भारत की आत्मा अध्यात्म और उसकी लयधारा भक्ति

मथुरा-वृंदावन के वात्सल्यग्राम में सह-सरकार्यवाहक डॉ. कृष्णगोपाल जी के मार्गदर्शन और संरक्षण में ‘भारतीय भाषाओं का भक्ति साहित्य’ विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का किया गया आयोजन। 14 भाषाओं के डेढ़ सौ विद्वानों का हुआ भक्ति-संगम

          भारत में भक्ति के प्रसार के विषय में मान्यता है कि ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानंद। प्रकट किया कबीर ने सप्तदीप नौ खंड।।‘ भक्ति का विकास तमिल से माना जाता है। भागवत महात्म्य के अंतर्गत बताया गया है कि भक्ति तमिल से शुरू होकर कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र की ओर से ब्रज में आई थी। (उत्पन्ना द्राविड़े साहं वृद्धिं कर्णाटके गता, क्वचित्  क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।) जहाँ पुनःभक्ति ब्रज में संजीवनी पाकर युवती बन गई और धीरे-धीरे पूरे भारत में फ़ैल गई। इसी ब्रज की भूमि पर राष्ट्रीय-चिंतक और सुविख्यात विचारक, संघ के सह-सरकार्यवाहक डॉ.कृष्णगोपाल जी के मार्गदर्शन और संरक्षण में ‘भारतीय भाषाओं का भक्ति साहित्य’ विषयक त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें 14 भाषाओं के डेढ़ सौ विद्वानों का भक्ति-संगम हुआ। पूर्वोत्तर में मणिपुर से लेकर उत्तर में पंजाब, दक्षिण में तमिल और पश्चिम गुजरात से पूरब में उड़ीसा सहित बीस प्रदेशों का प्रतिनिधित्व था। भक्ति साहित्य के इन अध्येताओं के त्रिदिवसीय मंथन से ब्रज में भक्ति साहित्य का संगम सम्पन्न हुआ। इस संगोष्ठी में लघु भारत का दृश्य प्रकट हुआ था, जिसमें पहली बार विहंगम रूप में भारत की प्रमुख भाषाओं से भक्ति विषयक चिंतन को लेकर विद्वानएकत्रित हुए थे। निःसंदेह कहा जा सकता है कि ब्रज की धरती से यह दूसरा भक्ति जागरण है।

          भारतीय विद्या अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली के तत्वावधान में आयोजित यह संगोष्ठी ‘वात्सल्य ग्राम’ वृंदावन, मथुरा में संपन्न हुई। उद्घाटन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाहक डॉ. कृष्णगोपाल जी ने चिंता जाहिर की कि देश भर के लगभग 1500 संतों के साहित्य को एकत्रित करने की आवश्यकता है, क्योंकि जब मुगल काल में देश बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा था, तो भारतीय समाज को भारत के संतों ने उन्हें संकट काल से उबार कर भारत की सांस्कृतिक एकता बनाएरखी। उन संतों ने भारत के वैदिक दर्शन को अपने ध्यान में रखते हुए सरल साधना के द्वारा सरल साधना पद्धति का विकास किया। जिसे देश के हिंदू समाज नेअपने भिन्न-भिन्न स्वरूप में स्वीकार किया। यह भक्ति आंदोलन किसी भेदभाव से ऊपर उठकर संपूर्ण देश में व्याप्त हो गया। समाज के प्रत्येक वर्ग को नेतृत्व प्रदान कर संतों का समाज अनुकरणीय बन गया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि स्वतंत्रता के बाद शिक्षा में आध्यात्मिक दर्शन का वातावरण बनाना चाहिए था, लेकिन वह नहीं बन सका। स्वतंत्रता के 78 वर्ष व्यतीत हो होने के बाद भी भक्तों का साहित्य लुप्त हो गया। भक्ति साहित्य का लुप्त हो जाना, भारत की बहुत बड़ी क्षति है। कुछ भक्तों के साहित्य को छोड़कर अन्य भक्ति साहित्य नष्ट होने वाला है। अभी भी यदि नहीं संभाला गया तो बहुत देर हो जाएगी। आज की आवश्यकता है कि समाज के प्रबुद्ध वर्ग भक्ति सहित्य को लेकर सामने आए। भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रीय हैं, उन भाषाओंके भक्ति साहित्य को सभी भाषाओं और भारतीय जनों तक पहुँचाया जाए। भक्ति साहित्य के संत-भक्तों ने कर्ममय जीवन जीने की बात की। उन्होंने ईश्वर,सृष्टि, भक्ति,भारतीय एकता,भारत बोध,जीवन मूल्य,सामाजिक समरसता को महत्व दिया। इनके साहित्य में भारत बोध भरा पड़ा है। जहाँ एकता, समता और समरसता है; वही भारत बोध है और वही भारतीयता है। अभेद दृष्टि चली जाए, वही भारत बोध है।

