हाय रे जिदंगी इतनी सस्ती कब से हो गई

-10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस-

जीवन में उतार-चढ़ाव होना इस जीवन रूपी प्रक्रिया का एक भाग है। सबके जीवन में खुशी और गम एक दूसरे के बाद दस्तक देते ही रहते हैं। देना भी चाहिए अन्यथा जीवन में न खुशी का मोल रह जाएगा और न ही दुख की व्यथा। वैसे भी, हम अपने जीवन की एक समान रफ्तार से थक जाते हैं। तो, सोचिए कि दुख की घड़ी में हमें कहीं न कहीं मन में आस अवश्य ही होगी खुशियों के आने की। दिल में कहीं न कहीं हमें यह विष्वास होगा कि बस अब खुशियां आती ही होंगी। फिर उस अपार दुख में जब भी खुशी का आगमन होता है तो उन आंनद के पलों के महत्व को बयां करना शायद किसी शब्द या शायरी के बस की बात नहीं। इसलिए शायद यह कहना गलत नहीं है कि खुशियों की आन-बान और शान दुख से ही है। दुख होगा, तकलीफ होगी, तभी हम खुशी का इंतजार करेंगे और उसके अस्तित्व को समझ पाएंगे। खैर, गलती यहीं हो जाती है कि लोग दुख से खुशी तक पहुंचने के इस सफर को पूरा नहीं कर पाते। वे बीच रास्ते में अपनी मंजिल से थोड़ी सी दूरी पर ही अपना दम तोड़ देते हैं। जो इस राह को समझ नहीं पाता या चल नहीं पाता वह अपने जीवन की इस प्रक्रिया को समाप्त करना ही बेहतर समझता है।

खैर, अगर इन सब बढ़ती खुदकुशियों के कारणों की बात की जाए तो अक्सर हर केस में एक ही कारण ले देकर सामने आता है वह है-स्ट्रेस, तनाव, अवसाद। दरअसल, इस कलयुग में अवसाद रूपी राक्षस ने अपनी बाहों को इतना फैला दिया है कि युवा पीढ़ी से लेकर बुजुर्ग हर कोई इसकी चपेट में आ चुका है। तकनीक ने जितना विकास दिखाया है, उतनी ही तेजी खुदकुशी के केसों में भी देखी जा रही है। इस अवसाद ने तो इस कदर माया जाल बिछा दिया है कि लोगों को हर समस्या का सबसे बड़ा समाधान लगता है जीवन को खतम कर देना और अक्सर लोग ऐसा कर रहे हैं। मनचाही नौकरी या छोकरी न मिलने से लेकर पारिवारिक कलह, वजह चाहे कुछ भी हो, लोगों के पास एकमात्र उपाय बचता है-खुदकुशी। खुदकुशी के इस कारण तनाव या अवसाद को जानना बेहद आवष्यक है।

आखिर यह तनाव या अवसाद क्या है? इस बारे में मनोचिकित्सक का कहना है कि आज के इस दौर में भौतिक सुख सुविधाएं एकत्र करना ही हर किसी का उद्देष्य बन गया है जिस के लिए हम सदा प्रत्यनशील रहते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि कुछ हासिल करने के बाद भी हम सुखी और संतुश्ट नहीं हो पाते और एक इच्छा के पूर्ण होते ही हमारे मन में दूसरी इच्छा उपजने लगती है जिस से हमारे अंदर तनाव पैदा हो जाता है। हर बार जो बदलाव के कारण तनाव उत्पन्न होता है वही डिपै्रशन कहलाता है।

आप भी डिपै्रशन की चपेट में हैं अगर-आप सो नहीं पाते हैं या फिर आप ज्यादा सोने लगे हैं। आप किसी भी चीज पर उतना ध्यान नहीं लगा पाते जो कि आप पहले आसानी से कर पाते थे। आप उदास व निराश रहते हैं। भले आप कितना प्रयास कर रहे हों, तो भी आप अपने मन से चाहकर भी नकारात्मकता को निकाल नहीं पा रहे हैं। आप को भूख नहीं लगती या आप जरूरत से ज्यादा खाने लगे हैं। आप जरूरत से ज्यादा परेशान, गुस्सैल या चिढ़चिढ़े रहने लगे हैं। आप शराब या धूम्रपान करने लगे हैं, या ऐसी किसी गतिविधि में शामिल हो रहे हैं जो कि आप जानते हैं कि वह गलत है। आप को मन में यह विचार आते हों कि जीवन जीने का कोई फायदा नहीं है।  

मन की उदासीनता (डिप्रैशन)दिन-प्रतिदिन हमारे समाज में बढ़ती जा रही है। यह माना जाता है कि अगर आम जनता का सर्वेक्षण किया जाए तो लगभग 5-10 प्रतिशत लोग डिप्रैशन से पीडिढत हैं। यह एक कड़वा सच है कि इनमें से दो-तिहाई लोग डिप्रैशन का कोई इलाज नहीं कराते। ये लोग या तो डिप्रैशन को एक बीमारी न मानकर उदासीनता से भरी जिन्दगी जीते रहते हैं या फिर उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि सही इलाज करने से इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है। इसलिए आम जनता में डिप्रैशन के बारे में जागरुकता लाने की तथा इस बीमारी के बारे में अवधाराणाओं को दूर करने की जरूरत है।

