सामूहिक नेतृत्व या शिवराज-वसुंधरा के विकेट की तैयारी

इसी हफ्ते मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए जारी भाजपा उम्मीदवारों की दूसरी सूची ने सबको हैरान कर दिया। उम्मीदवारों की इस सूची में तीन कद्दावर केंद्रीय मंत्रियों, पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव और चार सांसदों के नाम थे। इनमें एक-दो को छोड़ दें तो सभी कद्दावर नेता ही नहीं मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी। हैरान करने वाली बात यह भी है कि घोषित 79 उम्मीदवारों में राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम नहीं है। 

पार्टी ने जिन केंद्रीय मंत्रियों नरेंद्र ङ्क्षसह तोमर, प्रहलाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते को उम्मीदवार बनाया है, ये सभी राज्य के कद्दावर नेता हैं। इन्हें मुख्यमंत्री पद का मजबूत उम्मीदवार बताया जा रहा है। इसके अलावा सूची में बीते दो चुनाव से दूरी बना कर चल रहे पार्टी​ के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी हैं। राज्य की राजनीति में इनका कद भी बेहद बड़ा है। ऐसे में इन्हें भी मुख्यमंत्री पद के उम्म्ीदवार के रूप में देखा जा रहा है। फिर जिन चार सांसदों को उम्मीदवार बनाया गया है उनमें राज्य भाजपा के अध्यक्ष रहे राकेश सिंह और सतना सीट से कई बार सांसद रह चुके गणेश सिंह शामिल हैं। राज्य की राजनीति में इनका कद भी बड़ा है।

पार्टी के रणनीतिकार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को टिकट न दिए जाने संबंधी अटकलों और दावों को गलत बता रहे हैं। इनका कहना है कि पार्टी शिवराज को भी टिकट देगी। हालांकि सूची से साफ हो गया कि भले ही शिवराज विधानसभा चुनाव लड़ें, मगर वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो चुके हैं। वैसे भी पार्टी पहले ही उन्हें सीएम पद का चेहरा बनाने से इंकार कर चुकी है। फिर कद्दावर नेताओं को मैदान में उतार कर पार्टी नेतृत्व ने अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं।

बहरहाल मध्यप्रदेश में उम्मीदवारों की दूसरी-तीसरी सूची के बाद शिवराज के भविष्य को ले कर अटकलों का दौर शुरू हो गया। इसी बीच एक और खबर आई जो फिर से चौंकाने वाली थी। पार्टी ने उन सभी राज्यों में सामूहिक नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है, जहां चंद महीने बाद ही विधानसभा चुनाव होने हैं। इस साल मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना में चुनाव होने हैं। सभी राज्यों में सामूहिक नेतृत्व में चुनाव मैदान में उतरने पर मध्यप्रदेश के बाद चर्चा की सुई राजस्थान पर अटक गई। वह इसलिए कि यहां वसुंधरा राजे पार्टी की सबसे बड़ी और सबसे निर्विवाद चेहरा हैं।

खबर है कि मध्यप्रदेश की तर्ज पर पार्टी राजस्थान में भी केंद्रीय राजनीति में जमे राज्य के सभी कद्दावर नेताओं को जगह देगी। यहां भी पार्टी किसी को चेहरा बना कर मैदान में नहीं उतरेगी। इसका मतलब यह हुआ कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे के लिए भी केंद्रीय नेतृत्व ने चला चली की पटकथा तैयार कर दी। पार्टी जब सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी तब जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री पद का फैसला चुनाव के बाद ही होगा। जाहिर तौर पर अगर पार्टी को जनादेश मिला तो वसुंधरा राजे इस दौर से बाहर होंगी। वह इसलिए कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री बनाना होता तो पार्टी नेतृत्व सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे का फैसला ही नहीं करती।

