लेखक जिस वर्ग से आता है उसका प्रभाव उसके लेखन पर अवश्य पड़ता है। राकेश शंकर भारती भी भारतीय समाज के जिस निचले तबके से आते हैं उस तबके की आशाएँ, स्वप्न, आक्रोश सभी साथ लाते हैं। उन्होंने जो अनुभव किया वह बड़ी बेबाकी से अपने उपन्यास ‘किरचे’ में व्यक्त किया है। लेखक का यह उपन्यास तीन आयामों पर आधार ग्रहण करता है। पहला जो उपन्यास का मूल है जातीय ग्रंथि, उपन्यास का नायक निम्न जाति से संबंध रखता है और यह बात उसे आरंभ से अंत तक सालती है। दूसरा आधार पितृसत्तात्मक समाज के फैले हुए मकड़ जाल की सच्चाई को उजागर करता है। तीसरा आधार उपन्यास का महत्वपूर्ण आयाम है ‘की-पार्टी’ या ‘वाइफ़ स्वैपिंग’। यह महत्वपूर्ण इन अर्थों में है कि यह उपन्यास के एक तिहाही भाग में फैला हुआ है और उपन्यास का आरंभ भी इसी वाइफ़ स्वैपिंग से होता है।
लेखक जिस वर्ग से आता है उसका प्रभाव उसके लेखन पर अवश्य पड़ता है। राकेश शंकर भारती भी भारतीय समाज के जिस निचले तबके से आते हैं उस तबके की आशाएँ, स्वप्न, आक्रोश सभी साथ लाते हैं। उन्होंने जो अनुभव किया वह बड़ी बेबाकी से अपने उपन्यास ‘किरचे’ में व्यक्त किया है। लेखक का यह उपन्यास तीन आयामों पर आधार ग्रहण करता है। पहला जो उपन्यास का मूल है जातीय ग्रंथि, उपन्यास का नायक निम्न जाति से संबंध रखता है और यह बात उसे आरंभ से अंत तक सालती है। दूसरा आधार पितृसत्तात्मक समाज के फैले हुए मकड़ जाल की सच्चाई को उजागर करता है। तीसरा आधार उपन्यास का महत्वपूर्ण आयाम है ‘की-पार्टी’ या ‘वाइफ़ स्वैपिंग’। यह महत्वपूर्ण इन अर्थों में है कि यह उपन्यास के एक तिहाही भाग में फैला हुआ है और उपन्यास का आरंभ भी इसी वाइफ़ स्वैपिंग से होता है।
लेखक जिस वर्ग से आता है उसका प्रभाव उसके लेखन पर अवश्य पड़ता है। राकेश शंकर भारती भी भारतीय समाज के जिस निचले तबके से आते हैं उस तबके की आशाएँ, स्वप्न, आक्रोश सभी साथ लाते हैं। उन्होंने जो अनुभव किया वह बड़ी बेबाकी से अपने उपन्यास ‘किरचे’ में व्यक्त किया है। लेखक का यह उपन्यास तीन आयामों पर आधार ग्रहण करता है। पहला जो उपन्यास का मूल है जातीय ग्रंथि, उपन्यास का नायक निम्न जाति से संबंध रखता है और यह बात उसे आरंभ से अंत तक सालती है। दूसरा आधार पितृसत्तात्मक समाज के फैले हुए मकड़ जाल की सच्चाई को उजागर करता है। तीसरा आधार उपन्यास का महत्वपूर्ण आयाम है ‘की-पार्टी’ या ‘वाइफ़ स्वैपिंग’। यह महत्वपूर्ण इन अर्थों में है कि यह उपन्यास के एक तिहाही भाग में फैला हुआ है और उपन्यास का आरंभ भी इसी वाइफ़ स्वैपिंग से होता है।
‘किरचे’ उपन्यास बाहरी तौर पर तो पति-पत्नी की अदला-बदली का उपन्यास लगता है, परंतु जब इसे आरंभ से अंत तक पढ़ा जाये तो समझ आता है कि यह वाइफ़ स्वैपिंग कथानक का एक टूल है। नायक जातीय ग्रंथि से ग्रसित होकर एक योजना के तहत वाइफ़ स्वैपिंग या की-पार्टी को अंजाम देता है। नायक मोहित की जातीयता को लेकर जो विचार हैं, अनुभव हैं वह लेखक से मेल खाते हैं। मोहित ने अपने जीवन में जो कठिनाइयाँ झेलीं या जाति के नाम पर समाज ने उसे जो प्रताड़नाएँ दीं वे लेखक के वास्तविक जीवन से मेल खाती हैं। लेखक उन प्रताड़नाओं को सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ता चला गया, परंतु नायक मोहित की भाँति लेखक के मन में पीड़ा सदा बनी रही कि समाज ने जाति के आधार पर उसे निकृष्ट घोषित कर दिया, जबकि वह प्रतिभा में किसी से कम नहीं था। यह पीड़ा मोहित के भीतर हीनता ग्रंथि बनकर बैठ गयी और इसी ग्रंथि ने प्रतिशोध को जन्म दिया। इस प्रतिशोध ने दोस्त, प्रेमिका, पत्नी, बेटे को सभी को निगल लिया।
