• प्रमोद दीक्षित मलय
किसी व्यक्ति के समाज जीवन में किया गया एक समाजोपयोगी राष्ट्रीय कार्य उसे न केवल वैश्विक पहचान देता है बल्कि उसका व्यक्तित्व भी वामन से विराट बना देता है। व्यष्टिगत सुख, सुविधा एवं संतुष्टि से ऊपर लोकसृष्टि एवं समष्टि के कल्याण की वरीयता, हित-कामना एवं योगक्षेम की चिंता उसे महामानव बना देती है। संसार के प्राचीनतम शैक्षिक एवं सांस्कृतिक नगर काशी में अविस्थित शिक्षा का महान केन्द्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय न केवल अपनी शोध एवं शैक्षिक उपलब्धियों का स्वर्णिम आलोक बिखेर रहा है बल्कि एक महनीय व्यक्तित्व के दूरदर्शी स्वप्न, संघर्ष एवं संकल्प सिद्धि की यश पताका भी जग सम्मुख फहरा रहा है, जिन्हें विश्व महामना मदन मोहन मालवीय के नाम से जानता और अपना श्रद्धा-नीर निवेदित करता है। जिन्हें महात्मा गांधी ने अपना बड़ा भाई कहा और महामना कहकर पुकारा। हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी में पारंगत मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चार बार अघ्यक्ष चुने गये और दूसरे गोलमेज सम्मेलन 1931 में भारत का प्रतिनिधित्व कर अपने तर्क, मेधा एवं तथ्यपरक वैदुष्यपूर्ण वक्तव्य से लंदन में धाक जमा दी। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में शिक्षाविद, संपादक, प्रखर अधिवक्ता, समाज सुधारक, कुशल संगठक और हिंदी भाषा का प्रबल पक्षधर छवि दिखाई देती है।
ब्राह्मण मदन मोहन मालवीय के पूर्वज मालवा से आजीविका हेतु प्रयाग में आ बसे थे, इसी कारण इन्हें मालवीय कहा जाने लगा जो कोई जातिनाम न होकर क्षेत्र विशेष की पहचान ही थी। यहीं 1861 में 25 दिसम्बर को पिता ब्रजनाथ और माता मीना देवी के पुत्र के रूप में बालक मदन मोहन का जन्म हुआ। पिता श्रीमद्भागवत कथा वाचन करते थे और चाहते थे कि मदन मोहन भी इस परम्परा को आगे बढ़ाये। तो शुरुआती शिक्षा घर में ही पिता की देखरेख हुई जिसमे बालक ने संस्कृत की आरम्भिक समझ विकसित की और कुछ श्लोक एवं चौपाईयां कंठस्थ कर लीं। साथ ही पूजन की कार्य पद्धति भी सीखने लगे। आगे की शिक्षा के लिए एक धार्मिक विद्यालय जाना हुआ। फिर प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर सेंट्रल कालेज में प्रवेश लिया और 1879 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण किया। इसी मध्य 1878 में आपका विवाह भी सम्पन्न हुआ। छात्रवृत्ति पाकर आगे की शिक्षा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचे और 1884 में बी.ए. उपाधि प्राप्त कर लौटते ही इलाहाबाद में 40 रुपये मासिक मानदेय पर शिक्षक के रूप में काम प्रारम्भ किया। एम.ए. करने की आकांक्षा पर अर्थाभाव पथ का कंटक बना। इसी बीच देश में एक बड़ी राजनीतिक गतिविधि के रूप अंग्रेज कलेक्टर ए.ओ.ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की जिसके 1886 में कलकत्ता में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में आयोजित दूसरे अधिवेशन में 25 वर्षीय मदन मोहन मालवीय ने न केवल सहभागिता की बल्कि अपने धारदार ओजस्वी भाषण से सबको अपना प्रशंसक बना लिया। अधिवेशन में चतुर्दिक मालवीय का गुणगान हो रहा था। तभी राजा रामपाल सिंह के अपने साप्ताहिक पत्र ‘हिन्दुस्तान’ के संपादन दायित्व संभालने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लगभग तीस महीने तक संपादक के रूप में काम कर लेखनी का जादू बिखेरा। तत्पश्चात विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त कर 1891 में जिला न्यायालय में वकालत शुरू किया और प्रगति करते हुए 1893 में उच्च न्यायालय इलाहाबाद में केस लड़ने लगे। यह पेशे के प्रति समर्पण एवं लगन ही थी कि जल्दी ही आपका नाम मोतीलाल नेहरू और सर सुदर लाल जैसे नामचीन वकीलों की पंक्ति में शुमार होने लगा।