श्याम बेनेगल का जाना नये सिनेमा का अंत

बालीवुड में समानांतर सिनेमा के जनक, ‘मंथन’ से लेकर ‘वेलडन अब्बा’ तक जिनके फिल्मी सफर को एक युग कहा जा सकता है, बेहद कलात्मक, बेहद संजीदा, बेहद संवेदनशील, ऐसे बेमिसाल फिल्मकार श्याम बेनेगल का 90 वर्ष की उम्र में जाना अत्यंत दुखद ही नहीं है, एक सार्थक भारतीय सिनेमा एवं गौरवशाली टेलीविजन युग का अंत है। दादा साहब फाल्के के अलावा सात राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित बेनेगल ने हिंदी सिनेमा को नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, अनंत नगा जैसे प्रख्यात कलाकार दिए। उनकी फिल्मों के साथ भारतीय सिनेमा का एक नया और अविस्मरणीय दौर शुरु हुआ, जिसने भारतीय सिनेमा को एक नई ऊंचाई प्रदान की।

पिता के कैमरे से 12 साल की उम्र में पहली फिल्म बनाने वाले बेनेगल ने उस समय अहसास कराया कि भारतीय सिनेमा में एक विराट प्रतिभा मोर्चा संभाल चुकी है, जिसके काम की गंूज उनकी जीवन में ही नहीं, बल्कि भविष्य में लम्बे समय तक देश और दुनिया को सुनाई देगी। जब-जब हमने बहुत ठहरकर, बहुत संजीदगी के साथ उनके काम को देखा तो अनायास ही हमें महसूस हुआ कि वे अपने आप में कितना कुछ समेटे हुए थे, अद्भुत, यादगार एवं विलक्षण। सिनेमा दर्शकों का ऐसे महान् फिल्मकार की फिल्मों से अनभिज्ञ रहना इस संसार में रहते हुए भी सूर्य, चन्द्रमा एवं तारों को न देखने जैसा है।

श्याम बेनेगल का जन्म 14 दिसम्बर 1934 को हैदराबाद में हुआ। हैदराबाद की ओसमानिया यूनिवर्सिटी से इकोनोमिक्स में एमए करने के बाद बेनेगल ने आगे जाकर हैदराबाद फिल्म सोसायटी की स्थापना की। उनका संबंध कोंकणी बोलने वाले चित्रपुर सारस्वत परिवार से था। उनका असली नाम श्याम सुंदर बेनेगल था। श्याम बेनेगल की शादी नीरा बेनेगल से हुई थी और उनकी एक बेटी पिया बेनेगल है, जो एक कॉस्ट्यूम डिजाइनर हैं, जिन्होंने कई फिल्मों के लिए भी काम किया है। श्याम ने बचपन में ही अपने फोटोग्राफर पिता श्रीधर बी. बेनेगल के कैमरे से पहली फिल्म शूट की थी। 1962 में उन्होंने पहली डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘घर बैठा गंगा’ बनाई, जो गुजराती में थी। बेनेगल को भारत सरकार द्वारा 1976 में पद्मश्री और 1991 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनकी सफल फिल्मों में मंथन, जुबैदा और सरदारी बेगम शामिल हैं। जिनमें जीवन के कठोर यथार्थ को बेनेगल ने सिनेमा-शिल्प में, महीन अर्थवत्ता के साथ नाटकीयता के धनीभूत आशयों में अभिव्यक्ति दी, प्रस्तुति दी है। उनकी फिल्मों में एक ऐसी सार्वजनीनता है, जो धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, देशी-विदेशी सभी को बहुत भीतर तक स्पर्श करती रही है।

श्याम बेनेगल की आखिरी फिल्म ‘मुजीबः द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ थी, जिसका उन्होंने निर्देशन किया था। इस फिल्म ने भारत ही नहीं, बल्कि बांग्लादेश में भी सुर्खियां बटोरीं। यह फिल्म बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान पर आधारित थी, जो बांग्लादेश के राष्ट्रपति भी थे। उनकी जिंदगी पर बनी फिल्म ने बांग्लादेश में 2024 में तख्तापलट करवा दिया था और शेख हसीना को इस्तीफा देना पड़ा था। यह फिल्म दिखाती है कि मुजीबुर्रहमान के राजनीतिक सफर की शुरुआत कैसे हुई थी, उन्होंने किस तरह बांग्लादेश की स्वाधीनता के लिए काम किया। इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और बांग्लादेश फिल्म विकास निगम ने मिलकर बनाया था। यह फिल्म जहां एक राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रस्तुति दी, वहीं दो राष्ट्रों के आपसी संबंधों को भी गहराई से उजागर किया।

इस फिल्म को बंगाली के साथ-साथ हिन्दी भाषा में भी रिलीज किया गया था। इस फिल्म का एलान करते हुए बेनेगल ने बताया था कि शेख मुजीबुर्रहमान के जीवन को पर्दे पर उतारना उनके लिए एक कठिन काम रहा है। उन्होंने कहा था, यह फिल्म मेरे लिए एक बहुत ही भावनात्मक फिल्म है। मुजीब के किरदार को बेबाकी से पेश किया है, वे भारत के बहुत अच्छे दोस्त रहे। उनकी यह फिल्म ही नहीं, बल्कि हर फिल्म ने एक इतिहास निर्मित किया। क्योंकि यह उनकी ही प्रतिभा थी कि वे लगातार काम करने की रणनीतियों में बदलाव लाते रहे और फिल्म-निर्माण को एक विराट फलक तक ले जाते रहे। भारतीय सिनेमा के लगभग सौ साला इतिहास में बेनेगल एक बड़े वटवृक्ष की भांति दिखाई देते हैं।

