथ-साथ मुझे भी मरवा दिया था।

सुनकर वह धीरे से मुस्कुराया और कहा – मुझे क्या मालूम था भाई, की पानी इतना गहरा हो जाएगा। खैर दोनों ने एक दूसरे को फिर गौर से देखा…दोनों की नजरों में ऐसे भाव थे जैसे बहुत बड़ी जंग जीत कर आए हों ..कुछ भाव  कृतज्ञता के भी थे जो अरपा मैया की कृपा से जीवन बच जाने के बाद आ जा रहे थे। बस फिर क्या था ,थोड़ी देर तक इशारों ही इशारों में मौन रूप से हम दोनों के बीच बहुत सी बातें हो गई।तभी अचानक बेसाख्ता ही हम दोनों हंस पड़े, उठकर दोनों गले में बाहें डालकर वापस घर की ओर चलना शुरू कर दिए। यहां पर यह कहना भी लाजिमी होगा कि यह मेरे लिए संयोग था या दुर्योग इसे मैं आप सभी पर छोड़ता हूं लेकिन हां एक अच्छी बात जरूर हुई कि इस घटना के बाद से हमें तैरना भी अच्छी तरह से आ गया था। बाद के वर्षों में मैंने स्कूली तैराकी स्पर्धाओं में कई बार जीत हासिल की।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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