सूर्योपासना का महापर्व : छठ

सर्व प्रथम मेरे ओर से प्रणाम सहित छठ पूजा की हार्दिक बधाई। छठी माई अपना सबके कष्ट दूर कर अपना कृपा दृष्टि बना के रखस।। मैं पहले भी अपनी इस दिनचर्या के बारे में चर्चा कर चुका हूँ कि सुबह चाय के वक्त हनुमान चालीसा सुनना मस्तो की आदत में शुमार है। हनुमान चालीसा के बाद दिन के हिसाब से भजन। अब चूँकि छठ का त्यौहार आ रहा है तो छठ का गीत चलता है। पता नहीं क्यों मुझे भोजपुरी गीतों में अजीब सी उदासी वाला भाव लगता है। छठ के गीत भी इसका अपवाद नहीं हैं। अभी हाल ही में नीरजा माधव जी ने अपने एक लेख में छठ के एक गीत का जिक्र करती हैं, जिसके बोल हैं,

उजे केरवा जे फरेला धवद से, ओपर सुग्गा मेड़ाराय
ऊजे खबरी जनइबो आदित से, सुगा देले जूठीआए
उजे मरबो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिरे मुरझाए
उजे सुगनी जे रोवेलीं वियोग से, आदित होई न सहाय 

इस गीत में सुगनी अपने पति के वियोग में रोते हुए सूर्य देवता से उसे जीवित करने की प्रार्थना करती है। इसलिए ये गीत मेरे ह्रदय में करुणा का भाव भर देते हैं। वैसे भी मेरी जानकारी में विश्व में ये अकेला पर्व है जिसमे पहले अस्ताचल गामी सूर्य की आराधना होती है और बाद में उगते सूरज की। ये भारतीय संस्कृति में ही संभव है कि जो अपने अवसान के समीप है उसको इतनी श्रद्धा और आदर प्रदान किया जाता है।

अनादिकाल से भारतीय संस्कृति, परंपरा और शास्त्रों के अनुसार प्रकृति को ईश्वर माना गया है। यही कारण है कि हमारे बहुत से त्यौहार मातृ शक्ति प्रकृति को समर्पित है और सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, जल, नदी और पर्वतों को प्रसाद अर्पित किया जाता है और उनकी पूजा अर्चना की जाती है।

दीवाली का पर्व त्यौहारों की एक माला है जो दीवाली से शुरू होकर देव दीपावली तक आध्यात्म के धागे से पिरोया हुआ है। दीवाली के चौथे दिन से शुरू होकर छठवें दिन तक छठ पूजा का त्यौहार मनाया जाता है।

ये त्योहार छठ पूजा, डाला छठ और सूर्य षष्ठी के नामों से जाना जाता है। यह त्यौहार सूर्य एवं षष्ठी देवी(छठी मैया), जो कि सूर्य की बहन मानी जाती हैं, की उपासना का पर्व है जो कि उनके द्वारा पृथ्वी को दिए गए अनमोल उपहारों के बदले में उनका आभार प्रगट करने का माध्यम है।

इस पर्व को मनाने के पीछे अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ऋग्वेद काल में ऋषियों द्वारा सूर्योपासना का प्रसंग आता है जिसमे ऋषि बिना अन्न ग्रहण किये सीधे सूर्य से जीवन ऊर्जा ग्रहण करते थे। इस त्यौहार को मनाने के पीछे दो कथाएँ प्रचलित हैं–

एक कथा के अनुसार इस पूजा का प्रारंभ कुंतीपुत्र कर्ण के द्वारा किया गया था। कर्ण अंग देश का शासक था जो कि वर्तमान में बिहार राज्य के भागलपुर का भाग था। दूसरी कथा के अनुसार जब भगवान राम और उनकी पत्नी सीता चौदह वर्ष के वनवास और लंका विजय करके अयोध्या लौटे तो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में व्रत रखते हुए भगवान सूर्य की आराधना की थी और तभी से दीपावली(जिस दिन राम जी अयोध्या लौटे थे) चौथे दिन से छठे दिन तक मनाया जाने वाला यह पर्व लोकप्रिय हुआ।