राकेश शंकर भारती पर भारतीय समाज की जातीय व्यवस्था ने इतना गहरा असर किया कि उनका एक और उपन्यास ‘3020 ई.’ का एक भाग भी उससे ग्रसित दिखाई देता है, जहाँ दादा, बेटा, पोता तीनों एक निकृष्ट जाति की लड़की से प्रेम करते हैं और तीनों के संबंधों में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। ‘किरचे’ उपन्यास में भी लगभग सभी पात्र समाज की जाति व्यवस्था से ग्रसित दिखाई देते हैं। लेखक के मन में समाज की व्यवस्था के प्रति पर्याप्त आक्रोश है, परंतु कहीं-न-कहीं वह स्वयं भी इससे ग्रसित दिखाई देते है। समाज की प्रत्येक जाति अपने से निकृष्ट जाति ढूँढ ही लेती है और फिर वह उसपर उसी तरह अत्याचार करती है जिस तरह वह स्वयं सहती आयी है।
उपन्यास का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू पितृसत्तात्मक समाज द्वारा स्वतंत्रता की आड़ में स्त्री का शोषण है। स्त्री को देह मुक्ति के झूठे झाँसे में फँसाकर उसे ठगने की कोशिश है। लेखक और उपन्यास के सभी पुरुष पात्र पितृसत्तात्मक नियमों को जीते हुए स्त्री पात्रों को ठगते दिखाई देते हैं। यहाँ लेखक इसलिए कहा क्योंकि उपन्यास पढ़ते हुए लेखक कुछ वाक्य बार-बार लिखता है जैसे ‘एक ही तरह की सब्ज़ी हर रोज़ खाने से भी मन ऊब जाता है।‘ या फिर ‘एक ही तरह की दाल बार-बार खायी जाये तो मुँह का स्वाद बिगड़ जाता है।‘ यह वाक्य पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के संदर्भ में लिखे गये हैं। इन्हें एक दो बार तो अनदेखा किया जा सकता है, परंतु इनका बार-बार आना लेखक की सहमती को दर्शाता हैं। लेखक उपन्यास में जिस कपल स्वैपिंग या की-पार्टी की बात करते हैं उसमें कोई भी स्त्री पात्र सहर्ष स्वीकृति नहीं देता। पुरुष अपनी उच्छृंखलता के लिए स्त्री पात्र को विवश करते हैं कि वह भी उसमें शामिल हो। पितृसत्तात्मक समाज की तानाशाही इतनी कि जिस की पार्टी को स्त्री स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जा रहा है वास्तव में उस पार्टी में भी स्त्री इच्छा कोई महत्व नहीं रखती।
इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण आयाम है की-पार्टी या वाइफ़ स्वैपिंग। वास्तव में यह उपन्यास में लगाया गया एक तड़का है। जिस तरह फिल्मों को हॉट सीन, डांस नं. के साथ मसालेदार बनाया जाता है ठीक उसी तरह लेखक ने वाइफ़ स्वैपिंग या की-पार्टी का विस्तार से वर्णन किया है। लेखक ने मूल गंभीर मुद्दे और सामाजिक चुनौतियों को और अधिक नवीनता और नये विषय देकर समाज की समस्याओं को नये अंदाज़ और शैली में बताने की कोशिश की है। नये शैली में नये और पुराने विषयों का संयोजन करके यूनिक उपन्यास लिखे जाने के कारण यह उपन्यास मील का पत्थर साबित होगा।
लेखक को उपन्यास के लिए शुभकामनाएँ। आशा करती हूँ कि पाठक और आलोचक इस उपन्यास की खामियों को नज़रअंदाज़ करते हुए इसके सकारात्मक पहलू के लिए इसे प्यार देंगे।
डॉ. भारती अग्रवाल
सहायक प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय