व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा — श्रेष्ठ बनने की साधना
डॉ. वीरेन्द्र कुमार शेखर द्वारा रचित पुस्तक “श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम कैसे बनें – प्रकृति, पुरुष और हम” एक ऐसी कृति है जो मानव अस्तित्व के गहनतम प्रश्नों को अत्यंत सहज, स्पष्ट और दार्शनिक रूप में प्रस्तुत करती है। यह केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि आत्मचेतना की ओर एक यात्रा है — एक ऐसा आमंत्रण जो पाठक को अपने भीतर झाँकने, स्वयं को पहचानने और जीवन के उद्देश्य को समझने के लिए प्रेरित करता है। लेखक ने इस पुस्तक में भारतीय दर्शन की गहराई, योगदर्शन की सूक्ष्मता और आधुनिक जीवन की व्यावहारिकता को इस प्रकार संयोजित किया है कि यह न केवल चिंतनशील व्यक्तियों के लिए, बल्कि प्रत्येक उस पाठक के लिए उपयोगी बन जाती है जो अपने जीवन में सार्थकता की खोज कर रहा है।
डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक “श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम कैसे बनें – प्रकृति, पुरुष और हम” का आरंभ ही इस विचार से होता है कि “हम संयोग नहीं अपितु उद्देश्यपूर्ण हैं।” यह एक ऐसी उद्घोषणा है जो पाठक के भीतर तुरंत एक विचार-लहर पैदा करती है — कि क्या हमारा अस्तित्व केवल घटनाओं का परिणाम है, या उसके पीछे कोई गूढ़ उद्देश्य छिपा है? लेखक इसी विचार को केंद्र में रखकर मानव जीवन के परम प्रश्नों का विवेचन करते हैं। वे बताते हैं कि ब्रह्म व्यक्त भी है और अव्यक्त भी, और उसी के पार भी है — इसलिए उसे परम ब्रह्म कहा गया है। अव्यक्त को व्यक्त करने की प्रक्रिया ही जीवन का सार है, और इसी प्रक्रिया में व्यक्ति अपने मूल स्वरूप को खोजता है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह पुस्तक न केवल दार्शनिक चिंतन है, बल्कि आत्मबोध की साधना का भी एक व्यावहारिक मार्गदर्शन है।
डॉ. वीरेन्द्र कुमार शेखर का कहना है कि प्रकृति मानवता की सर्वोच्च गुरू है — वह मौन रहकर भी सामंजस्य, धैर्य और पुनर्नवता के शाश्वत पाठ पढ़ाती है। जब मनुष्य अपने जीवन की गति को उसकी लय में साधता है और भारतीय दर्शन के सिद्धान्तों से उसे संयोजित करता है, तब उसके भीतर सुप्त उच्चतर आत्मा जाग्रत होकर प्रकाशित होती है। भारतीय ज्ञान की विराट निधि — वेदान्त, योग, सांख्य, बौद्ध और जैन दर्शन — यह सिखाती है कि मानव की सच्ची उन्नति जीवन से पलायन में नहीं, बल्कि तर्क, विवेक और सदाचार के संतुलित समन्वय में निहित है। जब ज्ञान आचरण में परिणत होता है, तब विचार आलोकित होता है और कर्म जीवन के उद्देश्य का माध्यम बन जाता है।
ऐसा सामंजस्य ही मनुष्य को लौकिक उत्कृष्टता और आध्यात्मिक मुक्ति — दोनों की ओर अग्रसर करता है; यह सिद्ध करता है कि जीवन की परम सिद्धि सम्यक् ज्ञान, सद्गुण और सत्कर्म के समन्वय में ही निहित है।
आत्मबोध ही जीवन का मर्म है। यही वह बिंदु है जहाँ से मानव अपने वास्तविक स्वरूप की यात्रा प्रारंभ करता है। पुस्तक में यह विचार अत्यंत प्रभावी ढंग से व्यक्त किया गया है कि व्यक्ति तब तक अपने पूर्ण स्वरूप में नहीं पहुँच सकता जब तक वह अपने भीतर के अव्यक्त को पहचानकर उसे व्यक्त नहीं करता। आत्मसाक्षात्कार की यह प्रक्रिया केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और नैतिक रूपांतरण का भी साधन है। व्यक्ति का “स्वस्थ” होना केवल शरीर की स्थिति नहीं, बल्कि अपने मूल स्वरूप में स्थित रहने की अवस्था है—अर्थात् जब व्यक्ति प्रकृति के परिवर्तनशील प्रवाह के बीच भी अपने भीतर शांति और सजगता बनाए रखता है।

