हिन्दी विरोध की संकीर्ण राजनीति के दंश

ललित गर्ग-

हिंदी को लेकर तमिलनाडु की राजनीति का आक्रामक होना कोई नयी बात नहीं है लेकिन तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र में हिंदी का विरोध यही बताता है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से किस तरह भाषा को हथियार बनाया जा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी एवं केन्द्र सरकार को घेरने के लिये जिस तरह भाषा, धर्म एवं जातियता को लेकर आक्रामक रवैया अपनाते हुए देश में अशांति, अराजकता एवं नफरत को फैला रहे रहे हैं, यह चिन्ताजनक है। महाराष्ट्र में हिन्दी का विरोध आश्चर्यकारी है। हिन्दी दुनिया का तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बनने की ओर अग्रसर है। हिन्दी विदेशों में सम्मान पा रहे हैं और अपने ही देश में उपेक्षा एवं विवाद का शिकार बन रही है। महाराष्ट्र और अन्य गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी की स्वीकार्यता इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि उसकी उपयोगिता सिद्ध हो रही है। हिंदी का मराठी या अन्य किसी भाषा से कोई झगड़ा नहीं। क्या यह विचित्र नहीं कि हिंदी का विरोध उस महाराष्ट्र में हो रहा है, जिसकी राजधानी हिंदी फिल्म उद्योग का गढ़ है? हिंदी फिल्म उद्योग ने मुंबई को न केवल प्रतिष्ठित किया है, बल्कि महाराष्ट्र के लोगों को लाभान्वित भी किया है। क्या राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे आदि हिंदी फिल्म उद्योग का भी विरोध करेंगे? ऐसा करके वे अपने राज्य के लोगों के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का ही काम करेंगे। यह किसी से छिपा नहीं कि हिंदी विरोध के नाम पर लोगों की भावनाएं भड़काने का काम अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए किया जाता है। यह और कुछ नहीं, राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को कमजोर करने और लोगों में वैमनस्य पैदा करने वाली क्षुद्र राजनीति है।

त्रिभाषा फार्मूले में केन्द्र सरकार चाहती है कि भारत में प्रत्येक छात्र को तीन भाषाएँ सीखनी चाहिए, जिनमें से दो मूल भारतीय भाषाएँ होनी चाहिए, जिसमें एक क्षेत्रीय भाषा शामिल होनी चाहिए और तीसरी अंग्रेज़ी होनी चाहिए। यह सूत्र सरकारी और निजी दोनों स्कूलों पर लागू होता है और शिक्षा का माध्यम तीनों भाषाओं में से कोई भी हो सकता है। नेशनल एजुकेशन पॉलिसी के त्रिभाषा फार्मूले के तहत मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को पढ़ाए जाने के महाराष्ट्र सरकार के निर्णय पर विपक्षी दलों की राजनीतिक आक्रामकता का कारण वोट की राजनीति एवं भाजपा के बढ़ते वर्चस्व को विराम लगाने की स्वार्थी मानसिकता है। त्रिभाषा फार्मूले पर सबसे पहले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे ने आपत्ति उठाई। यह वही राज ठाकरे हैं, जो हिन्दुत्व का झंडा हाथ में लेकर स्व-संस्कृति की वकालत करते रहे हैं। इस पर हैरानी नहीं कि उद्धव ठाकरे भी राज ठाकरे के सुर में सुर मिला रहे हैं। उनकी शिवसेना ने एक समय दक्षिण भारतीयों को मुंबई से भगाने का अभियान छेड़ा था, फिर उसके निशाने पर उत्तर भारतीय आ गए थे। हैरानी इस बात की है कि शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता भी त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदी पढ़ाए जाने का विरोध कर रहे हैं और इसके पीछे साजिश देख रहे हैं। अच्छा होता कि मराठी अस्मिता की रक्षा के बहाने हिंदी को निशाने पर ले रहे ये नेता यह बताते कि तीसरी भाषा के रूप में हिंदी का विरोध करने के क्या कारण है? केवल मोदी सरकार ने इसे प्रस्तुत किया है, इस कारण इसका विरोध मानसिक दिवालियापन का द्योतक है।

