“आप रोते क्यों हैं। जिस देश में ऐसे वीर पैदा होते हैं वह देश धन्य है। मरेंगे तो सभी, अमर होकर कौन आया है यहां पर आपके भाई जैसा भाग्यवान विरले ही होते हैं।” जेलर के ये वाक्य सुनकर कैदी का शव लेने आये भाई ने सिर उठाकर आश्चर्य से जेलर की ओर देखा तो देखता ही रह गया क्योंकि जेलर की आंखों से अश्रु धारा बह रही थी मानो उसके हृदय की पीर-वेदना आंखों के रास्ते निकल श्रद्धा निवेदित कर रही हो। यह दृश्य है कलकत्ता के अलीपुर कारागार में फांसी पर चढ़ाए गये क्रांतिकारी कन्हाई लाल दत्त के शव को उनके परिवारजनों को सौंपते समय का। कन्हाई लाल दत्त वही क्रांतिकारी है जिसने सरकारी गवाह बन गये अपने दल के ही साथी नरेन्द्र नाथ गोस्वामी (नरेन गोसाईं) को जेल परिसर में पुलिस सुरक्षा भेदकर गोलियों से भून दिया था। पर ऐसे महनीय वीर की स्मृति को देश संजो न सका।
कन्हाई लाल दत्त का जन्म कोलकाता के निकट हुबली जनपद अंतर्गत फ्रांसीसी उपनिवेश चंद्रनगर (अब चंदन नगर) मामा के घर में जन्माष्टमी की रात को 30 अगस्त, 1888 को हुआ था। कौन जानता था कि जन्माष्टमी की मध्य रात्रि को पैदा हुआ यह बालक श्रीकृष्ण की भांति ही आतताईयों का संहार कर आमजन के कष्टों का निवारण करेगा। ब्रिटिश सरकारी सेवा में कार्यरत पिता चुन्नीलाल दत्त शिशु के रूप में पुत्र रत्न पाकर हर्षित हुए। लेकिन उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी यह बालक उनका और उनके कुल-परिवार का नाम इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित करा देगा कि कालचक्र भी मिटा न सकेगा। 4 वर्ष की अवस्था होने पर कन्हाई को पिता अपने साथ बम्बई ले गए जहां आर्य शिक्षा सोसायटी में शुरुआती शिक्षा संपन्न हुई। लेकिन बालक का मन बम्बई में नहीं रमा और वह 9 वर्ष की उम्र होने पर चंद्रनगर वापस लौट आए और यहीं पर उनकी आगे की शिक्षा का आरंभ हुआ।
कोलकाता विश्वविद्यालय अंतर्गत स्थानीय कॉलेज से स्नातक करने हेतु प्रवेश लिया। कॉलेज में कन्हाई का संपर्क एक प्राध्यापक चारुचंद्र राय से हुआ जो युगांतर से जुड़कर किशोर एवं नवयुवकों ्में राष्ट्रभक्ति, देश प्रेम और तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के बारे में संवाद करते थे। कन्हाई को अपने प्रिय शिक्षक का साथ अच्छा लगता इसी समय चंद्रनगर से प्रकाशित पत्र ‘संध्या’ के संपादक ब्रह्म बांधव उपाध्याय से भी मिलना हुआ जिनसे वह प्रभावित हुए और अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध हृदय में सुलग रही अग्नि तीव्रतर होती गई। स्नातक अंतिम वर्ष आते-आते वह समवय साथियों के बीच एक नेतृत्वकर्ता की भांति उभर चुके थे और युवकों को अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रेरित करते। स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा पूर्ण करने के बावजूद अंग्रेज उच्चाधिकारियों के आदेश पर विश्वविद्यालय द्वारा कन्हाई की डिग्री देने पर रोक लगा दी गई। आगे की शिक्षा में बाधा देख वह रोजगार की तलाश में जुट गये ताकि परिवार को आर्थिक सम्बल देते हुए मां भारती की सेवा-साधना भी कर सकें।