पुस्तक में प्रकृति और पुरुष की व्याख्या अत्यंत सूक्ष्मता से की गई है। प्रकृति को लेखक गतिशील, परिवर्तनशील और क्षणभंगुर बताते हैं, जबकि पुरुष को शाश्वत, अचल और चेतना का केंद्र मानते हैं। जब मनुष्य इस द्वैत के संतुलन को समझ लेता है, तब वह न केवल बाहरी संसार को जानता है, बल्कि अपने भीतर की सच्चाई को भी अनुभव करता है। यही संतुलन जीवन को समरसता और स्थायित्व प्रदान करता है।
लेखक का दृष्टिकोण यह स्पष्ट करता है कि आत्मविकास केवल व्यक्तिगत यात्रा नहीं, बल्कि सामाजिक और वैश्विक उत्तरदायित्व भी है। जब व्यक्ति अपने श्रेष्ठ स्वरूप की साधना करता है, तब वह केवल स्वयं को नहीं उठाता — वह अपने परिवार, समाज और राष्ट्र को भी ऊँचा उठाने का कार्य करता है। आत्मविकास की तरंगें व्यक्ति की सीमाओं से परे जाकर दूसरों को भी प्रभावित करती हैं। यही कारण है कि लेखक इसे “सेवा का सर्वोत्तम रूप” कहते हैं। यह विचार पुस्तक को केवल आत्म-सहायता साहित्य की श्रेणी से निकालकर उसे एक व्यापक मानवीय दर्शन में परिवर्तित कर देता है।
डॉ. शेखर का लेखन भाषा की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। उन्होंने अत्यंत सरल किंतु गहन भाषा का प्रयोग किया है जो सामान्य पाठक को भी जटिल आध्यात्मिक विचारों को समझने में सक्षम बनाती है। उनका कथ्य भावनात्मक नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण है। वे किसी प्रकार की उपदेशात्मकता से बचते हुए पाठक को सोचने, मनन करने और अपने अनुभवों से निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित करते हैं। पुस्तक में बार-बार यह भावना उभरती है कि जीवन किसी मंज़िल को पाने का नाम नहीं, बल्कि सतत यात्रा है — एक ऐसी यात्रा जिसमें प्रत्येक दिन आत्म-संशोधन और आत्म-सुधार का अवसर है।
लेखक का दृष्टिकोण अत्यंत व्यावहारिक भी है। वे यह स्वीकार करते हैं कि जीवन अनिश्चितताओं और संघर्षों से भरा है, परंतु इन्हीं संघर्षों में व्यक्ति स्वयं को पहचानता है। उनका मानना है कि हमारा वास्तविक स्वरूप कठिनाइयों की अनुपस्थिति में नहीं, बल्कि संघर्ष की उपस्थिति में प्रकट होता है। यही कारण है कि वे भगवद्गीता के श्लोक “उद्धरेदात्मनात्मानं” का स्मरण कराते हैं — स्वयं के द्वारा ही स्वयं को उठाने का संदेश देते हैं। यह संदेश आज के युग में अत्यंत प्रासंगिक है, जब मानव बाहरी परिस्थितियों को दोष देकर अपने भीतर की सामर्थ्य को भूल जाता है।
पुस्तक का दार्शनिक पक्ष गहराई से जुड़ा है भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से — विशेषकर योगदर्शन, वेदान्त और गीता के विचारों से। परंतु यह पुस्तक केवल दर्शन के उद्धरणों तक सीमित नहीं रहती। लेखक ने उन्हें आज के सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक संदर्भों में पुनः व्याख्यायित किया है। उदाहरण के लिए, वे स्पष्ट करते हैं कि “श्रेष्ठ बनने का अर्थ दूसरों से बेहतर बनना नहीं, बल्कि कल के अपने से बेहतर बनना है।” यह वाक्य न केवल प्रेरणादायी है, बल्कि आज के प्रतिस्पर्धी समाज में एक स्वस्थ सोच को स्थापित करता है।
