-ः ललित गर्ग:-
लाखों-करोड़ों हिन्दू श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र तिरुमाला भगवान वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर में मिलने वाले लड्डू वाले प्रसाद में घी की जगह जानवरों की चर्बी और मछली के तेल का इस्तेमाल की शर्मनाक एवं लज्जाजनक घटना ने न केवल चौंकाया है बल्कि मन्दिर व्यवस्था पर सवाल खड़े किये हैं। यह मामला जितना सनसनीखेज है, उतना ही आस्था पर आघात करने वाला भी। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने पहले यह कहा कि तिरुपति मंदिर में मिलने वाले लड्डुओं को बनाने में ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें पशुओं की चर्बी मिली रहती थी, फिर उन्होंने गुजरात की एक सरकारी प्रयोगशाला से मिली रपट के आधार यह कहा कि लड्डुओं को बनाने में जिस घी का उपयोग होता था, उसमें सचमुच पशुओं की चर्बी, मछली के तेल आदि का प्रयोग होता था। यह घटना हिन्दू आस्था, पवित्रता एवं मन्दिर संस्कृति को धुंधलाने की कुचेष्ठा एवं एक विडम्बनापूर्ण त्रासदी है। अगर प्रसाद के मिलावटी एवं अपवित्र होने की बात सही है तो इससे अधिक आघातकारी, अनैतिक एवं अधार्मिक और कुछ हो ही नहीं सकता। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रसाद के तौर इन लड्डुओं का वितरण न केवल श्रद्धालुओं के बीच किया गया, बल्कि भगवान को भी भोग के तौर पर यही लड्डू चढ़ाया जाता था। अब इस मामले में केंद्र सरकार एवं प्रांत सरकार के दखल देने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता क्योंकि हिंदुओं की आस्था से खिलवाड़ करने वाला यह प्रकरण अक्षम्य अपराध है, जिसकी गहन जांच होनी ही चाहिए, ताकि ऐसे जघन्य कृत्य अन्य मन्दिरों की अस्मिता के धुंधलाने के कारण न बने।
प्रथम दृष्टया मंदिर प्रबंधन प्रसादम से खिलवाड़ का दोषी है। जो मंदिर प्रतिदिन तीन लाख लड्डू बेचकर सालाना 500 करोड़ रुपये तक लाभ कमाता है, वह क्या इतना सक्षम नहीं कि गुणवत्ता जांच के लिए एक किफायत्ती प्रयोगशाला ही बना ले? मंदिर प्रबंधन के पास न तो अपनी जांच सुविधाएं हैं और न वह जांच कराने का इच्छुक था? देश के संपन्नतम मंदिरों में शुमार यह तीर्थ अगर गुणवत्ता, आस्था एवं पवित्रता से समझौता कर रहा है, तो देश के बाकी मंदिरों में क्या हो रहा होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। मन्दिरों एवं आस्थास्थलों पर दिनोंदिन बढ़ रही श्रद्धालुओं की आस्था एवं भीड़ से आर्थिक लाभ कमाने की मानसिकता न केवल घिनौनी है बल्कि शर्मनाक भी है। मंदिर तो भगवान भरोसे चल रहे हैं, पर मन्दिर-प्रबंधन स्वयं को अर्थपति बनाने में जुटा है, यही कारण है कि मन्दिर को धंधा बना दिया गया है, ऐसे मन्दिर प्रबंधकों, पूजारियों एवं पदाधिकारियों की श्रद्धा न तो भगवान के प्रति है और न भक्तों के प्रति। वे तमाम मंदिर, जो अपने यहां से प्रसाद वितरित करते हैं या बेचते हैं, उन सभी को गुणवत्ता, शुद्धता एवं पवित्रता जांच की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए।
एक बड़ा सवाल यह है कि ये कौन लोग हैं, जिन्हें पवित्रता एवं जन-आस्था की परवाह नहीं है। मंदिर ट्रस्ट ने प्रसादम से खिलवाड़ और मिलावट की पुष्टि की है। देश के एक पवित्रम श्रद्धा केंद्र तिरुपति मंदिर का प्रबंधन करने वाली संस्था तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम ने कहा है कि घी के आपूर्तिकर्ताओं ने मंदिर में गुणवत्ता जांच की सुविधा न होने का फायदा उठाया है। अब सवाल उठता है कि मंदिर प्रबंधन की सफाई या स्वीकारोक्ति को कितनी गंभीरता से लिया जाए? क्या मंदिर प्रबंधन को अपराध की गंभीरता का अंदाजा है? क्या मंदिर प्रबंधन को मंदिर की पवित्रता का अनुमान है? देश एवं दुनिया के सबसे चर्चित आस्थास्थल से खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है। यह अफसोस की बात है कि मंदिरों में बाहर से चढ़ने वाला प्रसाद तो पहले से ही संदेह के दायरे में रहता है, पर अगर मंदिर की अपनी रसोई में तैयार होने वाले प्रसाद की भी विश्वसनीयता आहत हुई है, तो यकीन मानिए, इंसान फिर किन पर भरोसा करेगा? क्योंकि व्यापार में मिलावट तो चल ही रही है, अब मन्दिरों में यानी भगवान के दरबार में मिलावट से मनुष्यता गहरे रसातल में चली गयी है। मूल्यहीनता एवं अनैतिकता की यह चरम पराकाष्ठा है। गुणवत्ता एवं पवित्रता सुनिश्चित करने वाले अधिकारियों के लिए यह एक गंभीर चुनौती है और इस चुनौती को स्वीकार करते हुए युद्ध स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।
इस खुलासे के बाद लोग अपना गुस्सा एवं आक्रोश भी जाहिर कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही 1984 में भी हुआ था जब डालडा में चर्बी मिले होने का मामला सामने आया था, लेकिन वह व्यापार का मामला था, लेकिन तिरुपति प्रसादम में मिलावट का मामला आस्था का है। भूल, अपराध एवं लापरवाही की नब्ज को ठीक-ठीक समझना जरूरी है। भूल सही जा सकती है, लेकिन लापरवाही एवं आपराधिक सोच को सहन नहीं किया जा सकता। दरवाजे पर बैठा पहरेदार भीतर-बाहर आने-जाने वाले लोगों को पहचानने में भूल कर सकता है मगर सपने नहीं देख सकता। लापरवाही एवं अपराधिक मानसिकता विश्वसनीयता एवं पवित्रता को तार-तार कर देती है। बुराइयां जब भी मन पर हावी होती हैं, गलत रास्ते खुलते चले जाते हैं। मन्दिरों पर बुराइयां हावी होना चिन्ताजनक ही नहीं, गंभीर खतरों के संकेत हैं। मन्दिर प्रबंधन को अधिक चुस्त-दुरस्त, पारदर्शी एवं नैतिक बनाने की भी जरूरत है। प्रश्न है कि हिन्दू मन्दिरों में ही ऐसे मामले क्यों सामने आते हैं, क्या मन्दिर प्रबंधन अन्य समुदायों के मन्दिरों या धार्मिक-स्थलों की तरह पवित्र, गुणवत्ता पूर्ण, उच्च चारित्रिक एवं नैतिक देखभाल नहीं कर सकते?