वैसे भी साल 2014 में पार्टी में मोदी युग की शुरुआत के बाद पुराने युग के नेताओं को धीरे-धीरे किनारे कर दिया गया। इनकी जगह उन नेताओं का मौका दिया गया जिनकी नए नेतृत्व में आस्था थी। इस रणनीति के तहत विधानसभा चुनाव में सकारात्मक नतीजे आने के बाद ऐसे-ऐसे चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया गया जो इससे पूर्व पार्टी और राज्य की राजनीति में जाना माना चेहरा नहीं थे। इस क्रम में हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस, झारखंड में रघुवर दास, त्रिपुरा में बिल्पब देब, असम में सर्वानंद सोनोवाल, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मौका दिया गया। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार सहित ज्यादातर राज्यों में पहली पीढ़ी के नेताओं को पीछे कर दिया गया। हालांकि कई कारणों से मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इस परिवर्तन से अछूता रहा।

इस मामले में यहां शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की चर्चा जरूरी है। ये दो ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें कभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखा गया। खासतौर से साल 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद इन नेताओं में केंद्रीय राजनीति का नेतृत्व करने की संभावना देखी गई। वह इसलिए कि इन दो नेताओं के नेतृत्व में पार्टी ने करीब डेढ़ दशक तक मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में राज किया। शिवराज, रमन सिंह के साथ-साथ वसुंधरा राजे बड़े कद के नेता रहे हैं। इन्होंने कभी भी खुद को मोदी युग में सहजता महसूस नहीं की। छत्तीसगढ़ में हार के बाद रमन सिंह का कद अचानक कम हो गया। इस बीच मध्यप्रदेश में कांग्रेस में बगावत के बाद भाजपा को फिर से सरकार बनाने का मौका मिला। तब शिवराज की लोकप्रियता और विकल्प के अभाव में केंद्रीय नेतृत्व को फिर से उन पर भरोसा जताना पड़ा। रही बात राजस्थान की तो बीते विधानसभा चुनाव में हार के बाद से ही नेतृत्व ने उनके विकल्प की तलाश शुरू कर दी थी। चूंकि चुनाव आते आते भी उनका विकल्प नहीं मिल पाया, ऐसे में पार्टी नेतृत्व ने सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे का दांव चला। मतलब केंद्रीय नेतृत्व राज्य में वसुंधरा के इतर नया नेतृत्व उभारने के अपने अभियान से पीछे नहीं हटी।

बहरहाल सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे के फैसले के पीछे भाजपा की अपनी रणनीति और अपने तर्क हैं। भले ही यह साफ दिख रहा है कि इस फैसले के जरिए दरअसल भाजपा नेतृत्व वसुंधरा राजे और शिवराज ङ्क्षसह चौहान को किनारे कर नया नेतृत्व उभारना चाहती है। ऐसा नया नेतृत्व जो मोदी युग के खांचे में फिट बैठे। मूल बात यह है कि भाजपा नेतृत्व को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो उसके खांचे में फिट बैठे। उसके युग और उसकी बादशाहत को स्वीकार करे।

हालांकि इन निर्णयों के समर्थकों के भी अपने तर्क हैं। तर्क के पक्ष में आंकड़े भी हैं। कुछ आंकड़े और तत्य ऐसे हैं जो इनके फैसले के पक्ष में भी हैं। मसलन यह सच्चाई है कि भाजपा के पास राज्य में नेतृत्व का अभाव है। किसी भी राज्य में पार्टी के पास ऐसा चेहरा नहीं है जो अपने दम पर पार्टी को चुनावी वैतरणी पार करा पाए। बीते दो लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम इसके गवाह हैं। अपवाद स्वरूप असम और त्रिपुरा को छोड़ कर किसी भी विधानसभा चुनाव में भाजपा लोकसभा चुनाव में मिले मत के आसपास भी नहीं फटक पाई। इसके उलट विधानसभा चुनाव में पार्टी को स्थानीय नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी का नुकसान उठाना पड़ा। मसलन जिस दिल्ली में भाजपा ने विपक्ष का सूपड़ा साफ किया, वहां विधानसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या दहाई अंक तक नहीं पहुंच पाई। लोकसभा के मुकाबले विधानसभा चुनाव में हरियाणा में 16 फीसदी, झारखंड में 20 फीसदी, महाराष्ट्र में पांच फीसदी वोटों का नुकसान हुआ।

भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि चेहरा पेश करने के बाद पार्टी ब्रांड मोदी की लोकप्रियता का लाभ नहीं उठा पाती। ब्रांड मोदी से जुड़ा मतदाता स्थानीय चेहरे से तुलना करता है और पार्टी का मत प्रतिशत गिर जाता है। दूसरा तर्क है कि सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लडऩे के कारण मुख्यमंत्री पद का विकल्प खुला रहता है। ऐसे में इस पद के दावेदार नेता अपनी संभावनाओं के मद्देनजर अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों में पूरी ताकत झोंकते हैं। फिर विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाने के बाद अपना प्रभाव साबित करने के लिए ऐसे नेता चुनाव में ईमानादारी से पूरा समय देते हैं। चेहरा घोषित होने के बाद की स्थिति दूसरी होती है। मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखने वाले नेता चुनाव के प्रति उदासीन होते हैं। उदासीन नहीं भी होते तो चुनाव में पूरी ताकत  नहीं झोंकते।

तथ्यों की बात करें तो इस पर विश्वास किया जा सकता है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी उन ज्यादातर राज्यों में सफल रही जहां उसने चेहरा पेश नहीं किया। हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, असम, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश सहित कई राज्यों में पार्टी की सरकार बनी। मगर इन राज्यों के दूसरे विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के चेहरे के कारण पार्टी को नुकसान हुआ। कहीं सत्ता चली गई तो कहीं विपक्ष से कड़ा संघर्ष करना पड़ा। कड़े संघर्ष में पार्टी अपना पुराना प्रदर्शन नहीं दोहरा पाई। मसलन त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में फिर से सरकार बना पाई, मगर पुराने प्रदर्शन से बहुत पीछे छूट गई। असम में पार्टी ने सर्वानंद सोनोवाल के सीएम रहते उन्हें अपना चेहरा नहीं बनाया, त्रिपुरा में बिप्लब देव को चेहरा नहीं बनाया। दोनों ही राज्यों में पार्टी को सफलता मिली।

खैर ये भाजपा के तर्क है। मूल सवाल दूसरा है। वह यह है कि नई पीढ़ी सामने लाने के नाम पर पार्टी ने राज्यों में किन चेहरों को सरकार की कमान दी? क्या इन चेहरों का कोई जनाधार था? हकीकत यह है कि केंद्र्रीय नेतृत्व ने सरकार चलाने के लिए ऐसे चेहरे को चुना जिनके पास जनाधार नहीं था। उनकी मतदाताओं के बीच लोकप्रियता नहीं थी। उनमें प्रशासन चलाने का व्यापक अनुभव नहीं था। नेतृत्व ने नया नेतृत्व उभारने के नाम पर जनाधार वाले नेताओं पर अपने विश्वस्त नेताओं को तरजीह दी। इसका नतीजा यह हुआ कि ये नेता अनुभवहीनता, कार्यकुशलता की कमी के कारण अपने अपने राज्यों में अपनी मजबूत पहचान नहीं बना पाए।

बदलाव और नई पीढ़ी को उभारने के नाम पर भाजपा में जो कुछ हो रहा है उसके अपने खतरे भी हैं। पार्टी को इस समय इन खतरों का अहसास नहीं हो रहा। वह इसलिए कि पार्टी के पास अभी ब्रांड मोदी है। ब्रांड मोदी बेहद मजबूत है। ब्रांड मोदी की इमेज और स्वीकार्यता में कोई कमी नहीं आई है। इसे अतिशियोक्ति न माने तो कई बार यह ब्रांड पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत नजर आता है। मगर सवाल है कि क्या यह ब्रांड स्थाई है? क्या हमेशा इस ब्रांड की लोकप्रियता इसी प्रकार कायम रहेगी? जाहिर तौर पर नहीं। वह इसलिए कि राजनीति में अलग-अलग युग का दौर होता है। अपने ही देश की राजनीति नेहरू-इंदिरा युग के बाद अब मोदी युग में पहुंची है। मतलब नेहरू युग और इंदिरा युग की समाप्ति के बाद ही मोदी योगी आया है। मतलब यह भी है कि जिस प्रकार नेहरू और इंदिरा युग का अंत हुआ उसी तरह मोदी युग का भी अंत होगा। फिर सवाल यह है कि जब सभी राजनीतिक युग का खत्म होना या कमजोर होना निश्चित है तब भविष्य की राजनीति के लिए राजनीतिक दलों को मजबूत विकल्प भी साथ ले कर चलना होगा।