पुस्तक के मध्य भाग में लेखक मानव जीवन के विभिन्न स्तरों — शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक — के विकास पर विचार करते हैं। वे बताते हैं कि शरीर अपने घावों को भरता है, मन समझ की ओर बढ़ता है, हृदय जुड़ाव की तलाश करता है और आत्मा ज्ञान की प्यास रखती है। इन चारों स्तरों का सामंजस्य ही व्यक्ति को पूर्ण बनाता है। इस दृष्टि से यह पुस्तक केवल आत्मबोध की चर्चा नहीं करती, बल्कि जीवन के समग्र विकास का एक संतुलित दर्शन प्रस्तुत करती है।
डॉ. शेखर के विचारों में एक और महत्त्वपूर्ण तत्व है — सजगता वे बार-बार यह संकेत करते हैं कि जागरूकता ही आत्मविकास की जड़ है। व्यक्ति जब अपने विचारों, कर्मों और प्रतिक्रियाओं के प्रति सजग होता है, तब वह जीवन की घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकता, परंतु उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रित कर सकता है। यही नियंत्रण उसे बाहरी परिस्थितियों से ऊपर उठाकर आत्मिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।
पुस्तक के अंतिम भाग में लेखक जीवन की अनिश्चितताओं पर विचार करते हुए कहते हैं कि यद्यपि हमारे पास समय सीमित है, परंतु प्रयास अनंत है। जीवन का अर्थ इसी प्रयास में निहित है। यही प्रयास हमारी पहचान बनता है, हमारी ढाल बनता है, और यही हमारे जाने के बाद भी समाज में जीवित रहता है। यह विचार न केवल प्रेरक है, बल्कि पाठक के भीतर एक शांत साहस जगाता है — कि चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, विकास की दिशा में चलना ही जीवन का कर्तव्य है।
लेखक के दार्शनिक निष्कर्षों में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आत्म-विकास कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक अनिवार्यता है। आज जब समाज नैतिक भ्रम, मानसिक तनाव और पर्यावरणीय संकटों से जूझ रहा है, तब ऐसे विचार हमें संतुलन और विवेक की राह दिखाते हैं। लेखक का यह कथन कि “हम केवल देह नहीं, चेतना का केंद्र हैं” — आधुनिक युग की भौतिकवादी दृष्टि को चुनौती देता है और एक गहन मानवीय दृष्टिकोण को स्थापित करता है।
अंतत: “श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम कैसे बनें” एक ऐसी कृति है जो पाठक को केवल सोचने पर मजबूर नहीं करती, बल्कि उसे भीतर से बदलने की प्रेरणा देती है। यह पुस्तक आत्मबोध, आत्म-संवेदन और आत्म-साधना की त्रयी को इस रूप में प्रस्तुत करती है कि व्यक्ति इसे अपने जीवन में सहज रूप से लागू कर सके। यह न तो केवल दर्शन है, न केवल प्रेरणा — यह दोनों का समन्वय है। डॉ. वीरेन्द्र कुमार शेखर का लेखन विचार और अनुभूति के संगम पर खड़ा है, जहाँ बुद्धि और भावना दोनों मिलकर पाठक को उसके श्रेष्ठतम स्वरूप की ओर अग्रसर करते हैं।
यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए है जो यह समझना चाहता है कि “श्रेष्ठ बनना” केवल बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि आंतरिक जागृति का नाम है। अपने भीतर छिपे प्रकाश को पहचानने और उसे जगाने की यह यात्रा ही वास्तव में जीवन की सर्वोच्च साधना है — और इस दिशा में डॉ. शेखर का यह प्रयास निःसंदेह समाज के लिए एक अमूल्य योगदान है।
पुस्तक: श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम कैसे बनें
लेखक: डॉ. वीरेन्द्र कुमार शेखर
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स