          भारत की आत्मा अध्यात्म है, उसकी लयधारा भक्ति है। प्रचंड आवेग अध्यात्म है, तो उसकी एक धारा सुरसरि रूपी भक्ति है। देश के सभी भक्तों ने वैदिक दर्शन को प्रतिपादित किया है कि ईश्वर सर्वत्र है। हिंसा मत करो क्योंकि सभी जीवों में ब्रह्म का निवास है। लोहिया जी ने भी माना था कि मंदिरों में भारत को एक बनाए रखने में बड़ी शक्ति है।इस भक्ति में भी देश को एक बनाए रखने में बहुत बड़ी शक्ति है। भक्तों ने भक्ति का जागरण घर-घर पहुँचाया था, आज उसे बनाए रखने की आवश्यकता है। भक्ति साहित्य के मूल में संगीत की भावना है। इस भक्ति-संगीत से देश की आत्मा और शरीर की आत्मा एकाकार हो जाती है। आजकल दुनिया के अनेक देशों में युवा वर्ग चर्च-बाईबिल, कुरान-मस्जिद को छोड़कर भारत की भक्ति में लीन हो रहे हैं, क्योंकि यह भक्ति राष्ट्रीय एकता, जीवन मूल्य,अध्यात्म के साथ-साथ सद्गुणों को जोड़ती है और समस्याओं का समाधान करती है। देश की एकता और भारतीय भाषाओं को जोड़ने में सहायक एकमात्र भक्ति साहित्य है। भक्तों ने अपनी भक्ति में भारत की भक्ति की है। उन्होंने अपने क्षेत्र की बात नहीं की, बल्कि सभी लोगों ने भारत भूमि की बात की, जिसमें भारत बोध दिखाई देता है।

          भक्ति कभी मरती नहीं, निरंतर जीवंत रहती है। यह भक्ति दुनिया को एकत्व का संदेश देती है। भक्ति भेदभाव को मिटाने में समर्थ है। भक्ति साहित्य ने विश्व को मानवता का सन्देश और दिशा देने का कार्य किया है। भक्ति का केंद्र संपूर्ण देश था, उसे आज बढ़ाने की आवश्यकता है। इस अवसर पर डॉ. नंदकिशोर पांडेय जी ने कहा कि भक्ति के अध्ययन के तीन सोपान पाए जाते हैं- आचार्य शुक्ल के द्वारा इस्लाम का आक्रमण,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा भारतीय चिंतन धारा का स्वाभाविक विकास,मुक्तिबोध के द्वारा भक्ति आंदोलन सवर्ण के विरुद्ध अवर्णों का आन्दोलन था। परंतु, डॉ. कृष्णगोपाल जी की मान्यता है कि भक्ति का जागरण सामाजिक समरसता और समानता की भावना के कारण हुआ है।

          इस संगोष्ठी में असमी, बांग्ला, मणिपुरी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, सिंधी, तमिल, तेलुगु, अवधी, ब्रज आदि भाषाओं के विद्वानों ने अपने शताधिक शोध-पत्रों के माध्यम से विचार रखा। कार्यक्रम के संयोजक और बांग्ला-हिंदी के विद्वान प्रो. रामेश्वर मिश्र, गुजराती के प्रो. बलवंत जानी, पंजाबी के पद्मश्री प्रो. हरमहेंद्र सिंह बेदी, प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय आदि अनेक विद्वानों ने इसके अनेक सत्रों में अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। सभी भाषाओं के संयोजक-विद्वानों ने अपने-अपने भाषा-समूह की वार्षिक योजना और गतिविधियों पर प्रकाश डाला। देश के सुदूर क्षेत्रों से आये हुए विद्वानों को ब्रज के तीर्थं- श्रीकृष्ण जन्मभूमि, बांकेबिहारी, ताज बीबी आदि का दर्शन और यमुना आरती कराया गया। विविध भाषाओं के विद्वानों द्वारा अपनी-अपनी भाषा के श्रेष्ठ भक्तों की कृतियों को ‘भक्ति-साहित्य की प्रदर्शनी’ लगाई गई।भारत के प्रमुख शताधिकभक्तों की‘चित्र प्रदर्शनी’ भी लगाई गई थी। इस अवसर पर मुगल साहिबजादी ताज बीबी पर डॉ. चंदन कुमार के द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिंदुवाँनी हो रहूँगी’ और संत कबीर पर डॉ. आशीष कुमार साव की पुस्तक ‘कबीर साहित्य में दार्शनिता’ का विमोचन भी किया गया था।

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