देश के लिए कुछ कर सकने का भाव हृदय में सहेजे वह कलकत्ता आकर बारीन्द्र घोष की संस्था युगांतर द्वारा प्रकाशित पत्र ‘युगांतर’ से जुड़ गए। कन्हाई लाल के स्पष्ट और उग्र राष्ट्रवादी विचारों के कारण उनकी बारीन्द्र से गहरी मित्रता हो गई। वह बारीन्द्र घोष के मानिकतला स्थित मकान में रहने लगे और बगीचे में नियमित रूप से क्रांतिकारी साथियों की बैठक और प्रशिक्षण में सहभागिता करने लगे। अपने विचार, निर्भीकता और बौद्धिक बल के कारण शीघ्र ही साथियों में प्रिय हो गये। क्रांतिकारी साथियों उल्लासकर दत्त, प्रफुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सत्येन्द्र नाथ बोस के बीच कन्हाई लाल दत्त की एक अलग छाप बनती गई। बगीचे में प्रतिदिन मिलना, देश-दुनिया की क्रांतिकारी गतिविधियों का आदान-प्रदान करना, युगांतर पत्र के लिए सामग्री जुटाना और उसके प्रसार में सहयोग करने जैसे काम करते हुए वे कोई बड़ी योजना पर काम कर रहे थे।
वह विश्राम के लिए उस कमरे का उपयोग करते थे जिसमें तैयार बम एवं अन्य विस्फोटक पदार्थ तथा बंदूकें-लाठी आदि रखे होते थे। इसी बीच 30 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के जिला जज किंग्सफोर्ड की घोड़ागाडी पर बम फेंका, हालांकि वह उस गाड़ी में न बैठा होने के कारण बच गया और अंग्रेज वकील की पत्नी और बेटी मारी गईं जिसका दोनों क्रांतिकारियों को दुख भी हुआ। इस बम हमले से पुलिस सतर्क हो गई। बस अड्डों, रेलवे स्टेशन और सार्वजनिक स्थानों पर चौकसी बढ़ा दी गई। संदिग्धों की धर-पकड़ शुरू हुई।
अंग्रेज सरकार ने चारों ओर गुप्तचर फैला दिए। खुफिया स्रोतों से जानकारी जुटाकर पुलिस ने अलीपुर उपनगर के मानिकतला में बारीन्द्र घोष के मकान और बगीचे में छापा मारा। अरविन्द घोष, बारीन्द्र घोष, उल्लासकर दत्त, कन्हाई लाल दत्त, नरेन्द्र नाथ गोस्वामी (नरेन गोसाईं), सत्येन्द्र नाथ बोस सहित अन्य 35 क्रांतिकारी पकड़े गये। सभी को अलीपुर कारागार में रखा गया तथा अलीपुर बम षड्यंत्र नाम से अभियोग चलाया गया। अंग्रेज सरकार किसी भी कीमत पर अरविन्द घोष को मृत्युदंड देना चाहती थी क्योंकि उसका दृढमत था कि क्रांतिकारियों को मार्गदर्शन एवं अन्य निर्देश अरविन्द घोष द्वारा ही दिये जा रहे हैं।
पुलिस मानती थी कि अरविन्द को मृत्युदंड देने से क्रांतिकारियों को मार्गदर्शन न मिलने से वे हताश हो जाएंगे और गतिविधियां बंद हो जायेंगी। इसके लिए अरविन्द घोष के विरुद्ध गवाह आवश्यक था जिसके लिए पुलिस पकड़े गये क्रांतिकारियों को अत्यधिक यातना के साथ सरकारी गवाह बन जाने पर केस माफ करने एवं अन्य सुविधाएं देने का लालच दे रही थी। दुर्योग से पुलिस के प्रलोभन में फंस नरेन्द्र नाथ गोस्वामी (नरेन गोसाईं) सरकारी गवाह बन अरविंद घोष के खिलाफ झूठी गवाही देने को राजी हो गया। अपने साथियों के साथ गद्दारी और देशद्रोह करने के कारण क्रांतिकारियों के साथ ही जेल के बाहर जनता में भी नरेन गोसाईं का भयंकर विरोध हो रहा था।