डिप्रैशन ज्यादातर 25 से 45 वर्ष की उम्र के लोग को प्रभावित करता है। परंतु बच्चों एवं वृद्धावस्था में भी यह बीमारी हो सकती है। बच्चों में डिप्रैशन के लक्षण कुछ अलग होते हैं जैसे कि चिढ़चिढ़ापन, कहना न मानना, पढ़ाई में ध्यान न देना, स्कूल न जाने के बहाने बनाना इत्यादि। बच्चों में डिप्रैशन को पहचानना इसलिए मुमकिन होता है, क्यों कि इनमें मन की उदासीनता, नाउम्मीदी के ख्याल या अपने आपको खत्म करने के विचार आम तौर पर देखे नहीं जाते। डिप्रैशन औरतों में मर्दों की तुलना में 2-3 गुना ज्यादा पाया जाता है। डिप्रैशन समाज के हर वर्ग को प्रभावित करता है। यह सोचना गलत है कि जिन लोगों के पास जिन्दगी के सब ऐशो-आराम है उन लोगों को डिप्रैशन नहीं हो सकता।

डिप्रैशन के क्या कारण है?-

आज के आधुनिक अनुसंधान और शोध कार्यों ने साबित कर दिया है कि डिप्रैशन अन्य बीमारियों की तरह एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज संभव है। हमारा दिमाग जो सारे शरीर का नियंत्रण करता है करोड़ों छोटी-छोटी कोशिकाओं का बना है। उन्हें न्यूरोन्स कहा जाता है। एक न्यूरोन दूसरे न्यूरोन्स से संपर्क कुछ खास पदार्थों के जरिए करता है। इन पदार्थों को न्यूरोट्रांसमीटर कहा जाता है। दिमाग में कुछ ऐसे न्यूरोसमीटर है जिनकी मात्रा में बदलाव आने से डिप्रैशन हो जाता है। वक्त के साथ डिप्रैशन बढने से दिमाग की कोशिकाओं में ऐसे बदलाव आ जाते हैं, जिनसे मरीज के मन में स्वयं को खत्म करने के विचार आने लगते हैं। खुशकिस्मती से ये सारे बदलाव दवाओं अथवा साइकोथैरेपी (मनोचिकित्सा) द्वारा ठीक किए जा सकते हैं। यह जरूरी नहीं है कि डिप्रैशन के हर मरीज को जिन्दगी में ऐसी कुछ दुरूखद घटनाएं हुई हों जो डिप्रैशन का कारण बनती है। आधे से ज्यादा मरीजों में डिप्रैशन बिना किसी पारिवारिक या सामाजिक कारण के हो जाता है।

डिप्रैशन का इलाज क्या है?-

डिप्रैशन का इलाज आसान है। इलाज के चार तरीके हैं। 1। दवाएं, 2। साइकोथैरेपी (मनोरोग विशेशज्ञ द्वारा बातचीत) 3। इलेक्ट्रोकनवल्सिव थैरेपी (बिजली द्वारा इलाज), 4। उन बीमारियों का इलाज जिनके कारण डिप्रैशन हो जाती है। आज भारत में डिप्रैशन दूर करने वाली अधिकतर दवाएं उपलब्ध हैं। मनोरोग विशेशज्ञ की सलाह के अनुसार इनके सेवन से कई प्रकार की उदासी दूर की जा सकती है। दवाओं के साथ-साथ बातचीत द्वारा भी इलाज किया जाता है। जिसे साइकोथैरेपी कहा जाता है। यह मनोरोग विशेशज्ञों द्वारा की जाने वाली विशेश बातचीत होती है। जिसमें मरीज के मन की दशा को समझकर जिन्दगी में आने वाली मुष्किलों का सामना करने के तरीके सिखाएं जाते हैं और प्रोत्साहित किया जाता है।

जब डिप्रैशन इतनी बढ़ गई हो कि मरीज आत्महत्या की सोचने लगे या उसे यह लगने लगे कि वह कभी भी ठीक नहीं होगा तो इलेक्ट्रानिनवल्सिव थैरेपी (ईसीटी) यानी बिजली द्वारा भी इलाज किया जा सकता है। इस इलाज के बारे में आम जनता में बहुत ही भ्रांतियां मगर यह एक सुरक्षित और असरदार इलाज है। मरीज को कोई तकलीफ पहुंचाए। बिना इस इलाज से जल्दी ठीक किया जा सकता है।

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ मनोज तिवारी का कहना है कि आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि इस आत्मघाती व्यवहार से आत्महत्या करने वाले व्यक्ति का परिवार अनेक समस्याओं से घिर जाता है। समाज के प्रत्येक वर्ग में आत्महत्या की दर बढ़ती जा रही है जिसे सामाजिक जागरूकता एवं व्यक्ति में आत्महत्या के विचार आने पर उसमें आ रहे व्यवहारिक परिवर्तनों की समय से पहचान करके मनोवैज्ञानिक परामर्श एवं मनोचिकित्सा के माध्यम से आत्महत्या को टाला जा सकता है। आत्महत्या निवारण में परिवार एवं मित्रों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होना चाहिए की 25 लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं तो उसमें केवल एक ही व्यक्ति अपनी जान गवाता है, जो  बच जाते हैं उन्हें पहले से अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसलिए अपने कौशल एवं क्षमताओं का विकास कर परिस्थिति का सामना करें दुनिया में कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो। 

कोई भी व्यक्ति जो मानसिक या मनोवैज्ञानिक समस्या से ग्रस्त है या इस संबंध में जानकारी रखने की जिज्ञासा रखता है वह व्यक्ति मुझ से मेरे मोबाइल नंबर 9415 997828 पर शाम 7:00 से 8:00 बजे तक निशुल्क जानकारी ले सकता है।
डॉ. मनोज कुमार तिवारी 
वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक परामर्दता 
एआरटी सेंटर, एस एस हॉस्पिटल,
आईएमए, बीएचयू, वाराणसी

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