पीठ में दर्द होने को लोग टालते रहते हैं जबकि यह खतरनाक है
आज भी टीबी की बीमारी भारत में एक गंभीर समस्या के रूप में व्याप्त है और इसका सबसे बड़ा कारण है जागरूकता की कमी होना। टीबी जैसी गंभीर बीमारी की व्यापकता देखते हुए और इसके बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से विश्वभर में 24 मार्च को टीबी दिवस मनाया जाता है। अक्सर लोग पीठ दर्द को मामूली दर्द समझकर और जीवनशैली का हिस्सा मानकर अनदेखी कर देते हैं, लेकिन इसकी अधिक समय तक अनदेखी घातक हो सकती है। पीठ दर्द के बहुत सारे मामले जब जांच के लिए पहुंचते हैं तो पता चलता है कि पीड़ित रीढ़ की टीबी का शिकार है। पीठ दर्द को सामान्य समझ कर इलाज नहीं कराने वाले इसके प्रभाव से स्थाई रूप से अपाहिज भी हो जाते हैं। लोग अक्सर ऐसी दशा में पहुंचते हैं जब उनकी बीमारी बहुत बढ़ चुकी होती है। पीठ में दर्द होने को लोग टालते रहते हैं जबकि यह खतरनाक है। इसकी पहचान भी जल्दी नहीं होती इसलिए दो-तीन हफ्ते के बाद भी पीठ दर्द में आराम न हो तो तुरंत डॉक्टर के पास पहुंचना चाहिए। इसकी पहचान आम एक्सरे से नहीं हो पाती है। इसके लिए बायोप्सी करानी होती है। यदि रीढ़ के बीच वाले हिस्से में दर्द हो रहा हो तो देर नहीं करना चाहिए। उनके अनुसार, डॉक्टरों के पास पहुंचने वाले 10 फीसदी मरीजों में ग्रीवा रीढ़ की टीबी का पता चलता है। यह अधिक गंभीर है।
हालांकि आम टीबी का इलाज छह महीने में हो जाता है, लेकिन इस टीबी के दूर होने में 12 से 18 महीने का वक्त भी लग सकता है, लेकिन दवा किसी भी हाल में नहीं छोड़ना चाहिए। दवा छोड़ने पर दवा के प्रति प्रतिरोधक शक्ति बन जाती है और फिर इलाज लंबा चलता है। गौरतलब है कि टीबी का कीटाणु फेफड़े से खून में पहुंचता है और इसी से रीढ़ तक उसका प्रसार होता है। बाल और नाखुन छोड़कर टीबी किसी भी हिस्से में हो सकता है। जो लोग सही समय पर इलाज नहीं कराते या इलाज बीच में छोड़ देते हैं उनकी रीढ़ गल जाती है, जिससे स्थाई अपंगता आ जाती है। हर आयु और वर्ग के लोग रीढ़ की हड्डी के टीबी का शिकार हैं। फेफड़ों में टीबी होने के अलावा टीबी बैक्टीरिया शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे दिमाग, पेट, हड्डियों और रीढ़ की हड्डी को भी प्रभावित कर सकता है।
रीढ़ की हड्डी में होने वाला टीबी इंटर वर्टिबल डिस्क में शुरू होता है, फिर रीढ़ की हड्डी में फैलता है। समय पर इलाज न किया जाये तो पक्षाघात की आशंका रहती है। यह युवाओं में ज्यादा पायी जाती है। इसके लक्षण भी साधारण हैं कि अक्सर लोग इसे नजरअंदाज कर देते हैं। रीढ़ की हड्डी में टीबी होने के शुरुआती लक्षण कमर में दर्द रहना, बुखार, वजन कम होना, कमजोरी या फिर उल्टी इत्यादि हैं। इन परेशानियों को लोग अन्य बीमारियों से जोडकर कर देखते हैं, लेकिन रीढ़ की हड्डी में टीबी जैसी गंभीर बीमारी का संदेह बिल्कुल नहीं होता। पिछले कुछ सालों में कुछ ऐसे मामले सामने आए है जिसमें गर्भावस्था के दौरान महिलाओं में स्पाइनल टीबी देखा गया है। सर्वे के अनुसार यह टीबी किसी को भी हो सकता है लेकिन गर्भाधारण की हुई महिलाओं को टीबी होने का थोड़ा अधिक खतरा बना रहता है। वे महिलाएं जिन्हें होने का अधिक खतरा होता हैः-
