विपक्षी गठबंधन इंडिया की उलटी गिनती का क्रम रूकने का नाम नहीं ले रहे हैं। दिल्ली, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से आ रही खबरों से साफ होता है कि इंडिया गठबंधन इंडिया में सब कुछ सही नहीं चल रहा। लगातार चुनावी नाकामियों से पैदा हुई बेचैनी गठजोड़ पर भारी पड़ रही है। एक-दूसरे के खिलाफ असंतोष, दोषारोपण और बयानबाजी विपक्ष एकता के लिए बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं, जो गठबंधन की मुश्किलें बढ़ाने का ही सबब है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रभावी प्रदर्शन एवं परिणामों के कारण ही वह अधिकारपूर्वक इंडिया का नेतृत्व अपने हाथों में लेकर गठबंधन की अगुआई करने में सक्षम हो पायी।
लेकिन कांग्रेस की ओर से ऐसी कोई मजबूत एवं प्रभावी पहल बाद में हुए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर आदि प्रांतों के चुनावों में देखने को नहीं मिली, राज्यों के विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन का हिस्सा होते हुए भी पार्टियों ने अपनी क्षेत्रीय जरूरत को सर्वोपरि रखते हुए फैसले लिए जो गठबंधन की प्रतिबद्धताओं पर प्रश्न लगाती है। अडाणी मुद्दे को लेकर शीतकालीन संसद सत्र में इंडिया गठबंधन में दरार दिखने लगी है। अडानी के मुद्दें पर कांग्रेस और राहुल गांधी लगातार संसद में हंगामा कर रहे हैं, सदन की कार्यवाही नहीं चल पाई है। वहीं, अडानी के मुद्दे पर इंडिया गठबंधन के घटक दल समाजवादी पार्टी और टीएमसी कांग्रेस से अलग अपना रुख दिखाते हुए आम सहमति नहीं बना पा रहे हैं। वैसे भी ये दोनों दल ही 66 सांसदों के साथ गठबंधन के मजबूत आधार है।
निश्चित रूप से कांग्रेस के मुद्दों से इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल ही कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं। भाजपा जब कांग्रेस से मुकाबले में होती है तब उसका प्रदर्शन सबसे अच्छा रहता है। जबकि क्षेत्रीय नेताओं के मुकाबले राहुल का जादू फीका पड़ता है। इसके उदाहरण हैं झारखंड के हेमंत सोरेन का शानदार प्रदर्शन और बंगाल की ममता बनर्जी जिन्होंने उपचुनाव में सारी सीटें जीत ली। हरियाणा विधानसभा चुनावों में हमने देखा कि इंडिया गठबंधन में शामिल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की बातचीत टूटने के बाद से कांग्रेस के जीत के सपनों को सेंध लगी थी और वहां भाजपा ने शानदार जीत हासिल करते हुए सरकार बनाने में कामयाब रही। महाराष्ट्र में भी इंडिया गठबंधन का प्रदर्शन निराशाजनक रहा।
आप ने तो कांग्रेस से दूरी बनायी ही है, अन्य दल भी दूरियां बना रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस एवं आप के बीच सहमति नहीं पायी है। आप ने समझ लिया है कि गठबंधन से कांग्रेस को ही फायदा अधिक होता है। इस तरह गठबंधन के टूटन से भाजपा की निराशा के बादल कुछ सीमा तक पहले भी छंटते हुए दिखाई दिये हैं और दिल्ली में ही ऐसा होता हुआ दिख रहा है। कांग्रेस, आप एवं भाजपा के त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा भाजपा को ही मिला है और आगे भी ऐसा ही होने की संभावनाएं है।
महाराष्ट्र चुनाव में भी विपक्षी गठबंधन इंडिया बिखरा हुआ ही प्रतीत हुआ, सपा ने शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट से नाराजगी की बात कहते हुए महाविकास अघाड़ी गुट से नाता तोड़ा, भले इससे राज्य की सियासत पर असर न पड़ा हो, लेकिन इसके गहरे राजनीतिक मायने हैं। इसी तरह, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का इंडिया को लीड करने की इच्छा जाहिर करना भी बहुत कुछ कहता है। इन दोनों की नाराजगी गठबंधन के नेतृत्व और इस तरह से सीधे कांग्रेस को लेकर है। विभिन्न राज्यों में जहां-जहां इंडिया गठबंधन दलों की सरकारें हैं, वे अडाणी जैसे मुद्दों से दूरी बनाना चाहते हैं। ममता बनर्जी ने जिस तरह यह कहा कि उनका दल कांग्रेस की ओर से उठाए गए किसी एक मुद्दे को प्राथमिकता नहीं देगा, उससे यही संकेत मिला कि वह नहीं चाहतीं कि अदाणी मामले को तूल दिया जाए।
कांग्रेस को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि गत दिवस ही माकपा के नेतृत्व वाली केरल सरकार ने बंदरगाह के विकास के लिए अदाणी समूह के साथ एक पूरक समझौते को अंतिम रूप दिया। साफ है कि माकपा भी अदाणी मामले में कांग्रेस के रुख से सहमत नहीं। तेलंगाना सरकार ने अदाणी समूह के साथ एक समझौता कर रखा है और अतीत में राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने भी राज्य में इस समूह के निवेश को हरी झंडी दी थी। आखिर राहुल गांधी इन स्थितियों को क्यों नहीं समझ एवं देख रहे हैं?