चार दिवसीय यह पर्व दीवाली के चौथे दिन से प्रारंभ होकर निम्नवत सम्पूर्ण होता है- नहाय खाय- पर्व के पहले दिन पूजा का संकल्प लेने वाले/ वाली व्रती गंगा अथवा किसी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करते हैं और प्रसाद बनाने के लिए वहीं से जल लेकर घर जाते हैं।

खरना और लोहन्दा- दूसरे दिन पूरे दिन का उपवास रखते हैं जो कि शाम को सूर्यास्त के पश्चात समाप्त होता है। सुनंदा अर्थात चंद्रोपासना के उपरांत पूरे परिवार के लिए गुड़ की खीर बनाई जाती है। खीर खाने के पश्चात व्रती का अगले छत्तीस घंटों के लिए निर्जल उपवास प्रारंभ हो जाता है। संध्या अर्घ्य- तीसरे दिन प्रसाद तैयार करने के पश्चात संध्या के समय व्रती पुनः पवित्र नदी/सरोवर में स्नान करते हैं और सूर्य तथा छठी मैया की पूजा करती हैं और स्थानीय भाषा में(लोकगीत) गाये जाते हैं जिससे वातावरण बहुत भक्तिमय और उल्लासपूर्ण हो जाता है।

“काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय”

उषा अर्घ्य- चौथे दिन प्रातःकाल व्रती नदी/सरोवर के तट पर एकत्रित हो जाती हैं, वाराणसी के घाटों पर तो व्रती पूरी रात घाटों पर ही बिता देती हैं और पूरी रात छठी मैया के गीतों से घाट गुलजार रहते हैं जो कि पूरे माहौल को भक्तिमय बना देता है। सूर्योदय के पूर्व ही सारे प्रसाद को बांस की डलिया में सजाकर घुटने भर पानी में खड़े होकर भगवान भाष्कर के उदय होने की प्रतीक्षा करते हैं। यह दृश्य बहुत नयनाभिराम और भावपूर्ण होता है। बीच बीच मे हर हर महादेव के उदघोष से वातावरण गुंजायमान होता रहता है।

जैसे ही भगवान भाष्कर की पहली झलक क्षितिज में दिखाई पड़ती है व्रती उनको अर्घ्य अर्पित करने लगते हैं। यह बहुत ही भावनात्मक दृश्य होता है। अर्घ्य और दीप अर्पित करने के पश्चात व्रती स्त्रियां सुहागिनों की मांग में सिन्दूर लगाती हैं जिसे मांग से लेकर नाक तक लगाया जाता है। अर्घ्य के बाद व्रती से प्रसाद पाने की होड़ लग जाती है क्योंकि व्रती के हाथ से प्रसाद पाना बहुत सौभाग्य माना जाता है।

ये सम्पूर्ण व्रत पूर्णतः वैज्ञानिक भी है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय ही सूर्य किरणों में सबसे कम अल्ट्रा वायलेट किरणें होती है जो स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छी मानी जाती हैं।

इस पर्व का केवल धार्मिक महत्व ही नही है। इसका सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ महत्व भी है। इस पूरे पर्व के दौरान व्रती पूरी शुचिता और मितव्ययिता से रहती है, भूमि पर सोती हैं और केवल एक कंबल का प्रयोग करती हैं। इस समय पूजा और प्रसाद में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं का एक बड़ा बाजार विकसित हो जाता है जो लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करेगा है। ये त्यौहार समाज मे समरसता एवं प्रेम की वृद्धि करता है। ऐसा देखा गया है कि इन चार दिनों के दौरान बिहार प्रान्त में अपराध की दर न्यूनतम हो जाती है और ये तथ्य इस पर्व की महत्ता को बहुत खूबसूरती के साथ रेखांकित करता है।ये केवल भारतीय संस्कृति में ही संभव है जिसमें डूबते सूरज की भी आराधना की जाती है इस प्रकार ये पर्व सृष्टि के पूरे चक्र की पूजा करना सिखाता है।

समस्त जगत के साथ भरत वंशियों को छठ की शुभकामनायें। हे सूर्य भगवान इस चराचर विश्व में केवल आप ही प्रत्यक्ष देवता है जो नित्य-प्रति इस संसार को जीवन प्रदान कर रहे हैं। आप इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपनी उर्जा से जीवन, आरोग्य, उर्जा प्रदान करें। जय हो छठी माई की 

रघुवंश बहादुर सिंह
पूर्वांचल शक्ति, दिल्ली
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