भारतीय सिनेमा को विश्व में नई और अद्वितीय पहचान दिलाने में बेनेगल का अविस्मरणीय योगदान था। बेनेगल की पहली चार फीचर फिल्मों- अंकुर (1973), निशांत (1975), मंथन (1976) और भूमिका (1977)- ने उन्हें उस दौर की नई लहर फिल्म आंदोलन का अग्रणी बना दिया। बेनेगल की मुस्लिम महिला पर आधारित फिल्में मम्मो (1994), सरदारी बेगम (1996) और जुबैदा (2001) सभी ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। 1959 में, उन्होंने मुंबई स्थित विज्ञापन एजेंसी लिंटास एडवरटाइजिंग में कॉपीराइटर के रूप में काम करना शुरू किया, जहाँ वे धीरे-धीरे क्रिएटिव हेड बन गए। 1963 में एक अन्य विज्ञापन एजेंसी के साथ कुछ समय तक काम किया।

इन वर्षों के दौरान, उन्होंने 900 से अधिक प्रायोजित वृत्तचित्र और विज्ञापन फिल्मों का निर्देशन किया। 1966 और 1973 के बीच बेनेगल ने पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में पढ़ाया और दो बार संस्थान के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। उनके शुरुआती वृत्तचित्रों में से एक ‘ए चाइल्ड ऑफ द स्ट्रीट्स’ (1967) ने उन्हें व्यापक प्रशंसा दिलाई। कुल मिलाकर, उन्होंने 70 से अधिक वृत्तचित्र और लघु फिल्में बनाई हैं।

बेनेगल ने 1992 में धर्मवीर भारती के एक उपन्यास पर आधारित सूरज का सातवां घोड़ा फिल्म बनाई, जिसने 1993 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। 1996 में उन्होंने फातिमा मीर की ‘द अप्रेंटिसशिप ऑफ ए महात्मा’ पर आधारित पुस्तक द मेकिंग ऑफ द महात्मा पर आधारित एक और फिल्म बनाई। उनके जीवनी सामग्री की ओर इस मोड़ के परिणामस्वरूप नेताजी सुभाष चंद्र बोसः द फॉरगॉटन हीरो, उनकी 2005 में अंग्रेजी भाषा की फिल्म बनी। उन्होंने समर (1999) में बनी फिल्म में भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना की, जिसने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। बेनेगल की फिल्म मंडी (1983), राजनीति और वेश्यावृत्ति के बारे में एक व्यंग्यपूर्ण कॉमेडी थी, जिसमें शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल ने अभिनय किया था।

बाद में, 1960 के दशक की शुरुआत में गोवा में पुर्तगालियों के अंतिम दिनों पर आधारित अपनी कहानी पर काम करते हुए, श्याम ने त्रिकाल (1985) में मानवीय रिश्तों की खोज की। इन फिल्मों की सफलता के बाद, बेनेगल को स्टार शशि कपूर का समर्थन मिला, जिनके लिए उन्होंने जुनून (1978) और कलयुग (1981) बनाई। पहली फिल्म 1857 के भारतीय विद्रोह के अशांत काल के बीच की एक अंतरजातीय प्रेम कहानी थी, जबकि दूसरी महाभारत पर आधारित थी और यह बड़ी हिट नहीं थी, हालांकि दोनों ने क्रमशः 1980 और 1982 में फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीते। हजारों अविस्मरणीय किरदार और जिंदगी की असंख्य सच्चाइयों को खोलती उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की एक अमूल्य धरोहर है।

एक समय ऐसा आया जब बेनेगल की फिल्मों को उचित रिलीज नहीं मिली। इसके चलते हुए उन्होंने  टीवी की ओर रुख किया जहां उन्होंने भारतीय रेलवे के लिए यात्रा (1986) जैसे धारावाहिकों का निर्देशन किया और भारतीय टेलीविजन पर किए गए सबसे बड़े प्रोजेक्ट में से एक, जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर आधारित 53-एपिसोड का टेलीविजन धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ (1988) का निर्देशन किया। इसी तरह टीवी सीरीयल ‘संविधान’,‘कहता है जोकर’ एवं ‘कथा सागर’का निर्देशन भी किया। इससे उन्हें एक अतिरिक्त लाभ हुआ, क्योंकि वे 1980 के दशक के अंत में धन की कमी के कारण नया सिनेमा आंदोलन के पतन से बचने में कामयाब रहे, जिसके साथ कई नव-यथार्थवादी फिल्म का निर्माता खो गया। बेनेगल ने अगले दो दशकों तक फिल्में बनाना जारी रखा।

श्याम बेनेगल की फिल्म-प्रतिभा हमें चौंकाती रही है, रोमांचित करती रही है, उकसाती रही है, क्योंकि उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे आम लोगों के जीवन की सच्चाई और उनके संघर्षो को प्रामाणिकता एवं जीवंतता के साथ प्रस्तुत करते रहे हैं। भारतीय जिंदगी के रंग बेशुमार है, कला-संस्कृति की अविस्मरणीय धाराएं हैं, अनूठा एवं बेजोड़ इतिहास और उसकी कहानियां भी अनंत-अथाह। बेनेगल का फिल्मी-युग भारत की खिड़की से विश्व को देखने एवं विश्व को भारत दिखाने की पहल का एक स्वर्णिम युग है। भारतीय सिनेमा दिग्दर्शन के इस विशिष्ट हस्ताक्षर श्याम बेनेगल के निधन से निश्चित ही एक सर्जनशील कलासाधक एवं सच्चाई को रूपहले पर्दे पर उतारने वाले सफल एवं सार्थक फिल्मकार का अंत हो गया।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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