तीसरी भाषा के रूप में हिंदी का चयन इसलिए सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि एक तो वह आधिकारिक राजभाषा एवं सबसे प्रभावी संपर्क भाषा है और दूसरे, महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में हिंदी बोलने-समझने वाले हैं। ये वे लोग हैं, जो काम-धंधे के सिलसिले में महाराष्ट्र गए और फिर वहीं बस गए। इन्होंने महाराष्ट्र के विकास में योगदान भी दिया है। इसकी अनदेखी करते हुए हिंदी का विरोध करना एक तरह का नस्लवाद ही है, एक तरह की संकीर्ण एवं स्वार्थी मानसिकता है। संचार और सूचना क्रांति तथा तेज आवागमन के चलते भाषायी स्तर पर तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र आदि गैर हिन्दी भाषी राज्यों की स्थिति तीन-चार दशक पहले जैसी नहीं है। वहां हिंदी बोलने वालों की संख्या भले कम हो, पर उसे समझने और हिंदी में आने वाले सवालों का जवाब देने वालों की तादाद बढ़ी है। चाहे तमिलनाडु का निवासी हो या फिर महाराष्ट्र या फिर गैर हिन्दी भाषी राज्य का, उसके हाथ में यदि फोन है, उसमें इंटरनेट का कनेक्शन है, तो तय है कि उसकी अंगुलियों के नियंत्रण में हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं, दुनियाभर की भाषाएं हैं, इसलिए हिंदी ही नहीं, किसी भी भाषा का विरोध अब दुनिया के किसी भी कोने में पूरी तरह न तो सफल हो सकता है और न ही कोई दीवार उसे रोक सकती है। फिर हिन्दी तो हिन्दुस्तान की अस्मिता एवं अस्तित्व से जुड़ी भाषा है। दुनिया में जहां कहीं भी लोग अन्यत्र जाकर बसते हैं, वे अपने साथ अपनी संस्कृति और भाषा भी ले जाते हैं। यदि कोई यह चाहता है कि ऐसा न हो तो ऐसा होने वाला नहीं है। महाराष्ट्र के विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं, तमिलनाडू में इसके रोकने के प्रयास हो रहे हैं, वहीं आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने एक अलग नजरिया दिया। उन्होंने हिंदी सहित कई भाषाओं की शिक्षा की वकालत की है। नायडू ने कहा कि भाषा केवल संचार का एक साधन है। आप सभी जानते हैं कि तेलुगु, कन्नड़, तमिल और अन्य भाषाएं विश्व स्तर पर चमक रही हैं। नॉलेज अलग है, भाषा अलग है। हिंदी भी देश में कम्युनिकेशन लैंग्वेज के तौर पर जरूरी है।

हिन्दी हमारी मातृभाषा के साथ-साथ राजभाषा होने के बावजूद उसको उचित सम्मान न मिलना या हिन्दी के नाम पर विध्वसंक राजनीति होना अनेक प्रश्नों को खड़ा करती है, सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा भी हिन्दी ही है। गूगल के अनुसार हिन्दी दुनिया की ऐसी भाषा है जिसमें सर्वाधिक कंटेंट (पाठ्य सामग्री) का निर्माण होता है। सर आइजेक पिटमैन ने कहा है कि संसार में यदि कोई सर्वांग पूर्ण लिपि है तो वह देवनागरी है। निश्चित ही सशक्त भारत-विकसित भारत निर्माण एवं प्रभावी शिक्षा के लिए हिन्दी में शिक्षा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है। तथ्य यह भी है कि उत्तर भारत के अलावा देश के अन्य राज्यों से जो राजनेता प्रधानमंत्री बने, उन्होंने कभी हिंदी का विरोध नहीं किया। दक्षिण भारत से पहले प्रधानमंत्री बने पी वी नरसिंह राव धाराप्रवाह हिंदी बोलते थे। कर्नाटक के नेता एच.डी. देवेगौड़ा जब पीएम बने तो उन्होंने लालकिले से हिंदी में ही अपना भाषण दिया था। हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदार प्रयत्न करने होंगे। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक-भौगोलिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है। हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। भारत की गरिमा एवं गौरव की प्रतीक राष्ट्र भाषा हिन्दी को हर कीमत पर विकसित करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए।

आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलना विडम्बना एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। विश्व में हिन्दी की प्रतिष्ठा एवं प्रयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन देश में उसकी उपेक्षा एवं राजनीतिक विरोध एक बड़ा प्रश्न है। राजनीति की दूषित एवं संकीर्ण-स्वार्थी सोच का परिणाम है कि हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान राष्ट्र में हिन्दी को नहीं मिल रहा है। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में विश्व हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा क्योंकि भारत और अन्य देशों में 120 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गये हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों?

ललित गर्ग
ललित गर्ग

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