इसे कांग्रेस के पतन से समझ सकते हैं। याद कीजिये, आजादी के बाद से अस्सी के दशक तक कांग्रेस ने इस देश पर राज किया। राज सिर्फ नेहरू या इंदिरा युग के कारण नहीं किया। उस दौरान कांग्रेस के पास मजबूत क्षत्रपों की एक बड़ी फौज थी। इतनी बड़ी फौज की पार्टी को राज्यों के सियासी समीकरण साधने के लिए गहरी माथापच्ची करनी पड़ती थी। हर राज्य में मुख्यमंत्री पद के कई मजबूत दावेदार होते थे। किसी एक को मुख्यमंत्री बनाने के बाद पार्टी को उसके समकक्ष नेताओं को केंद्रीय राजनीति में महत्व देना होता था। कांग्रेस में धीरे-धीरे मजबूत जनाधार वाले नेताओं की जगह राज्यसभा की राजनीति करने वाले जनाधार विहीन नेताओं का वर्चस्व कायम हुआ। पार्टी ने नेताओं की जगह मैनेजरों को तरजीह देना शुरू किया। इसका परिणाम कांग्रेस आज भोग रही है। राज्यों में उन्हें जनाधार वाले नेताओं को ढूंढने के लिए पसीना बहाना पड़ रहा है। बावजूद इसके उसे नेता नहीं मिल रहे। क्योंकि ऐसे नेताओं ने दूसरे दलों में अपना नया ठिकाना बना लिया है।

भाजपा भी धीरे-धीरे उसी राह पर है। पार्टी नेतृत्व जनाधार वाले नेताओं को बस इसलिए कुचलना चाहती है कि उसकी आस्था अतीत में दूसरे नेताओं के प्रति रही है। मुश्किल यह है कि पार्टी नेतृत्व जनाधार वाले नेताओं का विकल्प जनाधार विहीन नेताओं को बना रही है। नेताओं की जगह कांग्रेस की तरह मैनेजरों को तरजीह दे रही है। सवाल यह है कि क्या जब ब्रांड मोदी कमजोर होगा तब इन मैनेजरों की फौज के जरिए भाजपा चुनौतियों का सामना कर पाएगी? यह जवाब भाजपा को ढूंढना है। वैसे इस देश की सबसे बड़ी समस्या विद्वता है। समस्या इसलिए कि विद्वता हर निर्णय के लिए अपनी सुविधा के अनुसार तर्क और तथ्य ढूंढ लेती है। चाहे वह निर्णय कैसा ही हो। मगर राजनीति आंकड़ों से नहीं चलती। राजनीति वास्तविकता की धरातल पर अपनी राह बनाती है। उसके भी अपने तर्क और तथ्य हैं। तर्क और तथ्य बस जनाधार है। जनाधार का मतलब नेतृत्व का जनता से जुड़ाव है। अब भले ही सामूहिक नेतृत्व या दूसरे बहाने से भाजपा का वर्तमान नेतृत्व जनाधार वाले नेताओं की बलि ले ले, मगर यह बलि भविष्य में भाजपा पर भारी पड़ सकती है। जिस तरह इस प्रवृत्ति  ने कांग्रेस की बलि ली, उसी तरह भाजपा की भी बलि ले सकती है।

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