विपक्ष गठबंधन इंडिया में सबसे ज्यादा कमी आम सहमति की दिखाई देती है। सीटों से लेकर मुद्दों तक, सहयोगी दलों के बीच कहीं एकजुटता एवं आम सहमति नहीं दिखती। इसी शीतकालीन सत्र में अदाणी मामले पर कांग्रेस और टीएमसी ने अलग राह पकड़ ली। दरअसल, यह टकराव राष्ट्रीय राजनीति में फिर से मजबूत होने की कोशिश कर रही कांग्रेस और अपनी खोयी राजनीतिक जमीन को पाने के लिए लड़ रहीं क्षेत्रीय राजनीति की धुरंधर पार्टियों के बीच का ज्यादा है। देखा जाए तो समय-समय पर इस तरह की खबरें आती रही हैं, जो विपक्षी एकता के लिए चुनौती खड़ी कर देती हैं। कुछ अरसा पहले ही यूपी में उपचुनाव को लेकर कांग्रेस और सपा के बीच जैसी असहज स्थिति बनी थी, वैसा सहयोगियों के बीच तो नहीं होता। महाराष्ट्र चुनाव के दौरान भी सहयोगी दलों में तालमेल की कमी होने की बात सामने आई थी।
बंगाल में पहले ही कांग्रेस और टीएमसी एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। इसी तरह, दिल्ली में आप और कांग्रेस में गठजोड़ नहीं है। यह कैसा गठबंधन है, जिसमें इतने अंतर्विरोध एवं असहमतियां हों। जहां पार्टियां आम चुनाव में साथ हों, लेकिन राज्यों के चुनाव में आमने-सामने। ऐसे में इन दलों के समर्थकों की उलझन की सहज की कल्पना की जा सकती है और इससे गठबंधन की मूल विचारधारा पर प्रश्न खड़े होने भी स्वाभाविक है। गठबंधन की सफलता के लिये नीति एवं नियत में एकजुटता जरूरी है। गठबंधन तभी सफलता से चलता है, जब सारे पक्ष थोड़ा-थोड़ा त्याग करें और किसी बड़े लक्ष्य को सामने रखे। क्षेत्रीय पार्टियों की बहुलता और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों की प्रधानता के चलते भी इस तरह के गठबंधन को लंबे समय तक चला पाना मुश्किल हो जाता है। चुनावी हार और सत्ता से बाहर होने की स्थिति में तो ऐसे गठबंधन को संभालना लगभग असंभव ही हो जाता है। ऐसी स्थितियों में क्या इंडिया गठबंधन के भविष्य पर धुंधलके छाने लगे है। क्या वह अंतिम सांसें गिन रहा है।
विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चिंता यह है कि आम चुनाव के बाद वह जितना एकजुट और मजबूत नजर आ रहा था, अब उतना ही बिखरा एवं अलग-थलग होता हुआ दिख रहा है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड की जीत इतनी बड़ी नहीं है, जो बाकी हार को छुपा सके। इन दोनों राज्यों में भी विपक्षी गठबंधन इंडिया की जीत में क्षेत्रीय दलों की बड़ी भूमिका रही और कांग्रेस की कम। इसलिए अब विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व को लेकर भी उसे चुनौतियां मिल रही हैं। आने वाले चुनाव विपक्षी गठबंधन के भविष्य के लिए भी अहम और निर्णायक होंगे। विपक्ष की मजबूती उसके खुद के लिए ही नहीं, एक मजबूत लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है। इंडिया गठबंधन का मूल उद्देश्य भाजपा एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कमजोर करना है, लेकिन इसके लिये कांग्रेस एवं गठबंधन प्रभावी मुद्दें प्रस्तुत करने में नाकाम रही है।
जबकि भाजपा ने महाराष्ट्र में हिंदू मतदाताओं के रुझान का ख्याल रखा। इसी के हिसाब से नारे गढ़े। लाडकी बहिन जैसी लाभार्थी योजना, आरक्षण के सवालों और महाराष्ट्र के किसानों के मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी रणनीति बनाई। लेकिन राहुल गांधी ऐसे चुनावी मुद्दों को गढ़ने में क्यों असफल रहे? इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों के नेता राहुुल गांधी की इन स्थितियों पर गंभीर मंथन कर रहे हैं। राहुल गांधी बेतुकी आक्रामकता से उपरत क्यों नहीं हो रहे हैं? वे सदन के भीतर एवं सदन के बाहर ऐसी ही तर्कहीन बातों एवं बयानों से अराजक माहौल बना रहे हैं। जिससे कांग्रेस तो कमजोर हो ही रही है, इंडिया गठबंधन भी कमजोर होता जा रहा है, यही बड़ा कारण है इसके बिखराव का, टूटन का।