उसकी गवाही पर ही सभी क्रांतिकारियों और विशेषतः अरविन्द घोष का केस निर्भर था। क्रांतिकारियों ने हर हाल में नरेन गोसाईं को अदालत में सितम्बर 1908 महीने में बयान देने से पूर्व मौत की नींद सुलाने का निश्चय किया जिसकी जिम्मेदारी कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र नाथ बोस ने उठाई। एक दिन अदालत में बहस के लिए जाते समय किसी क्रांतिकारी ने नरेन गोसाईं को जोरदार लात मारी जिससे वह लड़खड़ाकर अदालत में ही गिर चुटहिल हो गया।
पुलिस किसी अनहोनी से बचाने के लिए नरेन गोसाईं को अलग बैरक में बंद कर दो सिपाही सुरक्षा के लिए तैनात कर दिए। इधर कन्हाई लाल और सत्येन्द्र बोस ने जेल के वार्डनों से दोस्ती गांठ अपने लिए सहानुभूति प्राप्त कर बाहर से दो पिस्तौल मंगा ली। पिस्तौल मिलते ही योजनानुसार सत्येंद्र पेट दर्द का बहाना बनाकर जेल अस्पताल में भर्ती हो गये और दो-चार दिन के अंतराल से कन्हाई लाल भी खांसी का बहाना कर अस्पताल पहुंच गये। अब सत्येन्द्र ने नरेन गोसाईं तक संदेश भिजवाया कि वह क्रांतिकारी जीवन से ऊब गया है और नरेन जैसा ही सरकारी गवाह बनने का इच्छुक है, इसलिए मिलना चाहता है।
नरेंद्र खुश हुआ और 31 अगस्त, 1908 को एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी के साथ सत्येन्द्र बोस से मिलने अस्पताल में उसके कमरे पहुंच गया। बातचीत के दौरान अवसर देखकर सत्येन्द्र ने पिस्तौल निकाल नरेन के ऊपर फायर किया किन्तु नरेन हमला होता देख भागने लगा। निशाना चूकने से गोली उसका पैर छूती निकल गई। शिकार को हाथ से फिसलता देख दूसरे कमरे में अपने बिस्तर पर सावधान लेटा कन्हाई लाल चीते की फुर्ती सा उछलकर आया और भागते नरेंद्र पर धुआंधार फायरिंग शुरू कर दी। तब तक सत्येन्द्र बोस ने भी पहुंचकर पिस्तौल खाली कर दी।
नरेंद्र गोस्वामी मौके पर मारा गया, गद्दार को देशद्रोह की सजा मिल गई। यह खबर जब बाहर पहुंची तो जनता ने खुशियां मनाई। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने तो मिठाई बांटी। आगे कन्हाई लाल दत्त और सत्येन्द्र नाथ बोस तुरन्त गिरफ्तार कर लिए गये। अदालत में मुकदमा चला, जज ने 21 अक्टूबर, 1908 को दोनों को फांसी की सजा सुना दी। जज ने फैसला में लिखा कि कन्हाई लाल को अपील करने का अधिकार नहीं होगा।
कन्हाई लाल दत्त को 10 नवम्बर, 1908 को अलीपुर जेल में फांसी पर चढ़ा दिया तथा दो दिन बाद सत्येन्द्र नाथ बोस को भी फांसी दे दी गई। कन्हाई लाल की शव यात्रा में कलकत्ता उमड़ पड़ा। श्मशान घाट में जगह कम पड़ गई। चिता की अग्नि ठंडी होने तक लोग वहीं डटे रहे और चिता शांत होते ही दैहिक भस्म को अपने माथे पर लगाने की होड़ मच गई। बीस वर्ष की अल्पायु में वह युवक कन्हाई लाल भारत माता की बेड़ियों को काटने हेतु अपना जीवन समर्पित कर हजारों युवकों की प्रेरणा बन पावन रज में एकाकार हो गया। देश का दुर्भाग्य की उस महान क्रांतिकारी को वह सम्मान और स्थान न मिल सका जिसका वह हकदार था। लेखक शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक तथा स्वाधीनता आंदोलन के अध्येता हैं।