यदि घर में किसी को पहले से टीबी की षिकायत हो और वे उसके साथ कुछ समय के लिए भी रही हो, उस महिला को अधिक खतरा होने का होता है। बार-बार बीमार होना यानी अपने संक्रमण रोग से लड़ पाने में सक्षम ना होना। वजन का हद से ज्यादा कम होना यानी सामान्य से कम वनज होना। मुख्य लक्षण है जैसे कि बेेेक में अकड़न आना, स्पाइन के प्रभावित क्षेत्र में खासकर रात के समय असहनीय दर्द रहना, प्रभावित रीढ़ की हड्डी में झुकाव होना, पैरों और हाथों में हद से ज्यादा कमजोरी और सुन्नपन रहना, हाथों और पैरों की मासं पेषियों में खिंचवा, स्टूल व यूरीन पास करने में परेषानी , स्पाइन हड्डी में सूजन हो जिसमें दर्द हो भी सकता है और नहीं भी, सांस लेने में दिक्कत, उपचार को बीच में ही छोड़ देने के कारण पस की थैली फट जाना ।
इस बीमारी के दुष्प्रभावों में सबसे गंभीर है रीढ़ की हड्डी में असामान्यता उत्पन्न होना और जिसके गंभीर होने पर सर्जरी ही एकमात्र उपाय बचता है। वैसे तो रीढम् की हड्डी की सर्जरी काफी रिस्की मानी जाती है लेकिन मेडिकल टेक्नोलॉजी में कई ऐसी तकनीकें उभरकर सामने आई हैं, जिससे रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन न सिर्फ सुरक्षित हो गया है, बल्कि बिना चीर-फाड़ के होने से रोगी को बहुत जल्दी स्वास्थ्य लाभ होता है। इसमें बैलून को वर्टिबल कोशिकाओं के बीच में फुलाया जाता है ताकि कोशिकाएं अपनी सही स्थिति में आ सकें। बैलून हल्के तरीके से अंदरूनी हड्डी के अंदर जाकर वर्टिबल कोशिकाओं को उठा देते हैं और इससे बीच में रिक्त स्थान हो जाता है। उस रिक्त स्थान पर बोन सीमेंट जमा कर दिया जाता है। सीमेंट वर्टिबल को सही स्थिति में रखने में मदद करता है। इसके बाद बैलून को पिचका दिया जाता है और बाहर निकाल दिया जाता है। बैलून कायफोप्लॉस्टी में एक फ्रैक्चर का इलाज करने में तकरीबन एक घंटा लगता है। इस प्रक्रिया को करने से पहले रोगी की स्थिति का जायजा लिया जाता है। पिछले दो दशकों से ये प्रक्रिया सबसे सुरक्षित मानी जाती है।
नजरांदाज न करें, समय पर पहचानें
इस तरह की नई प्रक्रियाओं द्वारा टीबी का इलाज संभव है, लेकिन समय रहते इसके लक्षणों की पहचान करके जल्द से जल्द डॉक्टर से परामर्श लेना बहुत जरूरी है। बैलून कायफोप्लॉस्टी द्वारा रीढ़ की हड्डी की सर्जरी से टीबी जैसी गंभीर बीमारी का इलाज बिना किसी चीर-फाड के आसानी से किया जा सकता है जिससे रोगी को जल्द आराम मिलता है और संक्रमण की गुंजाइश कम रहती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने रीढ़ की हड्डी से सबधित अनेक रोगों व विकारों पर विजय पा ली है। समय पर तकनीकों में होने वाले बदलावों से ही यह कामयाबी मिली है। इन्हींमें से एक तकनीक नॉन फ्यूजन है। यह तकनीक रीढ़ की हड्डी से सबधित रोगों जैसे स्लिप डिस्क, स्लिप्ड वर्टिब्रा और स्पॉन्डिलाइटिस को जड़ से खत्म कर देने में बेहद कारगर है। सहज शब्दों में कहें तो रीढ़ की हड्डी के जोड़ों के लचीलेपन को बरकरार रखने की तकनीक को नॉन फ्यूजन कहा जाता है।
पारंपरिक इलाज में स्पाइन की नसों को डीकम्प्रेस करने के लिए हड्डी के बड़े भाग को निकाल दिया जाता है। इस इलाज से बेशक दर्द में राहत मिल जाती है, लेकिन वह आराम अस्थायी होता है। हड्डी निकाल देने से अक्सर स्पाइन का मूल ढाचा बिगड़ जाता है, जो आगे चलकर एक लाइलाज बीमारी बन जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हड्डी को एक बार निकाल देने के बाद उसे दोबारा जोड़ा नहीं जा सकता। ऐसा होने पर धीरे-धीरे शरीर का लचीलापन और गतिशीलता घटने लगती है। एक समय के बाद रोगी चलने-फिरने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे में स्पाइन के रोगियों के लिए नॉन फ्यूजन तकनीक उम्मीद की एक नई किरण है। इस तकनीक से इलाज करने में फ्यूजन किए बगैर नसों को डीकम्प्रेस कर दिया जाता है। इस प्रकार स्पाइन का मूल ढाचा भी बरकरार रहता है और उसकी ताकत व लचक भी सामान्य बनी रहती है।